केसमुत्ति सुत्त

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केसरिया स्तूप - गौतम बुद्ध ने सम्भवतः यहीं अपना उपदेश दिया था।

केसमुत्ति सुत्त या कालाम सुत्त तिपिटक के अंगुत्तर निकाय में स्थित भगवान बुद्ध के उपदेश का एक अंश है।[1] बौद्ध धर्म के थेरवाद और महायान सम्प्रदाय के लोग प्रायः इसका उल्लेख बुद्ध के 'मुक्त चिन्तन' के समर्थन के एक प्रमाण के रूप में करते हैं।{[2] केसमुति सुत्त अधिक बड़ा नहीं है, किन्तु इसका अत्यन्त महत्त्व है।

केसमुत्तिसुत्त के अन्य भाषाओं में नाम इस प्रकार हैं-

  • पालि : कालाम् सुत्तं या केसमुत्तिसुत्तं
  • संस्कृत : केशमुक्ति सूत्रम् / कालाम सूत्रम्
  • थाई : กาลามสูตร, कलम सुत् या केसमुत्ति सुत्त

परिचय[संपादित करें]

प्रसंग[संपादित करें]

एक बार भगवान बुद्ध अपने विशाल भिक्खुसंघ सहित कोसल जनपद में चारिका करते हुए केस-मुत्त (केश-मुक्त) नामक कालामों के निगम में पहुँचे। कालाम लोग भगवान बुद्ध के सुयश को पहले से ही अच्छी तरह से जानते थे (इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसधम्मसारथी सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवाति)। अतः वे भगवान बुद्ध के दर्शन करने के लिए उनके पास पहुँचे। उनके पास जाकर कालामों ने अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा कि ‘हे भन्ते! कुछ श्रमण-ब्राह्मण केस-मुत्त निगम आते हैं। वे यहाँ अपने ही मत की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरों के मत की निन्दा करते हैं और दूसरों के मत को नीचा दिखाते हैं। पुनः दूसरे श्रमण-ब्राह्मण यहाँ आकर अपने मत की प्रशंसा करके दूसरों के मतों की निन्दा करते हुए नहीं थकते।’

भगवान् बुद्ध के समक्ष इस प्रकार अपनी बात को उपस्थापित करने के पश्चात् उन्होंने भगवान से प्रश्न किया कि ‘हे भन्ते! अपने मत की प्रशंसा तथा दूसरों के मत का दूषण करने से हमारे मन में उनके प्रति शंका पैदा होती है कि इन श्रमण-ब्राह्मणों में किसने सत्य कहा है तथा किसने झूठ?’

तब कालामों के मन के शक का शमन करते हुए भगवान बुद्ध सत्य की कसौटी को उनके समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि ‘हे कालामो! शक करना ठीक है। सन्देह करना ठीक है। वस्तुतः सन्देह करने के स्थान पर ही सन्देह उत्पन्न हुआ है।’

हे कालामों! किसी तथ्य को केवल इसलिए नहीं मानना चाहिए कि यह तो परम्परा से प्रचलित है, अथवा प्राचीन काल से ही ऐसा कहा जाता रहा है, अथवा यह धर्मग्रन्थों में कहा गया है, अथवा किसी वाद के निराकरण के लिए इस तथ्य का ग्रहण समुचित है। आकार या गुरुत्व के कारण ही किसी तथ्य को स्वीकार नहीं करना चाहिए, प्रत्युत इसलिए ग्रहण करना चाहिए कि ये धर्म (कुशल) हैं, अनिन्दनीय हैं तथा इसको ग्रहण करने पर इसका फल सुखद और हितप्रद ही होगा।

मूल पाठ (पालि में) तथा हिन्दी अर्थ
इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति।
यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हे, कालामा, पजहेय्याथ।
(हे कालामाओ ! ये सब मैने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है,
किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।)

कालाम सुत्त के मुख्य बिन्दु[संपादित करें]

  • (१) मा अनुस्सव (मा अनुश्रव) - जिस चीज को बार-बार सुनने के कारण जान लिया है, उसे मत करो।
  • (२) मा परम्पराय होने के कारण उसका पालन मत करो,
  • (३) मा इतिकिराय - अफवाह को पहचानो,
  • (५) मा पिटक सम्पादानेन - किसी धर्मग्रन्थ में कुछ लिखा है, वह आवश्यक नहीं की सही हो,
  • (६) मा तक्कहेतु (तर्क-हेतु नहीं) - अनुमान (अतकलबाजी) पर भी नहीं,
  • (७) मा नय-हेतु - किसी स्वयंसिद्ध (axiom) को मत मानो,
  • (८) मा आकार-परिवितक्केन (आकार परिवितर्क) - ऊपर से तर्कसंगत लगने वाली बात को भी मत मानो,
  • (९) मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया - nor upon a bias towards a notion that has been pondered over,
  • (१०) मा भब्ब-रूपताय (भव्य रूपता पर न जाओ) - किसी दूसरे के बाहर से दिख रही योग्यता पर जओ।
  • (११) मा समाणो नो गरू ('श्रमण हमारे गुरु हैं, ऐसे विचार से नहीं) - इस बात पर भी नहीं कि 'श्रमण हमारा गुरु है'

कालामो, जब तुम स्वयं जान लो कि- ये चीजे अच्छीं हैं, ये चीजे अनिन्दनीय हैं, बुद्धिमान लोग इन चीजों की प्रशंसा करते हैं, इन कार्यों को करने से लाभ होगा और प्रसन्नता होगी, - तब इन कार्यों को करने की तरफ बढो।

अंगुत्तरनिकाय का परिचय तथा वैशिष्ट्य[संपादित करें]

विश्व साहित्य में पालि साहित्य का विशेष स्थान है। विश्व के प्रायः सभी भाषा-साहित्यों को इस भाषा तथा इसके विशाल साहित्य ने प्रभावित तथा पल्लवित किया है। कथा, दर्शन तथा बौद्धिक साहित्य के विकास में तो इसका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह साहित्य सम्पूर्ण विश्व में नैतिक तथा आदर्शवादी साहित्य के विकास में सदियों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है। पालि भाषा में तत्कालीन इतिहास, दर्शन, संस्कृति तथा परम्पराओं का विस्तृत व प्रामाणिक वर्णन प्राप्त होता ही है, किन्तु अपनी वैज्ञानिक, प्रमाण-सम्मत, कल्याणकारी तथा मानवीय शिक्षाओं के लिए यह साहित्य विश्व में विशेष श्रद्धा-स्थान है।[तथ्य वांछित]

पालि साहित्य अत्यन्त विशाल तथा विस्तृत है।[तथ्य वांछित] इसमें प्राप्त होने वाले बुद्ध-वचनों को मुख्यतः तीन भागों में संकलित किया गया, जो इस प्रकार विभक्त है- विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक। [तथ्य वांछित]

विनय-पिटक में भिक्खुओं व भिक्खुणियों के आचार-नियमों का संकलन किया गया है। सुत्त-पिटक में भगवान बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट शिक्षाएँ प्रमुखतः संकलित की गई हैं। अभिधम्म-पिटक में दर्शन-सम्बन्धी तत्त्वों की समीक्षाएँ संग्रहित की गई हैं। [तथ्य वांछित]

चूँकि सुत्त-पिटक में भगवान बुद्ध तथा उनके प्रमुख शिष्यों के उपदेश उपवर्णित किये गये हैं। इस कारण उपासक-वर्ग के लिए इस पिटक का बहुत अधिक महत्त्व है। सुत्त-पिटक में अत्यन्त सरल व सुबोध शैली में सुन्दर उपमाओं तथा रूपकों के माध्यम से आध्यात्मिक तथा भौतिक जीवन को सुखपूर्वक जीने की कला बौद्ध-धर्म परम्परा के अनुसार सीखाई गई है।[तथ्य वांछित]

सुत्त-पिटक पाँच भागों में उपलब्ध होता है। इन पाँचों भागों में अंगुत्तर-निकाय अपने वैशिष्ट्य के कारण विशेष स्थान रखता है।[तथ्य वांछित] अंगुत्तर-निकाय की विशेषता है कि इस निकाय में 1 से लेकर 11 की संख्या के क्रम में अंकों के आधर पर भगवान बुद्ध के उपदेश संग्रहित किये गये हैं। प्रत्येक अंक की संख्या एक अध्याय या निपात है, जो अंकवार विषयों का प्रतिपादन करता है। अतः अध्याय को ही निपात की संज्ञा से जाना जाता है। यह जानना रोचक ही होगा कि एक अंक से एकक-निपात में धम्म (धर्म) की एक संख्या की दृष्टि से व्याख्या की गई। अर्थात् एकक-निपात में धर्म पर एक-एक दृष्टि से विचार किया गया है। दुक-निपात में उस पर दो-दो, तिक-निपात में तीन-तीन तथा चतुक्क-निपात में चार-चार दृष्टियों से वर्णन प्राप्त होता है। इस तरह क्रमशः एकादसक-निपात तक ग्यारह-ग्यारह प्रकार से धर्म की व्याख्या की गई है। एकक-निपात से अंकों में वृद्धि होते हुए दुक-तिक-चतुक्क-पंचक-छक्क-सत्तक-अट्ठक-नव-दसक-एकादसक इस प्रकार क्रम से अंकोत्तर वृद्धि चलती है।[तथ्य वांछित] अतः ‘अंगुत्तरनिकाय’ (अंकोत्तरनिकाय) यह नाम पूर्णतः सार्थक तथा समुचित ही प्रतीत होता है। अंगुत्तर (अंकोत्तर) शब्द में अंग का अर्थ अंक ही है। इन अंकों का उत्तर (बढ़ना) अर्थ में होने पर अंगुत्तर शब्द सिद्ध होता है। क्रमशः अंकों का गणना की दिशा में उत्तर (बढ़ना) ही यहाँ अभिप्रेत है। इस प्रकार यह अंगुत्तर निकाय नाम सार्थक तथा उपयुक्त है।[तथ्य वांछित]

अंगुत्तर निकाय के केसमुत्ति सुत्त में जिस प्रकार से वैज्ञानिक चेतना तथा बौद्धिकता को जागृत करने तथा अन्धविश्वासों तथा घिसी-पिटी बातों नकारने की बात की गई है, वह अपने आप में एक मिसाल है। ढाई हजार वर्षों पूर्व इतनी आधुनिक, वैज्ञानिक तथा तरो-ताजा विचार-पद्धति को उपस्थापित करने वाले भगवान बुद्ध सच ही कितने महान वैज्ञानिक और विमर्शक थे। ढाई हजार वर्षों पूर्व बुद्ध ने इतनी वैज्ञानिक बातें कह दी, जो आज भी विज्ञान को राह दिखा सकती है। निश्चय ही यह सुत्त विज्ञान के लिए एक कसौटी (निकष) ही है।[तथ्य वांछित]

अंगुत्तर निकाय के केसमुत्ति सुत्त में कालामों को सम्बोधित करके बताया गया ज्ञान सम्पूर्ण साहित्य-वाङ्मय में विशिष्ट स्थान रखता है। वस्तुतः इस सुत्त के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही बौद्ध साहित्य तथा बौद्ध-ज्ञान परम्परा प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई।

केसमुत्ति सुत्त तथा उसकी वैज्ञानिक कसौटी[संपादित करें]

केसमुत्ति सुत्त में कहीं गई बातें वैज्ञानिक, विवेकमय तथा आशापूर्ण हैं। उपर्युक्त विषय के कारण ही वैज्ञानिक चिन्तन में महती व्रफान्ति का सूत्रपात हुआ। बुद्ध के पश्चाद्वर्ती चिन्तकों ने इस विषय पर बहुत ध्यान दिया। यह सुत्त बौद्ध-धम्म के वैज्ञानिक चिन्तन का यह अनुपम आधर है।[तथ्य वांछित]

इसमें बताया गया है कि किसी भी बात को, चाहे वह परम्परा से ही क्यों न चली आ रही हों, मात्र परम्परा के नाम पर उसे बिना किसी विवेक के नहीं मान लेना चाहिए। शताब्दियों से परम्परा के नाम पर बहुत सारे व्यर्थ के आडम्बर तथा बुराइयाँ चली आयी हैं, इन बुराइयों को बिना किसी सवाल के मान लेना कदापि बुद्धिमत्ता नहीं। इसी प्रकार यदि बहुत प्राचीन काल से भी किसी विषय को कहा जाता रहा हो या परम्परागत रूप में वह बात चली आ रही हो, तब भी उसे बिना संशोधन जैसा का तैसा स्वीकार कर लेना उचित नहीं। उन विषयों के अच्छे-बुरे के विषय में स्वतन्त्रतया विचार किया ही जाना चाहिए। एडोल्फ हिटलर के विषय में प्रसिद्ध है कि वह अपने अनुचरों से कहा करता था कि ‘किसी भी झूठ को बार बार दौराने से वह भी सच लगने लगता है।’ बहुधा परम्पराएँ भी यही भूमिका अदा करती है। कितनी भी बुरी परम्परा हो या कितना भी नीच चलन हो, किन्तु उसे मानते-मानते वह ही सही लगने लगती है। पिफर निरन्तर दोहराये जाने पर वही उचित लगने लगता है। अतः बहुत काल से मानी जाने वाली तथा सुनी-सुनाई बातों पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए। [तथ्य वांछित]

कोई बात यदि किसी पवित्र धर्म-ग्रन्थ में लिखी हो तब भी उसे बिना विवेक के नहीं मान लेना चाहिए। चाहे किसी भी धर्म-ग्रन्थ या पुस्तक में कोई विषय क्यों न लिखा गया हो, उस पर भी विवेकपूर्ण चिन्तन आवश्यक होता है। बहुत सारे ऐसे अनुपयोगी, अमानवीय तथा घृणित विषय भी बहुत सारे ध्र्म-ग्रन्थों, पवित्र मानी जाने वाली किताबों तथा पुराणों में भरे पड़े हैं। इनमें विवर्णित सभी विषयों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिचर्चा तथा विमर्श होना चाहिए तथा विज्ञानवादी बहस भी जरुरी है। [तथ्य वांछित]

किसी धर्म-गुरु या आकर्षक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति के वचन होने मात्र से भी उन पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। सदियों से कई पाखण्डी धर्मगुरुओं ने बुरी परम्पराओं तथा अपना लाभ होने वाले पन्थ चलाये हैं। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए वे अनेक प्रकार के हथकण्डे चलाते हैं। [तथ्य वांछित]

पुनः किसी वाद के निराकरण के लिए किसी तथ्य या प्रमाण का ग्रहण समुचित हो सकता है, किन्तु अन्य विषय में वह प्रतिवूफल तथा अनुपयुक्त भी हो सकता है। यह उक्ति प्रसिद्ध ही है कि ‘सिक्के के दो पहलु होते हैं’, यदि एक पक्ष उजला या लाभदायक है तो दूसरा पक्ष कलुषित तथा हानिकारक भी हो सकता है। इसलिए किसी वाद के निराकरण के लिए प्रयुक्त तथ्य का सभी परिस्थितियों में सर्वदा ग्रहण समुचित नहीं। पिफर देशकाल, अवस्था तथा परिस्थितियों के कारण तथ्यों तथा सत्य में भी परिवर्तन हो जाता है। दृष्टव्य है कि ‘सत्य और वास्तविकता में भी अनेक बार भेद हो जाता है।’ बार बार दोहराने या प्रचलन के कारण हम किसी बात को उसी रूप में सत्य मान लेते है, किन्तु वास्तविकता में वह वैसा होता ही नहीं है। अतः वास्तविकता को दृष्टिगत रखकर ही कोई निर्णय लेना समुचित है। [तथ्य वांछित]

आकार या गुरुत्व के कारण ही किसी तथ्य को नहीं स्वीकार कर लेना चाहिए। अनेक बार देखा जाता है कि केवल बड़ा होना ही पर्याप्त नहीं, उसमें गुण भी होने चाहिए। अतः मात्र आकार की गुरुता के कारण किसी भी चीज को मान लेना कोरी बुद्धि है।

इस प्रकार कालामों को दिए गए इस उपदेश में शिक्षा दी गई है कि परम्परा से प्रचलित अथवा प्राचीन काल से निरन्तर कथित अथवा धर्मग्रन्थ में लिखित अथवा वाद के निराकरण के लिए प्रयुक्त तथ्य अथवा आकार या गुरुत्व के कारण ही किसी तथ्य या विषय को नहीं स्वीकार कर लेना चाहिए। इस प्रकार भगवान बुद्ध ने इन विषयों को परिस्थितियों के अनुरूप अमान्य घोषित किया[तथ्य वांछित] -

  • 1. केवल परम्परा से प्रचलित होने के कारण किसी विषय को सत्य या समुचित नहीं मान लेना चाहिए,
  • 2. इस विषय को अतीव प्राचीन काल से कहा जा रहा है इसलिए भी उसे सत्य नहीं मान लेना चाहिए,
  • 3. यह विषय धर्मग्रन्थों में इस प्रकार कहा गया है इसलिए भी उसे सत्य नहीं मानना चाहिए,
  • 4. किसी भी वाद के निराकरण के लिए इस तथ्य का ग्रहण समुचित है, यह नहीं मान लेना चाहिए (काल, अवस्था और परिस्थिति के अनुसार तथ्य परिवर्तित भी हो सकते हैं।)
  • 5. बड़ा आकार या गुरुत्व होने से भी कोई बात स्वीकार्य नहीं हो जाती है।

तब कौन सी कसौटियाँ हैं कि जिन्हें स्वीकार किया जा सकता है? यदि ये धर्म (कुशल) हैं, अनिन्दनीय हैं तथा इसको ग्रहण करने पर इसका फल सुखद और हितप्रद ही होगा। निश्चय ही मानवीय चिन्तन, वैज्ञानिक तथा विवेकवाद के लिए इस सुत्त से बेहतर कसौटी और हो ही क्या सकती है?[तथ्य वांछित]

तब भगवान बुद्ध ने कालामों को मान्य बातों के विषय में बताया। उन्होंने उन सभी विषयों को अत्यन्त व्रफमबद्ध तथा व्यवस्थित ढंग से कालामों के समक्ष उपस्थापित किया जो मान्य तथा सत्य कहे जा सकते हैं -

भगवान् बुद्ध कहते हैं कि किसी भी विषय को तभी मान्य किया जा सकता है, जब वह विषय ध्र्म-सम्मत है अर्थात् धर्म के अनुकूल तथा कुशल (भलाई तथा कल्याण करने वाले) हैं। निश्चय ही, यदि समाज में किसी कार्य या विषय के कारण सभी का कल्याण होता है तथा दुःख से पीडि़त जनता को राहत मिलती है अथवा लोगों के जीवन में उÂति तथा विकास का मार्ग खुलता है व सबका हित होता है, तो ये विषय वुफशल ही कहे जायेंगे। अतः सभी कल्याणकारी तथा मानवीय शुभ कर्म वुफशल ध्र्म कहे जाते हैं। इन वुफशल कर्मों को मान्यता देना चाहिए तथा इन वुफशल कर्मों को करते हुए मानवता की सेवा करनी चाहिए।

वे सभी विषय जो अनिन्दनीय (सभी दोषों से परे) तथा अघृणित (पूज्य) है, वे समाज में मान्य करार दिये जाने चाहिए। यदि किसी विषय में कोई दोष नहीं है तथा वह विषय पूजार्ह है, तब ऐसी परिस्थिति में उसे मान्यता देना ही चाहिए।[तथ्य वांछित]

उन सभी विषयों और मान्यताओं को मान्य करार देना चाहिए जिनके ग्रहण से सुखकारी और हितप्रद परिणाम प्राप्त होंगे। यदि किसी कार्य को करने से उसके परिणाम सुखकारी है और समस्त मानवता का जिससे हित साध्ति होता हो, तो ऐसे कर्मों को करना निश्चय ही समाज के लिए लाभदायक होता है। ऐसे कल्याणकारी विषयों का करना लाभकारी होता है।

इस प्रकार भगवान बुद्ध ने कालामों के समक्ष अधेलिखित विषयों कसौटियों को मान्य अथवा सत्य घोषित किया। वे इस प्रकार हैं -

1. यदि ये धर्म (कुशल) हैं,
2. यदि वे अनिन्दनीय हैं,
3. यदि इसको ग्रहण करने पर इसका फल सुखद और हितप्रद ही होगा।

इस प्रकार भगवान बुद्ध के ये वैज्ञानिक वचन आधुनिक काल में उतने ही प्रासंगिक तथा ग्रहणीय है। आधुनिक विज्ञान के लिए भगवान बुद्ध के ये विज्ञान-सम्मत कसौटियाँ मार्ग-दर्शक सिद्ध हो सकती है।[तथ्य वांछित]

केसमुत्ति सुत्त तथा आधुनिक भारत में पालि साहित्य की स्थापना[संपादित करें]

आधुनिक भारत में पालि तथा बौद्ध साहित्य की पुनः प्रतिष्ठा करने का श्रेय मुख्यतः भिक्षुत्रय अर्थात् राहुल सांकृत्यायन, जगदीश काश्यप तथा भदन्त आनन्द कौशल्यायन को जाता है। ऐसे समय में जबकि भारत से बौद्ध धर्म तथा पालि साहित्य का लोप हो चुका था, इन्होंने ही ग्रन्थों का सम्पादन तथा अनुवाद करके प्रकाशन कराया तथा प्रचार किया। इनके जीवन-चरितों को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर ज्ञात होता है कि ये तीनों ही धर्मधुरन्धर अंगुत्तर निकाय में विद्यमान केसमुत्ति-सुत्त से अत्यधिक प्रभावित रहें। कालामों को सम्बोधित करते हुए उन्हें दिया गया यह केसमुत्ति-सुत्त समस्त वाङ्मय प्रपंच में विवेकवाद तथा स्वतन्त्र चिन्तन के लिए एक प्रकार का घोषणा-पत्र ही है। कालामों को दिया गया यह सुत्त वास्तव में मानवता के लिए एक दाय है।

इस केसमुत्ति सुत्त ने इन विद्वान भिक्षुओं को अत्यन्त प्रभावित किया। भगवान बुद्ध और बौद्ध-दर्शन के प्रति आकर्षण होने की बात को राहुल सांवृफत्यायन अपनी आत्मकथा 3 में इस तरह से प्रकट करते हैं -[तथ्य वांछित]

ढाई हजार वर्ष पहले के समाज और समय में बुद्ध के युक्तिपूर्ण सरल और चुभने वाले वाक्यों का मैं तन्मयता के साथ आस्वाद लेने लगा। त्रिपिटक में आये मोजिज़ें और चमत्कार अपनी असम्भवता के लिए मेरी घृणा के पात्र नहीं, बल्कि मनोरंजन की सामग्री थे। मैं समझता था, पच्चीस सौ वर्षों का प्रभाव उन ग्रन्थों पर न हो यह हो नहीं सकता। असम्भव बातों में कितनी बुद्ध ने वस्तुतः कहीं, इसका निर्णय आज किया नहीं जा सकता, पिफर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँवेफ रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये बुद्ध के उपदेश- ‘किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करवेफ उस पर आरूढ़ हो’ को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहाँ है एक आदमी जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्त्व को समझता है। जब मैनें मज्झिम-निकाय में पढ़ा- ‘बेड़े की भाँति मैनें तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं, तो मालूम हुआ, जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता फिर रहा था, वह मिल गई।

राहुलजी भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट मानव कल्याण सम्बद्ध बातों से तथा तर्कसंगत विषयों के प्रतिपादन के कारण उनसे अत्यन्त प्रभावित रहें। वस्तुतः भगवान बुद्ध के द्वारा कहीं गई शिक्षाओं में एक भी मानव कल्याण तथा तर्क के परे नहीं है। वेफसमुत्ति सुत्त में बुद्ध भगवान द्वारा कालामों को दी गई शिक्षाप्रद-पंक्तियाँ राहुलजी के हृदय में उतर सी गई थी।

भदन्त आनन्द कौशल्यायन भी अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना में इसी प्रकार की बात को स्वीकार करके इस सुत्त के प्रति अपनी वृफतज्ञता निवेदित करते हैं। वे लिखते हैं कि केसमुत्ति-सुत्त को पढ़कर ही वे बौद्ध-धम्म तथा साहित्य की ओर आकर्षित हुए। अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना में वे इस प्रकार लिखते हैं -

जिस कालाम-सूक्त की बौद्ध-वाङ्मय में ही नहीं, विश्वभर के वाङ्मय में इतनी धाक है, जो एक प्रकार से मानव-समाज के स्वतन्त्र-चिन्तन तथा स्वतन्त्र-आचरण का घोषणा-पत्र माना जाता है, वह कालाम-सूक्त इसी अंगुत्तर-निकाय के तिक-निपात के अन्तर्गत है। भगवान ने उस सूक्त में कालामों को आश्वस्त किया है-
‘हे कालामों! आओ, तुम किसी बात को केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि वह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह बात परम्परागत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह बात इसी प्रकार कहीं गई है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रन्थ (पिटक) के अनुकूल है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह तर्क-सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह न्याय (शास्त्र) सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि आकार-प्रकार सुन्दर है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे मत के अनुवूफल है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कालामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अवुफशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निन्दित हैं, इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुःख होता है- तो हे कालामों! तुम उन बातों को छोड़ दो।’[तथ्य वांछित]

वैश्विक इतिहास में भगवान बुद्ध ने यह नई बात कहीं है। किसी भी धर्मगुरु ने इतना बड़ा साहस नहीं किया। सभी अपनी अपनी भगवत्ता को स्थापित करने या उसे बचाने के प्रयास में ही लगे दिख पड़ते हैं। किन्तु भगवान बुद्ध की बात ही निराली है। वे स्वयं के द्वारा कही गई बात को भी आँख बन्द करके न मानने की शिक्षा को इस प्रकार उपस्थापित करते हैं-

तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।। 5

भावार्थ - ‘हे पण्डित! जिस तरह उच्च ताप से पककर कोई सुवर्ण (सोना) परखा जाता है, उसी तरह मेरे भी वचनों को (वैज्ञानिक कसौटी पर कसते हुए) परखकर ग्रहण करना चाहिए, न कि मेरे प्रति गौरव (श्रद्धा) के कारण।’

उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से भगवान बुद्ध अपने प्रति श्रद्धाभाव को परे रखकर विज्ञान की कसौटी पर कसते हुए विषय को ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं।

इस प्रकार भारत में पालि व बौद्ध धर्म को लौटाने में इस अंगुत्तर निकाय का ही योगदान माना जाना चाहिए।

टिप्पणियाँ[संपादित करें]

1. अंगुत्तर निकाय, भदन्त आनन्द कोसल्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013

2. सुत्त पिटके अंगुत्तर निकाय महावग्ग-केसमुत्तिसुत्त 3.7.5

3. मेरी जीवन-यात्रा-2, राहुल सांस्कृत्यायन, (पृ. 19), राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, 2002

4. अंगुत्तर निकाय की प्रस्तावना

5. ज्ञानसारसमुच्चयः 39 (आचार्य बलदेव उपाध्याय विरचित ‘बौद्ध दर्शन मीमांसा’ से उद्धृतद्) धम्मसंदेश

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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