चिकित्सा समाज-कार्य

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चिकित्सा समाज-कार्य (Medical social work) समाज कार्य का एक उपविषय है। इसे 'चिकित्सालय समाज-कार्य' भी कहते हैं। चिकित्सा समाजकार्यकर्ता प्रायः किसी अस्पताल या नर्सिंग सुविधा में कार्य करते हैं, वे चिकित्सा समाज-कार्य में स्नातक होते हैं, तथा उन रोगियों और उनके परिवार के लोगों को मनोसामाजिक सहायता करते हैं जिन्हें इसकी आवश्यकता होती है।

भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पीड़ितों व रोगियों की सहायता व सेवा का प्रचलन रहा है और हर व्यक्ति एक-दूसरे की सेवा करना अपना उत्तरदायायित्व समझता रहा है। परम्परागत समाजसेवी मानवता के आधार पर आश्रम विद्यालय, चिकित्सालय आदि के माध्यम से जनसाधारण की सेवा करते है।

स्वास्थ के विकास, रोग निवारण व उपचार के क्षेत्र में समाज कार्य की प्रणालियों व तकनिकों के उपयोग को ही चिकित्सकीय समाज कार्य की संज्ञा दी जाती है। मानव समाज में निरन्तर हो रहे परिवर्तन, औद्योगीकरण, नगरीकरण के फलस्वरूप संयुक्त परिवार के स्वरूप में परिवर्तन तथा दिन-प्रतिदिन कि सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं के कारण व्यक्ति की अपनी-व्यक्तिगत व पारिवारिक व्यवस्तता के कारण रोगियों व रोज के फलस्वरूप उत्पन्न मनो सामाजिक समस्याओं के निवारण व निराकरण में चिकित्सकीय समाज कार्य की उपयोगिता एवं मान्यता में वृद्धि हुई है।

चिकित्सकीय समाज-कार्य का कार्यक्षेत्र[संपादित करें]

चिकित्सकीय समाज कार्य ऐसे रोगियों को सहायता प्रदान करने से सम्बन्धित है जो मनोसामाजिक अवरोधों के कारण चिकित्सकीय सेवाओं का प्रभावी रूप से उपयोग करने में असमर्थ होते है। उपयुक्त चिकित्सकीय सेवाओं के उपरान्त भी कुछ रोगियों में समुचित प्रगति नहीं होती क्योंकि कभी-कभी रोगग्रस्त व्यक्ति को चिकित्सालय द्वारा प्राप्त आकर्षण, प्यार एवं सुरक्षा से उसकी मानसिक आवश्यकता की संतुष्टि होती है, फलस्वरूप कुछ रोगी उपचार के बाद भी चिकित्सालय से जाना नहीं चाहते जबकि कुछ अन्य रोगियों की आर्थिक व घरेलू चिन्ता उपचार को विपरीत रूप से प्रभावित करती है। कभी-कभी अज्ञानता व अनभिज्ञता के कारण रोगी शल्य चिकित्सा या लागातार उपचार कराने से भयभीत होते है। रोगियों को सहायता प्रदान करने में चिकित्सकीय सामाजिक कार्यकर्ता उनके साथ अपने वृत्तिक संबंधो, मानवीय व्यवहार संबंधी अपने ज्ञान, रुग्णता की स्थिति में लोगों के व्यवहार के ज्ञान तथा व्यक्ति, उनके परिवार एवं समुदाय में उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग करता है।

चिकित्सकीय समाज कार्य की परिभाषा[संपादित करें]

चिकित्सकीय समाज कार्य, समाज कार्य की एक विशिष्टता है जिसके अन्तर्गत रोग ग्रस्तता के कारण उत्पन्न मानसिक, सामाजिक, शारीरिक एवं आर्थिक अवरोधों व समस्याओं के निवारण व निराकरण में वृत्तिक विधियों का प्रयोग करके सहायता की जाती है। विभिन्न विद्वानों ने चिकित्सकीय समाज कार्य को परिभाषित करने का प्रयास किया है।

प्रोफेसर राजाराम शास्त्री के अनुसारः

‘‘चिकित्सकीय समाज कार्य का मुख्य ध्येय यह होता है कि वह चिकित्सकीय सहुलियतों का उपयोग रोगियों के लिए अधिकाधिक फलप्रद एवं सरल बनाये तथा चिकित्सा में बाधक मनोसामाजिक दशाओं का निराकरण करें।’’

‘‘चिकित्सकीय समाज कार्य स्वास्थ एवं चिकित्सकीय देखरेख के क्षेत्र में समाजकार्य की पद्धतियों एवं दर्शन का उपयोग एवं स्वीकरण है। चिकित्सकीय समाज कार्य, समाज कार्य के ज्ञान तथा पद्धतियों के उन पक्षों का वर्णित व विस्तृत उपयोग करता हे जो स्वास्थ व चिकित्सा संबंधी समस्याओं से ग्रस्त व्यक्तियों के सहायतार्थ विशिष्ट रूप से उपयुक्त होते है।’’

प्रोफेसर एच0एस0 पाठक के अनुसार : "चिकित्सकीय समाज कार्य उन रोगियों के सहायता प्रदान करने से संबंधित है जो सामाजिक व मनोवैज्ञानिक कारकों के कारण उपलब्ध चिकित्सकीय से वाओं का प्रभावी रूप से उपयोग करने में असमर्थ होते है।"

उपयुक्त परिभाषाओं के विश्लेषण एवं समाकलन के आधार परचिकित्सकीय समाज कार्य को निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया जा सकता है।

‘‘चिकित्सकीय समाज कार्य, समाज कार्य तकनीकों का ऐसा व्यवसायिक उपचारात्मक अभ्यास है जिसके द्वारा रोगियों को उपलब्ध निवारक, निदानात्मक एवं उपचारात्मक सुविधाओं के अधिकतम उपयोग द्वारा उपयुक्त रूप से समायोजित सामाजिक प्राणी बनाने के लिए उसे मनो-सामाजिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने हेतु, सहायता प्रदान की जाती है।’’

चिकित्सकीय समाज कार्य, समाज कार्य की एक नव विकसित शाखा है, जो उन सामाजिक, शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर केन्द्रितहै जो बीमार की बीमारी से संबंधित है। अतः एक चिकित्सकीय सामाजिक कार्यकर्ता का कार्य अस्पताल में, बीमारी के उपचार संबंधी व्यवस्था की देख भाल तथा बीमार को विविध प्रकार की सहायता प्राप्त कराना है और उनकी पूर्ति के लिए जो भी साधन है, उन्हें रोगी के लिए उपलब्ध कराता है परन्तु इस व्यवस्था के फलस्वरूप भी उसका कार्य, रोग के एक विशेष पहलू तक सीमित है। वह पहलू सिर्फ और सिर्फ सामाजिक है। वह उन सामाजिककारणों को हल करने का प्रयास करता है। जो भी रोगी के लिए उत्तरदायी है।

चिकित्सकीय समाज कार्य, समाज कार्य की एक शाखा के नाते व्यक्ति की महत्ता के विश्वास पर आधारित है। अतः समाज कार्य की आधारभूतमान्यताओं से प्रेरित होकर, चिकित्सकीय सामाजिक कार्यकर्ता उन व्यक्तियो की सहायता करता है। जो बीमारी से मुक्त होने की प्रक्रिया में सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक कारको के अवरोधों का अनुभव करते है। इन कारको का वस्तुतः बीमार की बीमारी के साथ घनिष्ठ संबंध है। गरीबी रहन-सहन की स्थिति, सामाजिक संबंध तथा सामाजिक पर्यावरण भी अनेक प्रकार की बीमारियों के लिए उत्तरायी है। अतः चिकित्सकीय सामाजिक कार्यकर्ता रोगियो के सहायता के लिए कार्यक्रम का निर्धारण करते समय, इन सभी सामाजिक, आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक कारकों पर भली प्रकार विचार करता है वास्तवमें मनुष्य, मन तथा शरीर की एकता है और औषधि को इस एकता का विचार करना चाहिए। शरीर शास्त्र, रसायनशास्त्र तथा जीवशास्त्र अकेले बीमारी की जटिलताओं को स्पष्ट नहीं करसकते। मन तथा शरीर की बाधाओं को एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता।

समाज कार्य की विशिष्ट शाखाओं के समान ही इस शाखा का भी भिन्न-भिन्न अनुस्थापन है यह विषय के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक बल देता है और अपने विषय सामाग्री के कारण से ही अन्य शाखाओं से भिन्नता रखता है इसकी सीमाएं असाधारण है। परिणाम स्वरूप चिकित्सा समाज विज्ञान के विकास में अद्वितीय एवं विशिष्ट सिद्धान्तों के विकास न करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। अगर चिकित्सा समाज विज्ञान अपने सैद्वान्तिक आधारों पर विकसित हो ता है। तो इसके द्वारा सामान्य समाज विज्ञान भी अवश्य प्रभावित होगी। चिकित्सा समाज वैज्ञानिकों की भूमिका सामाजिक संगठन, विचलनकारी व्यवहार, सामाजिक नियंत्रण, समायिकरण एवं अन्य समान्य समाजवैज्ञानिक अभिरूचियों में प्रतिपादित हो सकती है।

विद्वानों के मतानुसार : ‘‘चिकित्सा क्षेत्र में उन्हीं का योगदान हो सकता है जो उनके अवधारणात्मक उन्मेशों से सामाजिक परिवर्तन लाने की बात करते है।’’

‘‘चिकित्सा जगत में समाज वैज्ञानिको का वैज्ञानिक अनुसंधानतभी महत्वपूर्ण हो सकता है जब समाज वैज्ञानिक अनसंधान में भी उनकी दक्षता हो।’’ दूसरे विषयों के अनुसंधान कर्ताओं का स्वास्थ्य के क्षेत्र में तभी महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। जब उनका चिकित्सा जगत के साथ सम्पर्क हो तथा चिकित्सा जगत में कार्यरत लोग उन्हें स्वीकार करें।

नेशनल एशोसिएशन ऑफ सोशल वर्कर (National Association of Social Worker) ने 1958 में समाज कार्य शिक्षा हेतु स्वास्थ क्षेत्र की उन संस्थाओं को ऐतिहासिक क्रम में सूची बद्ध किया। जिनमें चिकित्सकीय समाज कार्य संस्था प्रदत्त सेवाओं को अधिक उपयोगी बनाने के लिए एक आवश्यक अंग के रूप में स्वीकार किया जो अधोलिखित है :-

  • (१) निजी एवं सार्वजनिक चिकित्सालय :- सामान्य चिकित्सालय, बाल चिकित्सालय विशिष्ट चिकित्सालय, चिर संरक्षण, सेनिटोरियम, कैंसर अनुसंधान, प्रसूतिगृह, गृह सेवा आदि।
  • (२) निदानशाला :- बहिरंग विभाग, विशिष्ट नैदानिकशाला, सामुदायिक निदानशाला सामुदायिक स्वास्थ, प्रसव निदानशाला, स्वास्थ बाल निदान शाला, विकलांग बाल निदान शाला, थोलिप कार्यालय आदि।
  • (३) पुनर्स्थापना इकाइयाँ :- चिकित्सालय एवं बहिरंग विभाग निदान शालाएं केन्द्र व व्यवसायिक पुर्नस्थापना आदि।
  • (४) सार्वजनिक स्वास्थ एवं निवारण चिकित्सा :- राजकीय स्वास्थ्य कार्यक्रम, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ, बाल ब्यूरो स्वास्थ्य सेवा खण्ड, विकलांग बालक, मातृ एवं शिशु स्वास्थ विभाग तथा अन्य स्वैच्छिक स्वास्थ संगठन व संस्थाएं।
  • (५) सामुदायिक संगठन :- सामुदायिक विकास व कल्याण संबंधी स्वास्थ कार्यक्रम समुदाय के सदस्य के रूप में व्यक्तियों के कल्याण एवं स्वास्थ्य वर्धन हेतु से वाएँ।
  • (५) सार्वजनिक कल्याण :- राज्यस्तरी एवं स्थानिय स्वास्थ संबंधी इकाइयों व्यक्तिगत परामर्श एवं स्वास्थ समस्या के संबंध में प्रत्यक्ष सेवा।
  • (७) वृत्तिक विद्यालय :- समाज कार्य विद्यालय चिकित्सकीय सार्वजनिक स्वास्थ विद्यालय, परिचारिका विद्यालय, अन्तिम तीन विद्यालयों में चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता निदानात्मक शिक्षण में पूर्ण या अंश कालिक प्राध्यापक के रूप में सम्मिलित होते है।
  • (८) चिकित्सा अभ्यास का संगठन :- चिकित्सा संगठन के इस क्षेत्र के अन्तर्गत विभिन्न चिकित्सा व्यवस्थाओं से भिन्न मेडिकल प्रेक्टिस के संगठन का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार के अध्ययन के अन्तर्गत विभिन्न स्वास्थ संगठनों के संदर्भ में चिकित्सकीय देख रे ख एवं सुरक्षा के संबंधों का तुलनात्मक विवेचन किया जाता है। इसके अन्तर्गत "Health Insurance Plan clinic" का उदाहरण महत्वपूर्ण है।
  • (९) स्वास्थ नीति एवं राजनीति :- स्वास्थ सुरक्षा प्रारूप का विकास सरकारी इकाईयों ऐच्छिक संगठन एवं व्यक्तिगत लोगों के सम्मिलित प्रयास एवं सहयोगपर आधारित होता है। चिकित्सा एवं सार्वजनिक, नीतियों का निर्धारण एवं व्यवहारिकता समुदाय एवं चिकित्सा रणनीति के संदर्भ में निर्धारित किया जाता है।स्वास्थ व्यवस्था एवं स्वास्थ नीतियों के विकास को समझने के लिए उससे सम्बन्धित समाज में प्रचलित प्रक्रियाओं को समझना आवश्यक है।

चिकित्सा के क्षेत्र में समाज कार्य मुख्यतः वैयक्तिक कार्य विधि से होता है। इस विधि के माध्यम से सामाजिक कार्यकर्ता मुख्यतः तीन स्तरों पर कार्य करता है-

  • (१) प्रथम स्थिति में वह रोगी के व्यक्तिगत जीवन से संबंधित शारीरिक, मानसिक सांवेगिक, सामाजिक एवं आर्थिक जानकारियों को उपलब्ध करता है। इसके पश्चात् वह रोगी का व्यक्तिगत इतिवृत्त पत्र तैयार करता है।
  • (२) दूसरे स्तर के कार्य के लिए उसे परिवार एवं समुदाय का मनो सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करता है।
  • (३) तीसरे प्रकार के कार्य के लिए वह अस्पताल के लिखित-अलिखित नियमों, सुविधाओं तथा व्यवस्थाओं का अध्ययन करता है। इन कार्यो के लिए उसे अस्पताल के कर्मचारियों, चिकित्सकों तथा व्यवस्थापको से सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है। इसके बाद ही वह रोगी का उपचार तथा मदद करता है।

चिकित्सकीय समाजिक कार्यकर्ता के कार्य[संपादित करें]

चिकित्सकीय सामाजिक कार्यकर्ता का प्राथमिक कार्य रोग ग्रस्तता के कारण उत्पन्न सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु वैयक्तिक सेवा कार्य के अभ्यास द्वारा रोगी को सहायता प्रदान करना है। इसके अतिरिक्त अन्य कार्य निम्नलिखित हैः-

  • (१) अभिकरण की नीति निर्धारण एवं कार्यक्रम नियोजन में सहभागिता प्रदान करना।
  • (२) सामुदायिक संगठन से सहभागिता करना।
  • (३) शैक्षणिक कार्यक्रम में सहभागी होना।
  • (४) समाजकार्य अनुसंधान में सहयोग देना।
  • (५) परामर्श एवं निर्देशन सेवा प्रदान करना।

इतिहास[संपादित करें]

विदेशों में चिकित्सकीय समाज कार्य का इतिहास[संपादित करें]

चिकित्सकीय समाज कार्य की शुरूआत मानव समाज की रचना से ही प्रारम्भ में हम दे खते है। कि रोगी के बीमार होने पर उसे समझाने या धैर्य का कार्य, परिवार, धार्मिक संस्थान साधु सन्तों या झाड़ फूक करने वाले की ओर से लिया जाता रहा है। धार्मिक संस्था की ओर से निशुल्क पौष्टिक आहार एवं दुग्ध आदि की सहायता की जाती थी लेकिन यह सहायता वैज्ञानिक नहीं कहीं जा सकती। इसे समाज शास्त्र के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति धार्मिक संरचनाओं से प्रभावित होता रहा है।

चिकित्सकीय समाज कार्य की शुरूआत व्यवस्थित रूप से मैसाचुसेट जनरल अस्पताल (अमेरिका) में हुई। इनमें डा0 रिचर्ड, सी केवट ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यह स्वीकार किया कि रोगों का सामाजिक ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि उसकी सामाजिक स्थिति का प्रभाव रोगी पर पड़ता है। दूसरा उसके कार्य में यह भी सुविधा होती है। उसके उपचार में खाद्य पदार्थो की संतुष्टि में इन्हीं वस्तुओं को प्रस्तुत किया जाता है कि जिसके वहन करने की क्षमता रोगी के आर्थिक स्थिति में आती है। इसके बाद इसकी चिकित्सकीय समाज कार्य की शुरूआत क्रमागत बढ़ती गयी।

1920 में इसका उपयोग या समाज कार्यकर्ता की चिकित्सा में भर्ती सामान्य से विशिष्ट चिकित्सा में बढ़ती है। इस समय तक रोगों से ग्रस्त रोगियों की उपचार हेतु उनसे संबंधित चिकित्सा में अपंग या विकलांग व्यक्तियों की उपचार हे तु समाज कार्यकर्ता कि नियुक्ति की गई। 1920 में इसका विकास स्थानीय राष्ट्र या संघ एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर सामाजिक सेवा में दी जाने वाली कई सेवाओं में इसका अधिक विकास हुआ और विशेषकर पुर्नस्थापन से या उपचार में इसका अधिक विकास हुआ। 1980 में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति की गयी। उसी समय जन स्वास्थ की व्यवस्था की प्रशासकीय सभा एवं समाज कार्य की संख्या द्वारा किया गया। जन स्वास्थ कार्यक्रमों एवं चिकत्सकीय समाज कार्य की शैक्षणिक योग्यता के बारे में सुनिश्चित की गई जिसके आधार पर वहां सामाजिक विद्यालय इस विशेषीकरण की शुरूआत हुई।

ऐच्छिक स्वास्थ संगठनों में भी चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति स्थानीय राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी ये समाज कार्य परामर्श, पुनर्स्थापन, शोध सामुदायिक कार्यकर्ता वैयक्तिक सेवा के रूप में कार्य शुरू कर दिये थे। अब तो इसकी भूमिका अत्यन्त आवश्यक हो गई है। वहां पर चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता चिकित्सा की एक इकाई के रूप में गिने जाते है। आज उन देशों में निदान एवं स्वास्थ सेवा के प्रचार एवं प्रसार में लगभग वही है। यही कारण है की चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता भी शैक्षिक योग्यता एवं कुशलता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके साथ ही इसे प्रशिक्षण की सुविधा भी प्रदान की जाती है। चिकित्सालयों एवं समस्त स्वास्थ क्षेत्रों में कार्यकर्ता प्रशिक्षित है। यहां भारत में ऐसी स्थिति नहीं है की कोई व्यक्ति बगैर समाज कार्य में प्रशिक्षण लिए चिकित्सकीय समाज कार्य में कार्यरत है।

वहाँ अध्यापको को चिकित्सकीय समाज कार्य का अध्ययन करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त व्यवहारिक कार्य करने का अवसर प्रदान किया जाता है। परिणाम स्वरूप ये समस्त गुणों से युक्त एक चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता बन जाते हैं। वहाँ पर चिकित्सकीय समाज कार्य में डाक्टरे ट की सुविधा कई विद्यालयों में सुलभ है। 1956 में कई विश्वविद्यालयों ने एक चिकित्सकीय समाज कार्य को एक विशेषीकरण (स्पेसलाइजेशन) के रूप में अपनाया है।

भारत में चिकित्सकीय समाज कार्य का इतिहास[संपादित करें]

भारत में चिकित्सकीय समाज कार्य का इतिहास वैज्ञानिक पद्वतिपर आधारित है तथा कुछ वर्षो पूर्व से है, यद्यपि परम्परागत सेवा भाव रोगी की सेवा भाव तथा उन्हें मानसिक बल प्रदान करने की क्रिया अति प्राचीन है। परिवार कि ओर से तथा धार्मिक समूह की तरफ से रोगियों की सहायता करना, गरीब रोगियों की शल्य चिकित्सा प्रदान करना तथा उसकी सहायता करना इन संघो के कार्य रहे है। किन्तु व्यवसायिक समाज कार्य पर आधारित तथा कौशल के आधार पर रोगियों की चिकित्सा एवं दुखों को दूर करने में सहायता पहुंचाने का प्रयास 1946 से दिखाई पड़ता है। उल्ले खनीय है की डॉ0 जी0 एस0 घुरये की अध्यक्षता में सर्वेक्षण एवं विकास समुदाय उसकी संतुति 1944-1945 में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति के संदर्भ में देखने को मिलती है। इस समुदाय में दे श में स्वास्थ्य सेवा का आंकलन करते हुए तथा विकास की सम्भावना को देखते हुए विकासात्मक संतुतिया प्रदान की गई है। चिकित्सा दल में समाज कार्य की स्वीकृति भी जरूरी है।

चिकित्सा विज्ञान में रोगी के मनो-सामाजिक स्थितियों पर कम ध्यान दिया जाता है अर्थात् उस समय तक यह नहीं स्वीकार किया जाता की रोगी को रोग मुक्त होने मनो-सामायिक स्थितियां एक महत्वपूर्ण भूमिका रखती हैं 1945-46 में ही डा0 घुरिये कमेटी की संस्तुति के आधार पर सैद्वान्तिक रूप से चिकित्सा क्षेत्र में समाज कार्य की भूमिका स्वीकार कर ली गई।

1946 मुम्बई के जे0 जे 0 अस्पताल में सर्वप्रथम चिकित्सकीय समाजकार्यकर्ता की नियुक्ति की गई। इसके बाद में ही के0 ई0 एम0 में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति की गई। इस प्रकार धीरे-धीरे चिकित्सा के क्षेत्र में समाज कार्यकर्ता को मान्यता मिलने पर उनकी सरकारी-गैर सरकारी चिकित्सालयों में निरंतर नियुक्तियों की गई उदाहरणतया - अखिल भारतीय चिकित्सालय (रांची), बंगलौर, AIMS नई दिल्ली तथा अन्य बड़े चिकित्सालयों में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति की गई जैसा की पूर्णतया पहले बताया गया की समाज कार्यकर्ता की चिकित्सा में सैद्वान्तिक रूप से मान्यता तो स्वीकार कर ली गयी है परन्तु व्यवहारिक रूप से कार्य अन्तिम रूप से अभी भी संतोष जनक नहीं कहीं जा सकती। डॉ0 धुरिये कमेटी ने यह भी स्पष्ट किया की देश के प्रत्येक अस्पताल में कम से कम एक समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति की जानी चाहिए। यदि इस संस्तुति का कार्यन्वयन किया गया होता तो आज जो स्थिति है वह न होती। आज जिला अस्पताल में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति ही नहीं है। 50 बेड वाले क्या 500 बेड वाले बड़े अस्पताल में भी एक चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता की आवश्यकता है।

भारत में चिकित्सकीय समाज कार्य का इतिहास अल्पकालिक है तथा साथ में इसका क्षेत्र अत्यन्त सीमित है एक दूसरी स्थिति भी यह है कि सभी नियुक्त कार्यकर्ता में से अधिकांश अप्रशिक्षित है प्रारम्भ में शायद यह स्थिति है कि चिकित्सकीय समाज कार्य में समाज कार्य सुलभ न रहें और दूसरी यह भी सम्भावना रही हो की उन चिकित्सकीय संस्थाओं के रूप में न स्वीकार करें, सामान्य रूप से ही लेते रहे। इसप्रकार से समाज कार्यकर्ता से उनकी अपेक्षा अति निम्न होती है।

कभी-कभी रोगियों के लिए यह पथ प्रदर्शक का कार्य कर लेते है या चिकित्सा की तरफ से पत्र व्यवहार का कार्य करते है। या कार्यालय के कार्य में ही संबंध कर देते है। अतः इसके इन स्वरूपों के अध्ययन के बाद यह आवश्यक है की उनकी योग्यता का स्पष्ट आभाष चिकित्सा को होना चाहिए यह तब हो सकता हैं जब चिकित्सा में समाज कार्यकर्ता प्रशिक्षित हो। धुरिये कमे टी की संस्तुति के आधार पर ही सभी 50 बेड वाले अस्पतालो में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति कर देना चाहिए गैर सरकारी संस्थाओं में चिकित्सकीय समाज कार्य कर्ता का अत्यन्त सीमित क्षेत्र है।

समाज कार्य की मान्यता के लिए यह भी आवश्यक है कि चिकित्सकों को चिकित्सा अध्ययन के कार्य में समाज कार्य को साधारण दर्जा न दिया जाये ताकि व्यवहार रूप में भी समाज कार्यकर्ता को स्वीकार कर सकें। उल्लेखनीय है की भारत में कुछ चिकित्सालयों में समाज उन्मुलन चिकित्सा विभाग में समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति शैक्षिणिक अध्यापन में की जाने लगी है। सामज कार्य विभाग का यह शुभ लक्षण है किन्तु इस दिशा में नियुक्ति भी मात्र पाँच या छः संस्थाओं तक ही सीमित है। अतः समाज चिकित्सा में समाज कार्यकर्ता नियुक्त अनिवार्य कर देनी चाहिए। इसी प्रकार जन स्वास्थ, परिवार नियोजन, सामुदायिक कार्य में भी समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति अनिवार्य की जानीचाहिए। यह स्थिति भारत सरकार निश्चित कर दे तो समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति में सुधार में वृद्धि होगी।