ग़दर राज्य-क्रांति

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
सन् 1914 में बंकूवर के बर्राड इन्लेट पर एस एस कोमगाटा मारू नामक जहाज पर सवार पंजाब के सिख ; इनमें से अधिकांश लोगों को कनाडा में उतरने नहीं दिया गया और जहाज को जबरदस्ती भारत वापस भेज दिया गया। इस घटना ने भी गदर आन्दोलन के लिए खाद का काम किया।

ग़दर राज्य-क्रान्ति फरवरी १९१५ में ब्रितानी भारतीय सेना में हुई एक अखिल भारतीय क्रान्ति थी जिसकी योजना गदर पार्टी ने बनायी थी। यह क्रान्ति भारत से ब्रिटिश राज को समाप्त करने के उद्देश्य से १९१४ से १९१७ के बीच हुए अखिल भारतीय विद्रोहों (जिन्हें हिन्दू-जर्मन षडयन्त्र कहते हैं।) में से सबसे बड़ी थी।[1][2][3] इसे प्रथम लाहौर षडयन्त्र भी कहते हैं।

परिचय[संपादित करें]

गदर पार्टी के नेताओं ने निर्णय लिया कि अब वह समय आ गया है कि हम ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उसकी सेना में संगठित विद्रोह कर सकते हैं। क्योंकि तब प्रथम विश्वयुद्ध धीरे-धीरे करीब आ रहा था और ब्रिटिश हकुमत को भी सैनिकों की बहुत आवश्यकता थी। गदर पार्टी के नेतृत्व ने भारत वापिस आने का निर्णय लिया।

अगस्त १९१४ में बड़ी रैलियों और जनसभाओं का आयोजन किया गया। जिसमें सभी हिन्दुओं से कहा गया कि वे हिन्दुस्तान की ओर लौटें और ब्रिटिश हकुमत के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह में भाग लें। इस प्रकार गदर पार्टी के अध्यक्ष सोहन सिंह भाकना, जो कि जापान में थे, ने भारत आने का निर्णय लिया। उन्होने बड़ी सावधानी से अपनी योजना को तैयार किया। ब्रिटिश हकुमत के दुश्मनों से मदद प्राप्त करने के लिए गदर पार्टी ने बरकतुल्लाह को काबुल भेजा। कपूर सिंह मोही चीनी क्रान्तिकारियों से सहायता प्राप्त करने के लिए सन यात-सेन से मिले। सोहन सिंह भाकना भी टोकियो में जर्मन कांउसलर से मिले। तेजा सिंह स्वतंत्र ने तुर्कीश मिलिट्री अकादमी में जाना तय कर लिया ताकि प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सके। गदर पार्टी के नेता पानी और जल के रास्ते भारत पहुंचना चाहते थे। इसके लिए कामागाटा मारू, एस.एस. कोरिया और नैमसैंग नाम के जहाजों पर हजारों गदर नेता चढकर भारत की ओर आने लगे।

लगभग ८ हजार गदर सदस्य भारत विद्रोह के लिए लौट रहे थे और उनका पहुंचना १९१६ तक तय था। देहरादून में भाई परमानन्द ने घोषणा की कि ५ हजार गदर सदस्य उनके साथ आयें। लेकिन बीच की किसी कमजोर कड़ी के कारण यह सूचना ब्रिटिश हकुमत तक पहुंच गयी। उन्होने युद्ध की घोषणा वाले पोस्टरों को गंभीरता से लिया। सितम्बर १९१४ को सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया जिसके तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार दे दिया गया कि वे भारत में दाखिल होने वाले किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ कर सकेंगे भले ही वह भारतीय मूल का क्यों न हो। पहले बंगाल और पंजाब की राज्य सरकारों को यह अधिकार दिये गये और इसके लिए लुधियाना में एक पूछताछ केन्द्र भी स्थापित किया गया। कामागाटा मारू के यात्री इस अध्यादेश के पहले शिकार बने। सोहन सिंह भाकना और अन्य लोगों को नैमसैंग जहाज से उतरते समय गिरफ्तार कर लिया गया और लुधियाना लाया गया। वे गदर सदस्य जो पोसामारू जहाज से आये थे वे भी पकड़े गये। उन्हें मिंटगुमरी और मुल्तान की जेलों में भेज दिया गया। जो जमानत पर छूट गए।

अधिकांश गदरी सिख मजदूर और सैनिक थे अतएव उन्होने अपनी लडाई पंजाब से प्रारंभ की। भारत में गदर के जवानों ने दूसरे क्रान्तिकारियों के साथ अच्छे रिश्ते कायम कर लिये। इनमें से कुछ ने बंगाल और उत्तर प्रदेश में रेव्यूलूश्नरी पार्टी ऑफ इण्डिया (१९१७) गठित की। विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराबा, रास बिहारी बोस, भाई परमानन्द, हाफिज अब्दुला आदि क्रान्तिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अमृतसर को कन्ट्रोल सेन्टर के रूप में प्रयोग किया गया। उसे गदर पार्टी ने बाद में लाहौर स्थानान्तरित कर दिया। १२ फ़रवरी १९१५ को गदर पार्टी ने निर्णय लिया कि विद्रोह और क्रान्ति का दिन २१ फ़रवरी १९१५ होगा। विद्रोह लाहौर की मियांमीर छावनी और फिरोजपुर छावनी से प्रारंभ करना निश्चित हुआ। मियांमीर उस समय अंग्रेजो की 9 डिवीजन में से एक डिजाइन का केंद्र था और पंजाब की सभी छावनियां इसके आधीन थीं। फिरोजपुर की छावनी में इतना हथियार व गोलाबारूद था जिसके इस्तेमाल से अंग्रेज सेना को पराजित किया जा सकता था। उस समय तक गोरी सेना यूरोप भेजी आ चुकी थी और छावनियों में अधिकांश भारतीय मूल के सिपाही और अफसर ही मौजूद थे। थोड़े हथियारबंद लोगों और छावनी के सिख सिपाहियों की मदद से इस जंग को लड़ा जाना था। पूरी रणनीति को मियां मीर, फिरोजपुर, मेरठ, लाहौर और दिल्ली की फौजी छावनियों में लागू किया गया था। कोहाट, बन्नू और दीनापुर में भी विद्रोह उसी दिन होना था। करतार सिंह सराबा को फिरोजपुर को नियंत्रण में लेना था। पिंगले को मेरठ से दिल्ली की ओर बढना था। डाक्टर मथुरा सिंह को फ्रंटियर के क्षेत्रों में जाना था। निधान सिंह चुघ, गुरमुख सिंह और हरनाम सिंह को झेलम, रावलपिंडी और होती मर्दान जाना था। भाई परमानन्द जी को पेशावर का कार्य दिया गया था।

मार्च १९१५ में विद्रोह करने वाले सिपाहियों को सिंगापुर के आउटरैम रोड पर सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गयी।

दुर्भाग्य से ब्रिटिश हकुमत को अपने एजेंटों के माध्यम से क्रान्ति की खबर लग गयी। गदर के नायकों ने विद्रोह की तिथि में २१ फ़रवरी के स्थान पर १९ फ़रवरी करके परिवर्तन कर दिया। परन्तु ब्रिटिश प्रशासन ने तीव्रता दिखाते हुए कार्य किया और भारतीय सेना को बिना हथियार का बना दिया। बारूद के गोदामों पर कब्जा कर दिया इसके बाद गदर पार्टी के बहुत से नेता और योजक गिरफ्तार हो गये। उन्हें लाहौर में कैद कर लिया गया। ८२ गदर नेताओं के ऊपर मुकदमा चला जिसे लाहौर कांस्पिरेसी केस कहा गया। १७ गदर सदस्यों को भगोड़ा घोषित किया गया।

पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिटिश हकुमत से विशिष्ट कानूनी प्रावधानों की मांग की जिसके तहत कोर्ट में अपील की व्यवस्था न हो सके। अंग्रेज सरकार "डिफेन्स ऑफ इण्डिया रूल" का प्रावधान लेकर आयी जिसके तहत गदर नेताओं के विरूद्ध झटपट निर्णय हो सके। १३ सितम्बर १९१५ को २४ गदर नेताओं को मौत की सजा सुनाई गई शेष को उम्र कैद दी गयी। २५ अक्टूबर १९१५ को दूसरे लाहौर कांस्प्रेसी केस में १०२ गदर नेताओं का मुकदमा प्रारम्भ हुआ, जिसका निर्णय ३० मार्च १९१६ को हुआ, जिसके तहत ७ को फांसी की सजा दी गयी, ४५ को उम्रकैद और अन्यों को ८ महीने से ४ वर्ष की कठोर सजा सुनाई गयी।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Plowman 2003, p. 84". मूल से 2 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 मई 2018.
  2. "Hoover 1985, p. 252". मूल से 2 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 मई 2018.
  3. "Brown 1948, p. 300". मूल से 2 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 मई 2018.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]