गुजरी महल (हिसार)
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हरियाणा के हिसार में स्थित प्रेम गुजरी महल फिरोजशाह तुगलक द्वारा अपनी प्रेमिका गुजरी नाम की एक स्थानीय कन्या के लिए बनवाया था। फ़िरोज़ की मां जैसलमेर की हिन्दू गुजरी थी और पिता तुर्क मुसलमान था. यह महल 1354 ई. निर्मित कराया गया था। यह फिरोज शाह महल का भाग है। हिसार शहर एक किले के अंदर एक दीवारों के बंदोबस्त के बीच बसा था जिसमें चार दरवाजे थे, दिल्ली गेट, मोरी गेट, नागौरी गेट और तलाकी गेट। महल में एक मस्जिद है जिसका नाम 'लाट की मस्जिद' है। यह लगभग 20 फुट ऊंची बलुआ पत्थर के स्तंभों से बनाई गयी है।
गुजरी प्रेम महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है। ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में १६३१ में बनवाना शुरू किया था, जो २२ साल बाद बनकर तैयार हो सका। हिसार का गुजरी प्रेम महल १३५४ में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने अपनी प्रेमिका जिसका नाम गुजरी था उसके प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया। गुजरी प्रेम महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है। इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था। ताज एक मक़बरा है, जबकि गुजरीी प्रेम महल फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने प्रेमिका गुुुजरी लिए बनवाया था, जो महल ही है।
गुजरी प्रेम महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने क़िला बनवाया। यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया। क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गुुजरी प्रेम महल मौजूद हैं। दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ का महल बताई जाती है। इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है। फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है। अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था। महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी।
सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ और गुुजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है। हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते। यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है। फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे। शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे। उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी। चारों तरफ़ घना जंगल था पास में कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था। आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी। डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे। डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था।
एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा। उसने गुजरी को डेरे से बाहर निकलते देखा तो उस पर मोहित हो गया। अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया। फ़िरोज़ ने उस गुजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस कन्या ने विवाह की मंजरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया । गुजरी अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती। फिर फिरोजशाह से आग्रह किया फ़िरोज़ ने गुजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा।
1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना। फ़िरोज़ की मां गुजरी थी और पिता तुर्क मुसलमान था। सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया। उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, किलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की। उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए। उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे।
दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने गुजरी महल हिसार इलांके में महल बनवाने की योजना बनाई। महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों। यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया। बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी। दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी। तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था।
किवदंती है कि लड़की दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई। दिल्ली के कोटला फ़िरोज़ शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गुजरी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं। तभी हिसार के उस गुजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है।
क़ाबिले-गौर है कि हिसार को फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के वक्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फ़िरोज़ा नामक क़िला बनवाया था। 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'। इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था। अब महल खंडहर हो चुका है। इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-
सुनने की फ़ुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में,
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं।..''