गोवर्धन मठ
गोवर्धन पीठ या गोवर्धन मठ | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
देवता | भगवान विष्णु (विष्णु) |
अवस्थिति जानकारी | |
राज्य | उड़ीसा |
देश | भारत |
वास्तु विवरण | |
निर्माता | आदि शंकराचार्य |
गोवर्धन मठ ओडिशा राज्य (भारत) के पुरी नगर में स्थित एक मठ है। यह जगन्नाथ मंदिर के साथ जुड़ा हुआ है और आदि शंकराचार्य द्वारा ५०७ वर्ष ईसा पूर्व शताब्दी में स्थापित चार प्रमुख मठों में एक है।[1][2]
यहाँ के देवता जगन्नाथ (भगवान विष्णु) और देवी विमला (भैरवी) हैं। यहाँ का महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म है। यहाँ गोवर्धननाथ कृष्ण और अर्धनारेश्वर शिव के श्री विग्रह आदि शंकर द्वारा स्थापित हैं।[3]
भारतीय उपमहाद्वीप के सम्पूर्ण पूर्व भाग को श्री गोवर्धन पीठ का क्षेत्र माना जाता है।[4] इसमें बिहार, झारखंड, ,राजमुंदरी तक आंध्र प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, सिक्किम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम और प्रयाग तक उत्तर प्रदेश के भारतीय राज्य शामिल हैं। साथ ही नेपाल, बांग्लादेश और भूटान देश भी इस मठ का आध्यात्मिक क्षेत्र माना जाता है। इस मठ के अंतर्गत पुरी, इलाहाबाद, पटना और वाराणसी आदि पवित्र स्थान आते हैं।
पृष्ठभूमि
[संपादित करें]वैदिक सनातन धर्म को पुनर्जीवित करने वाले आदि शंकराचार्य (ईसा से 500 से भी ज्यादा वर्ष पहले) के द्वारा स्थापित चार प्रमुख संस्थानों में एक है गोवर्धन मठ।[5] शंकर के चार प्रमुख शिष्यों पद्म-पाद, हस्ता-मलक, वर्तिका-कर और त्रोटकाचार्य को भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के इन चार प्रमुख शिक्षण संस्थानों का दायित्व सौंपा गया था। [6] इन मठों के संस्थापक आदि शंकर के सम्मान में बाद के मठाधीशों में से प्रत्येक को शंकराचार्य के तौर पर ही जाना जाता जाता है।[7] इस तरह ये अद्वैत वेदान्त के रक्षक माने जाने वाले दशनामी सन्यासियों के प्रमुख भी माने जाते हैं। ज्ञान की ये प्रमुख चार गद्दियाँ पुरी (ओडिशा), श्रृंगेरी (कर्नाटक), द्वारका (गुजरात) और ज्योतिर्मठ (या जोशीमठ) में स्थित हैं।
इतिहास
[संपादित करें]मठ के पहले प्रमुख पद्मपादाचार्य बने। इस मठ के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर से भी एतिहासिक रिश्ते हैं। इसे गोवार्धन मठ कहते हैं। इसके अंतर्गत शंकरानंद मठ नामक उप-स्थान भी आता है।
उस समय द्वारका मठ के प्रमुख स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ ने १९२५ में गोवर्धन मठ की गद्दी संभाली। जब वह अमेरिका में आत्म बोध साहचर्य के दौरे पर थे, तब शंकर पुरुषोत्तम तीर्थ ने उनकी ओर से आश्रम की देख रेख की। स्वामी भारती द्वारा १९६० में महासमाधि प्राप्त करने पर योगेश्वरानंद तीर्थ उनके उत्तराधिकारी बने। उन्हीने १९६१ में महासमाधिप्राप्त की। कुछ समय की अनिश्चितता के बाद १९६४ में स्वामी निरंजन देव तीर्थ, जिन्हें स्वयं स्वामी भारती के इच्छापत्र में नामित किया गया था, को द्वारका के सच्चिदानंद तीर्थ द्वारा मठाधीश बनाया गया। निरंजन देव तीर्थ हिन्दुओं को लेकर अपने राजनीतिक दर्शन व सिद्धान्त रक्षा के के लिए जाने गए। इन्दिरा गांधी के शासनकाल के दौरान गौ रक्षा के निमित्त 72 दिनों की भूख हड़ताल उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना रही। गौ रक्षा हेतु उन्होंने सदैव के लिए छत्र चँवर को त्याग दिया जो शंकराचार्य के लिए एक आवश्यक प्रतीक होते हैं। उनके उत्तराधिकारी वर्तमान शङ्कराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी भी इसका विधिवत पालन कर रहे हैं। [8] १९९२ में निश्चलानंद सरस्वती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर वह गद्दी से उतर गए। ऐसा करने वाले वह इतिहास के प्रथम शङ्कराचार्य थे जिन्हीने जीवित रहते ही पदत्याग किया हो।[9][10]
दरभंगा के महाराज के राजपंडित के बेटे निश्चलानंद सरस्वती का जन्म १९४३ में दरभंगा में हुआ था।[11] उन्होंने तिब्बिया महाविद्यालय के विद्यार्थी रहते हुए संन्यास लेने का निर्णय लिया और काशी, वृन्दावन, नैमिषारन्य, श्रृंगेरी इत्यादि स्थानों पर शास्त्रों का अध्ययन किया। १९७४ में उन्होंने स्वामी करपात्री से दीक्षा ग्रहण की और निश्चलानंद नाम ग्रहण किया।
११ फेब २०१८ को स्वामी निश्चलानंद सरस्वती के पट्टाभिषेक की २५वीं वर्षगाँठ पुरी में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, पूर्व नेपालधीश ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह देव और पुरी के गजपति महाराज दिव्यसिंह देव की उपस्तिथी में मनाई गयी।[12].
स्वामी अधोक्ष्यानंद नामक एक इंसान ने समय-समय पर पुरी के शंकराचार्य होने का दावा किया है। जिसको कटक हाईकोर्ट के द्वारा एक अपराधी घोषित किया गया है तथा जगन्नाथ मन्दिर परिसर व गोवर्द्धन मठ के निकट फटकने से भी प्रतिबंधित किया गया है। [13][14] उन्हें भारतीय मुसलमानों के अमेरिकी महासंघ और शंकरसिंह वाघेला द्वारा २००२ में आमंत्रित किये जाने से जाना जाता है।[15][16]
ओर अधिक
गोवर्धन मठ पूरी पीठ परंपरा
त्रि आगम आचार्य पंडित विकास आमेटा राजसमंद गुरु परंपरा शंकराचार्य अनंत श्री विभूषित श्री निश्चलानंद सरस्वती जी
गुरुवंश - मठाम्नाय - दिग्दर्शन -सेतु- महानुशासनम्
१. गुरुवंश - मठाम्नाय - दिग्दर्शन
शुद्धस्फटिकसंकाशं शुद्धविद्याप्रदायकम्।
शुद्धं पूर्ण चिदानन्दं सदाशिवमहं श्रये ।।१।।
शुद्ध स्फटिकमणिके सदृश श्वेत, शुद्ध ब्रह्मविद्याके प्रदाता, शुद्ध - पूर्ण - चिदानन्दस्वरूप सदाशिवका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।।
नारायणं पद्मभुवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च।
व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम् ।।२ ।। श्रीशङ्कराचार्यमथास्य पद्मपादं हस्तामलकं च शिष्यम्। तं तोटकं वार्तिककारमन्यानस्मद्गुरून् सन्ततमानतोऽस्मि ।। ३ ।।
श्रीमन्नारायण, ब्रह्मा, वसिष्ठ, शक्ति, उनके पुत्र पराशर, व्यास, शुक, महामहिम गौडपाद, योगीन्द्र गोविन्द, उनके शिष्य शङ्कराचार्य एवम् उनके शिष्य पद्मपाद, हस्तामलक, तोटक तथा वार्तिककार सुरेश्वर तद्वत् इनकी परम्परा में अन्य हमारे गुरुओंको मैं सतत नमस्कार करता हूँ।।
नामोच्चारणभेषजम् । श्रीमद्विष्णुमहंसीमातीतमनाद्यन्तं कामिताशेषफलदं ।।
जो असीम, अनादि, अनन्त हैं, जिनके नामका उच्चारण भवरोगकीश्रये ।।४।।
महौषधि है; जो भक्तोंके सकल अभिमत फलको देनेवाले हैं; उन श्रीसम्पन्न
विष्णुका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ ।।
[(कश्यपउपाध्याय चक्रसुदर्शन: )
चतुराम्नाय - चतुष्पीठ - परम्परा -
श्रीगोवर्द्धनमठ - पुरीपीठकी स्थापना गतकलि २६१५ कार्तिकशुक्लपञ्चमी, तदनुसार पूर्व विक्रमसंवत् ४२८ - ४२९ तदनुसार बी. सी. ४८६ में हुई। मूर्तिभञ्जकोंके शासनकालमें उच्छिन्न श्रीजगन्नाथादिको इतकलि २६१७ वैशाखशुक्ल दशमीके दिन भगवत्पाद श्रीशङ्कराचार्यने अपने चिन्मय करकमलोंसे पुनः प्रतिष्ठित किया। उन्होंने गोवद्धनमठमें श्रीगोवर्द्धननाथको प्रतिष्ठित अनेके अनन्तर अपने प्रथम शिष्य श्रीसनन्दनसंज्ञक पद्मपादमहाभागको श्रीगोवर्द्धनमठ
- भोगवर्द्धनक्षेत्र - पुरुषोत्तमधाम पुरीपीठपर अभिषिक्त किया।
पूर्वाम्नाय - गोवर्द्धनमठ – गुरुपरम्परा
माधवस्य सुतः श्रीमान् सनन्दन इति श्रुतः । श्रीमत्परमहंसादिविरुदैरखिलैः सह।। १ ।। श्रीपद्मपादः प्रथमाचार्यत्वेनाभिषिच्यतः । भोगवारः सम्प्रदायो वनारण्ये पदे स्मृते ।।२।। द्विजोत्तम माधवके पुत्र श्रीमान् 'सनन्दन' इस नामसे सुने गये हैं। उन्हींका अन्वर्थनाम श्रीपद्मपाद है। जिनको श्रीशिवावतार भगवत्पाद ङ्कराचार्यने गोवर्द्धनमठके प्रथम जगदुरु - शङ्कराचार्यपदपर अभिषिक्तकिया और तदनुरूप श्रीमत्परमहंसादि समस्त विरुदावलिसे समलङ्कृत
चतुराम्नाय - चतुष्पीठ - परम्परा
इसका सम्प्रदाय भोगवार है। उससे सम्बद्ध शुभप्रद संन्यासियेकि पद अर्थात् योगपट्ट 'वन' तथा 'अरण्य' हैं।। १,२।।
पुरुषोत्तमं तु क्षेत्रं स्याज्जगन्नाथोऽस्य देवता। विमलाख्या हि देवी स्यान्महासत्तेति योच्यते ।। ३ ।।
इसका क्षेत्र 'पुरुषोत्तम' नामक है। इसके 'जगन्नाथ' देवता हैं। 'विमला' नामकी इसकी देवी हैं; जो कि महासत्ता कही जाती हैं।। ३ ।।
तीर्थं महोदधिः प्रोक्तं ब्रह्मचारी प्रकाशकः । महावाक्यं च तत्र स्यात् प्रज्ञानं ब्रह्म चोच्यते ।।४।।
महोदधि इसका 'तीर्थ' कहा गया है। इसके ब्रह्मचारी प्रकाश हैं। ऋग्वेदसे सम्बद्ध ऐतरेयोपनिषत् ५/३ में सन्निहित 'प्रज्ञानं ब्रह्म' इस मठका महावाक्य कहा जाता है।। ४ ।।
ऋग्वेदपठनं चैव काश्यपो गोत्रमुच्यते।
मगधोत्पलबर्बराः । अङ्गबङ्गकलिङ्गाश्च गोवर्द्धनठाधीना देशाः प्राचीव्यवस्थिताः ।।५।।
'ऋक्' इसका वेद है। काश्यप इसका 'गोत्र' कहा जाता है। अङ्ग (भागलपुर), बङ्ग (बङ्गाल), कलिङ्ग (दक्षिणपूर्व भारत), मगध, उत्कल (ओडिशा), बर्बर (जाङ्गलप्रदेश) नामक पूर्वदिशासे सम्बद्धक्षेत्र इस मठकी अधिकारसीमामें सन्निहित हैं।। " ।। ५।। तस्मिन् गोवर्द्धनमठे शङ्कराचार्यपीठगान्।
जगदुरून् क्रमाद्वक्ष्ये जन्ममृत्युनिवृत्तये ।।६।। उस गोवर्द्धनमठमें शङ्कराचार्यपीठपर कालक्रमसे प्रतिष्ठित जगदुरुओंके नामका कथन जन्म - मृत्युकी निवृत्तिके लिए क्रमशः करता हूँ।। ६ ।।
पद्मपादः शूलपाणिस्ततो नारायणाभिधः ।
विद्यारण्यो वामदेवः पद्मनाभाभिधस्ततः ।। ७।।
: विभूषित निश्चलानंद जी सरस्वती जी महाराज द्वारा लिखित भगवत्पाद शिवावतार शंकराचार्य ग्रंथ से ली गई है।।
पद्मपादः शूलपाणिस्ततो नारायणाभिधः ।
विद्यारण्यो वामदेवः पद्मनाभाभिधस्ततः ।। ७।।
जगन्नाथः सप्तमः स्यादष्टमो मधुरेश्वरः ।
गोविन्दः श्रीधरस्स्वामी माधवानन्द एव च ।।८ ।।
कृष्णो ब्रह्मानन्दनामा रामानन्दाभिधस्ततः ।
वागीश्वरः श्रीपरमेश्वरो गोपालनामकः ।।९।।
जनार्दनस्तथा ज्ञानानन्दश्चाष्टादशः स्मृतः ।
एकोनविंश आचार्यो बृहदारण्यनामकः । मध्यकाले स्थितानेतान्नाचार्याख्यान्नमाम्यहम् ।।१०।।
अथ तीर्थाभिधान् श्रीमद्गोवर्द्धनमठे स्थितान् ।
निरञ्जनार्बपर्यन्तान् गुरून् नाम्ना स्मराम्यहम् ।
महादेवोऽथ परमो ब्रह्मानन्दस्ततः स्मृतः ।।११।।
रामानन्दस्ततो ज्ञेयस्त्रयोविंशः सदाशिवः ।
हरीश्वरानन्दतीर्थो बोधानन्दस्ततः परम्।।१२।।
श्रीरामकृष्णतीर्थोऽथ चिद्बोधात्माभिधस्ततः ।
तत्त्वाक्षरमुनिः पश्चादूनत्रिंशत्तु शङ्करः ।।१३।।
श्रीवासुदेवतीर्थश्च हयग्रीवः श्रुतीश्वरः ।
विद्यानन्दस्त्रयस्त्रिंशो मुकुन्दानन्द एव च।।१४।।
हिरण्यगर्भस्तीर्थश्च नित्यानन्दस्ततः परम्।
सप्तत्रिंशत् शिवानन्दो श्रीयोगीश्वरः सुदर्शनः ।। १५ ।।
अथश्री व्योमकेशाख्यो ज्ञेयो दामोदरस्ततः ।
योगानन्दाभिधस्तीर्थो गोलकेशस्ततः परम् ।। १६ ।।
श्रीकृष्णानन्दतीर्थश्च देवानन्दोऽभिधस्तथा ।
चंद्रचूड़ाभिध: षट्चत्वारिंशोऽथ हलायुधः ।।१७।।
सिद्धसेव्यस्तारकात्मा ततो बोधायनाभिधः ।
श्रीधरो नारायणश्च ज्ञेयश्चान्यः सदाशिवः ।।१८।।
जयकृष्णो विरूपाक्षो विद्यारण्यस्तथा परः ।
विश्वेश्वराभिधस्तीर्थो विबुधेश्वर एव च ।।१९।।
महेश्वरस्तूनषष्टितमोऽथ मधुसूदन:
मधुसूदनः ।
रघूत्तमो रामचन्द्रो योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।।२०।।
ओङ्काराख्यः पञ्चषष्टितमो नारायणोऽपरः ।
जगन्नाथः श्रीधरश्च रामचन्द्रस्तथाऽपरः ।। २१ ।।
अथ ताम्राक्षतीर्थस्स्यात्तत उग्रेश्वरस्स्मृतः
उद्दण्डतीर्थस्ततः स अ दामोदर
सङ्कर्षणजनार्दनौ ।। २२ ।।
अखण्डात्माभिधस्तीर्थः पञ्चसप्ततिसङ्ख्यकः ।
दामोदरः
शिवानन्दस्ततः
श्रीमद्गदाधरः ।।२३
विद्याधरो वामनश्च ततः श्रीशङ्करोऽपरः ।
नीलकण्ठो रामकृष्णस्तथा श्रीमद्रघूत्तमः ।। २४।।
दामोदरोऽन्यो गोपालः षङ्गीतितमो गुरुः ।
मृत्युञ्जयोऽथ गोविन्दो वासुदेवस्तथापरः ।।२५।।
गङ्गाधराभिधस्तीर्थस्ततः श्रीमत् सदाशिवः ।
वामदेवश्चोपमन्युः हयग्रीवो हरिस्तथा ।। २६ ।।
रघूत्तमाभिधस्त्वन्यः पुण्डरीकाक्ष एव च।
परश्शङ्करतीर्थश्च शतादूनः प्रकथ्यते ।। २७ ।।
वेदगर्भाभिधस्तीर्थस्ततो वेदान्तभास्करः ।
विज्ञानात्मा शिवानन्दतीर्थः महेश्वरस्ततः ।।२८ ।।
रामकृष्णाभिधस्त्वन्यत् चतुश्शततमो मतः ।
वृषभध्वजः शुद्धबोधस्ततः सोमेश्वराभिधः ।।२९ ।।
अष्टोत्तरशततमो वोपदेवः प्रकीर्त्तितः ।
शम्भुतीर्थो भृगुश्चाथ केशवानन्दतीर्थकः ।। ३० ।।
विद्यानन्दाभिधस्तीर्थो वेदानन्दाभिधस्ततः
श्रीयोगानन्दतीर्थश्च सुतपानन्द एव च ।।३१ ।।
ततः श्रीधरस्तीर्थोऽन्यस्तथा चान्यो जनार्दनः ।
कामनाशानन्दतीर्थः शतमष्टादशाधिकम् ।।३२।।
ततो हरिहरानन्दो गोपालाख्योऽपरः स्ततः ।
कृष्णानन्दाभिधस्त्वन्यो माधवानन्द एव च ।। ३३ ।।
मधुसूदनतीर्थोऽन्यो गोविन्दोऽथ रघूत्तमः ।
वामदेवो हृषीकेशस्ततो दामोदरोऽपरः ।। ३४ ।
गोपालानन्दतीर्थश्च गोविन्दाख्योपरस्ततः ।
तथा रघूत्तमश्चान्यो रामचन्द्रस्ततः परः ।। ३५ ।।
गोविन्दो रघुनाथश्च रामकृष्णस्ततोऽपरः ।
मधुसूदनतीर्थश्च तथा दामोदरोऽपरः ।। ३६ ।।
रघूत्तमः शिवो लोकनाथो दामोदरस्ततः ।मधुसूदनतीर्थाख्यस्तत आचार्य उच्यते ।।३७।।
भारतीकृष्णतीर्थाख्यो गणितज्ञः प्रकीर्त्तितः ।
महामहिमगोभक्तो देवतीर्थो निरञ्जनः ।। ३८ ।।
यतीन्द्रो निश्चलानन्दसरस्वती ततः स्मृतः । आजन्मब्रह्मचारी यो भाति गोवर्द्धने मठे ।।३९।।
पूर्व कर्मानुरूप नरजन्म तथा जन्मानुरूप वर्ण और वर्णानुरूप आश्रमकी व्यवस्था सनातन श्रौत स्मार्त धर्म है। तदनुसार ब्राह्मण चारों आश्रमोंमें अधिकृत हैं। सन्यासके दशविध प्रभेद श्रीशिवावतार भगवत्पाद शङ्कराचार्यद्वारा ख्यापित हैं। अतः उनके श्रीपद्मपादादि सन्यासी शिष्य और श्रीपद्मपादादिके पीठासीन होनेके पूर्वके सन्यासी शिष्य दशनामी नहीं हो सकते। श्रीतोटक जिन्हें प्रतर्दनाचार्यके नामसे भी जाना जाता है, उन्हें विद्योपलब्धिके पूर्व जडताके कारण गिरि नामसे पुकारा जाता था। पुरीपीठसे सम्बद्ध वन, अरण्य; शृङ्गेरीपीठसे सम्बद्ध भारती, सरस्वती, पुरी; द्वारकापीठसे सम्बद्ध तीर्थ, आश्रम; ज्योतिष्पीठसे सम्बद्ध गिरि, पर्वत, सागर नामासन्यासियोंमें एक पीठसे सम्बद्ध अरण्यादि किसी एक ही सन्यासी न होनेके कारण पीठासीन श्रीपद्मपादादिको किसी एक या एकाधिक नामसे ख्यापित करना सम्भव नहीं। अतः दशनामी सन्यासियोंको ख्यापित करनेमें एक - दो पीढ़ीका अन्तराल स्वाभाविक है।
इस सन्दर्भमें श्रीगोवर्द्धनमठके चौथे आचार्य श्रीविद्यारण्य और उन्नीसवें श्रीबृहदारण्य हुए हैं; अतः देहलीदीपन्यायसे पाँचवेंसे अट्ठारहवेंतक अरण्यनामा रहे हों, यह अधिक सम्भव है। बीसवें श्रीमहादेवतीर्थसे एक सौ चौवालीसवें श्रीनिरञ्जनदेवतीर्थ पर्यन्त तीर्थ नामा सन्यासी हुए हैं।
श्रीगोवर्द्धनमठ - भोगवर्द्धन - पुरुषोत्तमक्षेत्र - विमलापीठका १४५ वाँ श्रीमज्जगद्गुरु - शङ्कराचार्य मैं सर्वभूतहृदय धर्मसम्राट् श्रीहरिहरानन्दसरस्वती 'करपात्री' जीका सन्यासी शिष्य हूँ। भगवत्कृपासे मुझे धर्मसम्राट् और पुरीपीठाधीश्वर पूर्वाचार्यसे वेदान्तादि विविध शास्त्रोंके अध्ययनका कई वर्षोंतक अद्भुत सुयोग सधा है। श्रीहरिगुरुकरुणाके अमोघ प्रभावसे पुरीपीठाधीश्वर - श्रीमज्जगदुरु - शङ्कराचार्य निरञ्जनदेवतीर्थजीने अपने चिन्मय करकमलोंसे मेरा अभिषेक कर मुझे इस आचार्यपदपर प्रतिष्ठित किया है।
एडिटर त्रि आगम आचार्य पंडित विकास आमेटा कश्यप उपाध्याय सामवेद कौथुमी 🙏🏻
नमामि गुरु परंपरा जय शंकर
शम्भुतीर्थो भृगुश्चाथ केशवानन्दतीर्थकः ।। ३० ।।
विद्यानन्दाभिधस्तीर्थो वेदानन्दाभिधस्ततः
श्रीयोगानन्दतीर्थश्च सुतपानन्द एव च ।।३१ ।।
ततः श्रीधरस्तीर्थोऽन्यस्तथा चान्यो जनार्दनः ।
कामनाशानन्दतीर्थः शतमष्टादशाधिकम् ।।३२।।
ततो हरिहरानन्दो गोपालाख्योऽपरः स्ततः ।
कृष्णानन्दाभिधस्त्वन्यो माधवानन्द एव च ।। ३३ ।।
मधुसूदनतीर्थोऽन्यो गोविन्दोऽथ रघूत्तमः ।
वामदेवो हृषीकेशस्ततो दामोदरोऽपरः ।
समुद्र आरती
[संपादित करें]समुद्र आरती वर्तमान शंकराचार्य द्वारा ९ वर्ष पूर्व शुरू किया गया दैनिक अनुष्ठान है। इस दैनिक प्रथा में मठ के शिष्यों द्वारा पुरी स्थित स्वर्गद्वार में समुद्र की प्रार्थना और अग्नि उपासना की जाती है। हर वर्ष की पौष पूर्णिमा को शंकराचार्य स्वयं समुद्र की प्रार्थना करते हैं।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]संदर्भ
[संपादित करें]- ↑ A Tribute to Hinduism: Thoughts and Wisdom Spanning Continents and Time about India and Her Culture. Sushama Londhe. 2008. पृ॰ 3.
- ↑ "Journal of Indian History". Department of Modern Indian History. 57: 225–30. 1979.
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- ↑ Pasricha, Prem C. (1977) The Whole Thing the Real Thing, Delhi Photo Company, p. 59-63
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- ↑ Unknown author (May 5, 1999) archived here (Accessed: 2012-08-30) or here[मृत कड़ियाँ] The Monastic Tradition Advaita Vedanta web page, retrieved August 28, 2012
- ↑ (1994) SUNY Press, A Survey of Hinduism By Klaus K. Klostermaier
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- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 13 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 सितंबर 2018.
- ↑ "Rival Puri shankaracharya arrested, secures bail, Rediff, July 17, 2000". मूल से 13 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 सितंबर 2018.
- ↑ Orissa HC allows seer to enter Puri, The Hindu, September 06, 2000
- ↑ [Shankaracharyas multiply, so do legal tangle, The Times of India]
- ↑ Shankaracharya is Cong’s weapon for BJP’s Hindutva war, Indian Express, Aug 23, 2002