गागरोन का युद्ध

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गागरोन का युद्ध
राजपूत-मालवा सल्तनत युद्ध का भाग
तिथि 1519
स्थान गागरोन , मालवा सल्तनत
परिणाम राजपूत जीत
  • महमूद खिलजी II को बंदी बनाया गया
क्षेत्रीय
बदलाव
राणा सांगा ने मालवा के अधिकांश क्षेत्र पर विजय प्राप्त की[1][2]
योद्धा
राजपूत संघ मालवा सल्तनत
गुजरात सल्तनत
सेनानायक
राणा सांगा
राव वीरमदेव
मेदिनी राय
महमूद खिलजी II (युद्ध-बन्दी)
असाफ़ खान

गागरोन का युद्ध 1519 में मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय और राणा सांगा के राजपूत संघ के बीच लड़ा गया था। यह युद्ध गागरोन (वर्तमान भारतीय राज्य राजस्थान में) क्षेत्र में हुआ और इसके परिणामस्वरूप सांगा की जीत हुई, जिसमें उसने महमूद को बंदी बना लिया और महत्वपूर्ण क्षेत्र पर कब्जा कर लिया।

पृष्ठभूमि[संपादित करें]

मालवा के सुल्तान नासिर-उद-दीन खिलजी की मृत्यु के बाद, उनके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया। महमूद खिलजी द्वितीय मुख्य रूप से राजपूत प्रमुख मेदिनी राय की सहायता से विजयी हुआ। मेदिनी राय का प्रभाव काफ़ी बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप वहाँ के मुस्लिम रईसों की दुश्मनी हो गई, यहां तक कि नए सुल्तान ने भी गुजरात के मुजफ्फर शाह द्वितीय से सहायता के लिए अपील करना आवश्यक समझा। गुजरात सल्तनत की एक सेना को मांडू भेजा गया और उसे घेर लिया गया, जहां मेदिनी राय का बेटा अधिकार में था । बदले में मेदिनी राय ने मेवाड़ के राणा सांगा से सहायता मांगी, जो अपनी सेना को मालवा में सारंगपुर तक ले गए। हालांकि, तब तक गुजरात सल्तनत की सेना मांडू पर कब्जा कर लिया गया था, जिस

कारण सांगा को मेदिनी राय के साथ मेवाड़ लौटना पड़ा। मेवाड़ में मेदिनी राय सांगा की सेवा में कार्यरत रहा। [3]

युद्ध[संपादित करें]

मालवा क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए प्रतिशोध में, महमूद ने गुजरात के आसफ खान के साथ मेवाड़ियों के खिलाफ एक सेना का नेतृत्व किया और इसे गागरोन के मार्ग से ले गया। [3] इसके जवाब में राव वीरमदेव के अधीन मेड़ता के राठौरों के सहित चित्तौड़ से एक बड़ी सेना के साथ सांगा आगे बढ़ा। मेवाड़ी घुड़सवारों ने गुजराती घुडसवारियों के मध्य में से प्रहार किया, जिससे वे बिखर के भागने लगे। बाद में उन्होंने मालवा की सेना के साथ भी ऐसा ही किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें निर्णायक जीत मिली। महमूद घायल हो गया था और हरिदास केसरिया द्वारा बंदी बना लिया गया था। उसके अधिकांश अधिकारियों की मृत्यु हो गई थी और उसकी सेना को नष्ट कर दिया गया था। आसफ खान का बेटा मारा गया, हालांकि वह खुद भागने में सफल रहा। [4]

परिणाम[संपादित करें]

सांगा ने बाद में गागरोन के साथ-साथ ही भीलसा, रायसेन, सारंगपुर, चंदेरी और रणथंभौर के क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया। महमूद को 6 महीने तक चित्तौड़ में बंदी बनाकर रखा गया था, हालांकि कहा जाता है कि राणा खुद व्यक्तिगत रूप से उसके घावों के इलाज की देखभाल की। बाद में सांगा ने महमूद को "सम्मानजनक" मांडू वापसी की अनुमति दी, हालांकि उसका एक बेटा मेवाड़ में बंधक के रूप में रहा। महमूद ने बाद में सांगा को उपहार के रूप में एक गहना और मुकुट भेजा। [5] सांगा ने अपनी जीत के बाद हरिदास केसरिया को चित्तौड़ का किला भेंट किया, जिन्होंने इसे विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करके बदले में 12 गांवों की जागीर स्वीकार की। [4] [6]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Dasharatha Sharma (1970). Lectures on Rajput History and Culture (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass. पृ॰ 27. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8426-0262-4. Early 16th century marks the rise of patriotic one eyed chief of Mewar named as Rana Sanga who defeat several of his neighbour kingdom and establish Rajput hold on Malwa first time after fall of Parmara dynasty through series of victories over Malwa,Gujarat and Delhi Sultanate
  2. Gopinath Sharma (1954). Mewar & the Mughal Emperors (1526-1707 A.D.) (अंग्रेज़ी में). S.L. Agarwala. पपृ॰ 17–18.
  3. Sandhu, Gurcharn Singh (2003). A Military History of Medieval India. Vision Books. पृ॰ 386. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170945253. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "Sandhu2003" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  4. Sarda, Bilas.
  5. Hooja, Rima (2006). A History of Rajasthan. Rupa & Company. पृ॰ 450. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-291-0890-6.
  6. Singh, Mahendra Pratap (2001). Shivaji, Bhakha Sources and Nationalism (अंग्रेज़ी में). Books India International. Rana publicly announced that he would give away his whole kingdom of Mewar to Charan Haridas of the Mahiyaria clan. Haridas humbly refused the offer and accepted only twelve villages . One of those villages was still kept in the possession of Charan's descendants, when Kavi Raja Shyamaldan wrote his book in the closing decades of the 19th century.