प्रथम चीन-जापान युद्ध

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प्रथम चीन-जापान युद्ध

चीन-जापान युद्ध के दौरान लड़ते जापानी सैनिक
प्रथम चीन-जापान युद्ध, प्रमुख युद्धस्थल और सेना गतिविधियाँ
प्रथम चीन-जापान युद्ध, प्रमुख युद्धस्थल और सेना गतिविधियाँ
तिथि 1 अगस्त1894 – 17 अप्रैल 1895
स्थान कोरिया, मंचूरिया, ताइवान, पीला सागर
परिणाम जापानी साम्राज्य की जीत, चिंग राजवंश की प्रतिष्ठा की घोर हानि
योद्धा
Qing Dynasty चिंग राजवंश जापान का साम्राज्य जापानी साम्राज्य
शक्ति/क्षमता
630,000 योद्धा
240,000 योद्धा
मृत्यु एवं हानि
35,000 घायल या मृत 1,132 मृत,
3,973 घायल
11,894 बीमारी के कारण मौत

चीन-जापान युद्ध 1894-95 के दौरान चीन और जापान के मध्य कोरिया पर प्रशासनिक तथा सैन्य नियंत्रण को लेकर लड़ा गया था। जापान की मेइजी सेना इसमें विजयी हुई थी और युद्ध के परिणाम स्वरूप कोरिया, मंचूरिया तथा ताईवान का नियंत्रण जापान के हाथ में चला गया। इस युद्ध में हारने के कारण चीन को जापान के आधुनिकीकरण का लाभ समझ में आया और बाद में चिंग राजवंश के खिलाफ़ 1911 मे क्रांति हुई।

इसे प्रथम चीन-जापान युद्ध का नाम भी दिया जाता है। 1937-45 के मध्य लड़े गए युद्ध को द्वितीय चीन-जापान युद्ध कहा जाता है।

युद्ध के कारण[संपादित करें]

कोरिया में जापान का स्वार्थ[संपादित करें]

जापान ने अपने साम्राज्यवाद का मुख्य लक्ष्य चीन को बनाया और सर्वप्रथम कोरिया में उसने चीन के साथ अपनी शक्ति का प्रयोग किया। कोरिया अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से जापान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। इसलिए कोरिया प्रायद्वीप में जापान की बहुत रूचि थी।

चीन के मंचू सम्राटों ने 17वीं शताब्दी में कोरिया पर अधिकार कर लिया था और तभी से कोरिया चीन का अधीन प्रदेश माना जाता था। यद्यपि कोरिया का अपना पृथक राजा होता था, किन्तु कोरिया का स्वतंत्र राजा चीन के सम्राट् को अपना अधिपति स्वीकार करता था। इस तरह कोरिया का राज्य चीन के एक संरक्षित राज्य के समान था।

कोरिया प्रायद्वीप में जापान का परंपरागत स्वार्थ था लेकिन, अभी तक जापान को इस स्वार्थ को पूरा करने का मौका नहीं मिला था। किन्तु अब जापान में सैनिकवाद का जन्म हो चुका था। अतः यह आवश्यक हो गया कि वह कोरिया के संबंध में उग्र नीति का अवलंबन करे। इस समय कोरिया यूरोपीय राज्यों की साम्राज्यवादी नीति के भँवरजाल में फँस रहा था, ऐसी स्थिति में कोरिया चीन के हाथ से निकलकर किसी भी यूरोपीय देश के अधिकार में जा सकता था। इसलिए जापान की चिंता बढ़ी और उसने तय किया कि वह कोरिया को उसके भाग्य पर नहीं छोड़ सकता।

कोरिया में जापान का प्रवेश[संपादित करें]

1875 ई. में जापान का एक जहाज कोरिया के समुद्रतट पर पहुँचा। कोरिया की सरकार ने इस जहाज पर गोलाबारी शुरू कर दी। इस कारण उग्रवादी जापानी नेता कोरिया के विरूद्ध युद्ध घोषित करने की माँग करने लगे। लेकिन, उस जापान के अधिकारियों ने संयम से काम लिया। कोरिया के विरूद्ध युद्ध छेड़ने के बदले उन्होंने निश्चय किया कि जापान एक दूतमण्डल कोरिया भेजे, जो वहाँ की सरकार को जापान के साथ नियमानुसार व्यापारिक संधि करने के लिए प्रेरित करे। 1876 ई. में यह दूतमण्डल कोरिया की राजधानी पहुँचा और कोरिया ने जापान के लिए व्यापार के द्वार खोल दिए गए इस प्रकार जापान को कई व्यापारिक विशेषधाधिकार प्राप्त हुए। जापान को कोरिया में राज्यक्षेत्रातीत अधिकार भी मिला और उसने कोरिया की स्वतंत्र सत्ता को मान्यता दे दी। यह चीनी सम्प्रभुता को चुनौती थी किन्तु इसके फलस्वरूप कोरिया में जापानियों के पैर जम गए। इस प्रकार कुछ समय के लिए कोरिया में शांति हो गई, लेकिन चीन-जापान का मनमुटाव चलता ही रहा।

युद्ध का आरंभ[संपादित करें]

1891 ई. में रूस ने फ्रांस से कर्ज लेकर 3500 मील लंबी ट्रांस साइबेरियन रेलवे बनाने का निश्चय किया। इसके लिए वह दक्षिण कोरिया में अड्डा बनाना चाहता था। इससे जापान के कान खड़े हो गए। इसी बीच कोरिया में 1894 ई. में एक विद्रोह हो गया। तोंगहाक दल के नेतृत्व में हुआ यह विद्रोह मुख्यतः विदेशियों के खिलाफ हुआ था। शाही फौज इसे दबाने में असमर्थ रही। अतएव, उसने चीन से मदद माँगी। चीन की सरकार ने चीनी सैनिकों का एक दस्ता भेज दिया, किंतु 1885 ई. के समझौते के अनुसार जापान को इसकी सूचना पहले न देकर बाद में दी। जापान ने विरोध किया कि इतनी बड़ी संख्या में चीन के सैनिकों का कोरिया में पहुँचना संधि की शर्तां के विरूद्ध था। बदले में जापानी शासकों ने भी चीन को विधिवत सूचित कर सात हजार सैनिक कोरिया भेज दिए। चीन और जापान की सेनाओं के कोरिया में घुसने के पहले ही कोरिया की सरकार ने बलवे को दबा दिया। किन्तु कोरिया की भूमि पर दो विदेशी सेनाएँ डटी रहीं। ऐसा प्रतीत हुआ कि दोनों के मध्य किसी भी क्षण युद्ध छिड़ जाएगा।

अगस्त 1894 ई. में एक चीनी जहाज चीनी सैनिकों सहित कोरिया की ओर जा रहा था। जापान ने मार्ग में ही उसे पकड़ लिया और, चूँकि उक्त जहाज ने आत्मसमर्पण नहीं किया, अतः उस पर आक्रमण कर दिया गया, फलस्वरूप प्रत्येक चीनी यात्री समुद्र में डुबो दिया गया। इस घटना से क्षुब्ध होकर चीन ने 1 अगस्त, 1894 को जापान के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और इस प्रकार प्रथम चीन-जापान युद्ध आरंभ हो गया।

युद्ध की घटनायें एवं परिणाम[संपादित करें]

प्रथम चीन-जापान युद्ध में जापानी नौसेना की रीढ़ : मात्सुशिमा

यह युद्ध लगभग नौ महीनों तक चला जिसमें जापानियों की विजय हुई। जापान की सैनिक तैयारियाँ बहुत ही श्रेष्ठ थीं। जापान की डेढ़ लाख सेना को श्रेष्ठ प्रशिक्षण दिया गया था। जापानी सैनिकों को यथासंभव वेतन मिलता था और उनके जनरल अनुभवी और अत्यंत योग्य थे। उन्हें गोला-बारूद और अन्य रसद की वस्तुएँ यथासमय तथा आवश्यकतानुसार मिलती थीं। जापानी नौसेना में पर्याप्त संख्या में यात्री जहाज थे, जो सेना अथवा युद्ध सामग्री एक रक्षणेत्र से दूसरे में शीघ्रता से पहुँचाया करते थे।

इसके विपरीत, चीन की सेना एकदम बेकार थी। उसके पास न शस्त्र थे और न उसके सैनिक प्रशिक्षित थे तथा सैनिकों को नियमित वेतन भी नहीं मिलता था। उसके सेनापति भी अयोग्य थे। इसके अतिरिक्त चीन का शासन प्रबंध भी दूषित और भ्रष्ट था।

ऐसी स्थिति में चीन की पराजय अवश्यंभावी थी। वस्तुतः, युद्ध के प्रारंभ और अंत तक कभी और चीन को कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। सितम्बर के अंत तक चीनी सेना को कोरिया से भागना पड़ा और यालू नदी की मुठभेड़ में चीनी बेड़े की भीषण पराजय हुई। जापान की एक सेना ने मंचूरिया पर और दूसरी ने लियाओतुंग प्रायद्वीप पर आक्रमण किया। किंगचाऊ और टांकिन का पतन हो गया और नवम्बर में पोर्ट आर्थर पर भी जापान ने अधिकार कर लिया। 1895 ई. के प्रारंभ में जापान की सेनाएँ शांतुंग जा पहुँची जो कोरिया के दूसरे छोर पर स्थित था। फरवरी के मध्य तक बेईहाईवेई का भी पतन हो गया। उत्तर में कई चीनी रक्षा चौकियों पर जापान ने अधिकार कर लिया। इसके उपरांत जापान की सेनाएँ चीन की राजधानी की ओर बढ़ने लगीं। इस स्थिति में चीन की सरकार ने जापान के साथ संधि कर लेना ही उचित समझा।

शिमोनोस्की की संधि[संपादित करें]

17 अपै्रल, 1895 ई. को चीन और जापान के बीच युद्ध समाप्त करने के लिए एक संधि हो गई, जिसकी प्रमुख शर्तें अग्रलिखित थीं -

  • (१) कोरिया को स्वतंत्र राज्य के रूप में स्वीकार किया गया और यह निश्चय हुआ कि उस पर चीन का किसी भी तरह का प्रभुत्व न रहे।
  • (२) चीन ने जापान को फारमोसा, पेस्काडोर्स और लियाओतुंग प्रायद्वीप दे दिए।
  • (३) चीन ने जापान को 200,000,000 तैल (चीनी सिक्का) हर्जाना देना स्वीकार किया। जब तक यह रकम चीन नहीं चुका देता तब तक जापान वेहाईवेई के बंदरगाह पर कब्जा रख सकता था।
  • (४) चीन ने जापान से एक व्यापारिक संधि की जिसमें उसने जापानी उद्योग और व्यापार के लिए चुंगकिंग, सूचो, हांगचो, के बंदरगाह खोल दिए और उसे वे सब सहूलियतें दीं जो यूरोपीय देशों को प्राप्त थीं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]