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कौमारभृत्‍य

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कौमारभृत्य (कौमार = कुमार का ; भृत्य = सेवा या चिकित्सा) आयुर्वेद चिकित्सा के आठ अंगों में से एक अंग (विभाग) है जिसमें बच्चों (जन्म से लेकर सोलह वर्ष तक की आयु तक) की चिकित्सा का अध्ययन किया जाता है।

आयुर्वेद के अन्तर्गत कौमारभृत्य का बहुत महत्व है क्योंकि यह अष्टांग आयुर्वेद के अन्य अंगों का आधार है। काश्यपसंहिता कौमारभृत्य का प्रमुख ग्रन्थ माना गया है किन्तु यह पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है।

अथर्ववेद में गर्भगर्भिणी, प्रसव, बालशोष, वम्शानुगत रोग आदि के सन्दर्भ में स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता है। ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, गृह्यसूत्र, स्मृतियों तथा पुराणों में कौमारभृत्य सम्बन्धी वर्णन मिलता है। चरकसंहिता में आयुर्वेद के आठ अंगों के नामोल्लेख मात्र है, परन्तु प्रत्येक अंग के अन्तर्गत आने वाले विषयों/उपविषयों का स्पष्टीकरण नहीं है। किन्तु महर्षि सुश्रुत ने आयुर्वेद के आठ अंगों में समाहित विषयों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है।

'कौमारभृत्य' अंग विशेष के लिए महर्षि चरक ने कौमारभृत्य; सुश्रुत ने कौमारभृत्य एवं कौमारतंत्र; अष्टांगसंग्रह, अष्टांगहृदय तथा हारीत ने बालचिकित्सा और कौमारभृत्य शब्द का प्रयोग किया है। अष्टांग आयुर्वेद में कौमारभृत्य को चरक ने छठे, सुश्रुत ने पांचवें, वाग्भट ने द्वितीय, तथा महर्षि काश्यप ने इसे प्रथम स्थान दिया है।

कौमारभृत्य की परिभाषा

कौमारभृत्यं नाम कुमारभरणधात्रीक्षीरदोषसंशोधनार्थं दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम् (सु. सू. १:१३)

जिस तंत्र में कुमार का भरण-पोषण, धात्री के क्षीरदोषो का संसोधन कर्म, दूषित स्तन्य से उत्पन्न व्याधियो, ग्रहों से उत्पन्न व्याधियो एवम अन्य व्याधियो के संशमन का विवेचन हो, उसे कौमारभृत्य कहेंगे |

इन्हें भी देखें

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