खंजन
खंजन भारतीय साहित्य का एक चिरपरिचित और उपमेय पक्षी है। इसे खिंडरिच, खंजरीट, खंडलिच आदि नामों से भी पुकारते हैं। यह मोटासिलिडी (Motacillidae) कुल के मोटासिला (motacilla) वर्ग (genus) का पक्षी है जिसे अंग्रेजी में वैगटेल कहते हैं। यह भारत का बहुत प्रसिद्ध पक्षी है जो जाड़ों में उत्तर की ओर से आकर सारे देश में फैल जाता है और गरमी आरंभ होते ही शीत प्रदेशों को लौट जाता है। यह छोटा सा चंचल पक्षी है। इसकी लंबाई ७ से ९ इंच तक होती है। देह लंबी तथा पतली होती है। यह पानी के किनारे बैठा अपनी पूँछ बराबर हिलाता रहता है। इसके नेत्र हर समय चंचल रहते हैं जिसके कारण भारतीय कवि नेत्रों की उपमा खंजन से दिया करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में लिखा है :
- खंजन मुंज तिरीछे नैननि।
जातियाँ
[संपादित करें]रंगरूप और स्वभाव में भेद के अनुसार इसकी चार जातियां देश में पाई जाती हैं।
सफेद खंजन
[संपादित करें]यह खंजन लगभग ८ इंच लंबा और रंग में चितकबरा होता है। जाड़ों में इसके नर के सिर के पीछे एक काला चकत्ता रहता है जो गले के चारों ओर फैल जाता है। सिर का ऊपरी भाग और शरीर का निचला हिस्सा सफेद होता है जिसमें थोड़ी कंजई झलक रहती है। ऊपर का हिस्सा हल्का सिलेटी और डैने काले होते हैं। डैने के परों के किनारे सिलेटी और सफेद होते है ; दुम काली होती है जिसके दोनों बाहरी पंख सफेद रहते हैं। गर्मियों में ठुट्ढी से सीने तक का रंग काला हो जाता है। नर की अपेक्षा मादा धुमैली होती है और शरीर पर की चित्तियां चटक नहीं होती। यह जाड़ों में देश में प्राय: सर्वत्र पानी के किनारे दिखाई देता है। गरमियों में यह यहाँ से लौटकर कश्मीर तथा हिमालय की तराई में अपने घोंसले बनाकर रहता है और वहीं अंडे देता है। इस प्रकार ऋतु के अनुसार इतनी इतनी दूरियों का स्थानांतरण प्रकृति का एक आश्चर्यजनक चमत्कार ही कहा जाएगा।
यह पानी के किनारे छोटे छोटे झुंडों में कीड़े मकोड़ों का शिकार करता रहता है और दौड़कर चलता है, अन्य पक्षियों की भाँति फुदकता नहीं। खतरे का आभास मिलने पर उड़ जाता है किंतु थोड़ी ही दूर के बाद पुन: जमीन पर उतर आता है। इसकी उड़ान लहराती हुई होती है और उड़ते समय चिट् चिट् जैसी बोली बोलता रहता है। सामान्यत: यह पक्षी दो चार की ही टोली में देखा जाता है किंतु जब वे पहाड़ों की ओर लौटते हैं तो इनका एक बड़ा समूह बन जाता है।
शबल खंजन
[संपादित करें]इसे ममोला और कालकंठ भी कहते हैं। यह सफेद खंजन से कुछ बड़ा और उससे अधिक चितकबरा होता है। नर का सिर, ऊपरी सीना और शरीर का सारा ऊपरी भाग काला होता है। आँख के ऊपर एक चौड़ी पट्टी होती है जो नथुने से लेकर कान तक चली जाती है। डैने काले होते हैं, जिनके किनारे सफेद रहते हैं ; दुम काली होती है जिसके बाहर के दोनों पंखों का अधिकांश भाग सफेद होता है नीचे शरीर का सारा भाग सफेद होता है। नर और मादा रूपरंग में प्राय: एक से ही होते हैं। अंतर केवल इतना ही है कि मादा का काला भाग चटक काला न होकर कुछ रखीले भूरेपन को लिए होता है। यह भारतवर्ष का बारहमासी पक्षी है और अपना देश छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाता। यह देश के प्राय: सभी स्थानों पर तथा हिमालय में भी पाँच हजार फुट की ऊंचाई तक देखने में आता है। यह अकेले या झुंड में नदियों, झीलों और तलाबों के किनारे कीड़े मकोड़े ढूंढ़ता फिरता है। इसकी प्राय: सभी आदतें सफेद खंजन जैसी ही होती हैं। घोसला बनाने के मामले में यह पक्षी अत्यंत लापरवाह है। पानी के निकट किसी भीटे या चट्टानों की सूराख में थोड़ा सा घासफूस रखकर ही मादा अंडा दे देती है।
भूरा खंजन
[संपादित करें]इसे खैरैया भी कहते हैं। यह जाड़ों में उत्तर और पश्चिम की ओर से आता है और हिमालय से लेकर धुर दक्षिण तक फैल जाता है। यह पानी के किनारे अकेले ही रहता है। यह अपनी लंबी दुम, निलछौंह स्लेटी पीठ और पीले पेट के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। जाड़ों में नर और मादा दोनों का ऊपरी भाग निलछौंह स्लेटी रहता है और उसमें हरछौंह झलक भी जान पड़ती है। दुम की जड़ के पास एक पिलछौंह हरा चकत्ता रहता है और आँख के ऊपर एक गंदी सफेद रेखा जाती है। डैने काले भूरे होते हैं जिसके किनारे पिलछौंह सफेद रहते हैं। दुम काली जिसके किनारे हरछौंह और ........ के तीन जोड़े पंख एकदम सफेद रहते हैं। ठुड्ढी गला और गर्दन का अगला भाग सफेद रहाता है। नीचे का सारा भाग पीला होता है जो दुम तक जाते जाते अधिक चटक हो जाता है। गर्मियों में नर की ठुड्ढी गला और गर्दन का अगला भाग काला हो जाता है। यह समान्यत: पहाड़ी झरनों के किनारे रहने वाला पक्षी है लेकिन इसे सभी प्रकार के जलाशयों के किनारे देखा जा सकता है। गर्मियों में यह पक्षी स्वदेश लौट जाता है; कुछ हिमालय में रह भी जाते हैं और वहीं मई जून में अंडे देते हैं।
पीला खंजन
[संपादित करें]इसे पिनाकी भी कहते हैं। यह ७ इंच का छोटा पक्षी है। जाड़ों में इसके नर के सिर का ऊपरी हिस्सा निलछौंह सिलेटी और पीठ का सारा भाग धुमैला जैतूनी भूरा रहता है। डैने गाढ़े भूरे रंग के होते हैं; दुम काली होती है। सिर के दोनों ओर एक चौड़ी कलछौंह पट्टी होती हैं। शरीर के नीचे का सारा हिस्सा पीला होता है। गर्मियों में नर के सिर के ऊपर का हिस्सा सिलेटी और पीठ का सारा भाग पिलछौंह हरा हो जाता है। सिर के दोनों ओर की पट्टी काली हो जाती है और नीचे का पीला रंग और चटक हो जाता है। मादा सामान्यत: नर के समान ही होती है अंतर यह है कि उसका सिर हरा और पीठ गाढ़ी जैतूनी भूरी होती है। शरीर के नीचे का पीला रंग हलका रहता है। यह खंजनों में सबसे सुंदर कहा जाता है। इस जाति का खंजन जाड़ों में अगस्त महीने के आसपास उत्तर और पश्चिम से आते हैं और जाड़ा समाप्त होने पर अप्रैल तक उसी ओर लौट जाते हैं। यह अकेला रहने वाला पक्षी है किंतु शाम को बहुत से पीले खंजन एकत्र होकर नरकुल आदि पर बसेरा करते हैं
इन सभी जातियों के खंजन ४ से ७ अंडे देते हैं।
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- जानि सरद रितु खंजन आए
- Wagtail videos on the Internet Bird Collection
- Pied Wagtail shown in Maximum Card of China
- Gray Wagtail shown in Maximum Card of China