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किताब-उल-हिन्द

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किताब-उल-हिन्द  
लेखक अल-बेरुनी
देश उज्बेकिस्तान
भाषा अरबी

किताब-उल-हिन्द अरबी में लिखी गई अल-बेरुनी द्वारा रचित भारत के बारे में एक विस्तृत ग्रन्थ है जिसमें धर्म और दर्शन , त्योहारों , खगोल-विज्ञान , रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं , सामाजिक जीवन , भार-तौल तथा मापन-विधियों , मूर्तिकला , कानून , मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों का विवेचन किया गया है।

इसका वास्तविक नाम "तहरीक मा लिल हिन्द मिन माकूलात माकूलात फी अलीअकबाल आम माजुला" (अरबी : تحقيق ما للهند من مقولة معقولة في العقل أو مرذولة, रोमन में "Tahaqeeq Ma Lil Hind Min Makulat Makulat Fi Aliaqbal Am Marzula") है, जिसका अर्थ है "हिन्दुओं के सब प्रकार के, क्या उपादेय और क्या हेय, विचारों का एक सत्य वर्णन"।

इसकी भाषा सरल और स्पष्ट है। अल-बेरुनी ने अपने ग्रन्थ किताब-उल-हिन्द के प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया है , जिसमें आरम्भ में एक प्रश्न होता था , फिर संस्कृतवादी परम्पराओं पर आधारित वर्णन था। [1][2]

यह पुस्तक अस्सी (८०) अध्यायों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में स्थूलरूप से हिन्दुओं का वर्णन है। यह अध्याय इस पुस्तक की प्रस्तावना के रूप में है।

दूसरा परिच्छेद -- हिन्दुओं के ईश्वर में विश्वास पर ।

तीसरा परिच्छेद -- बुद्धि द्वारा तथा इन्द्रियों द्वारा ज्ञातव्य दोनों प्रकार के पदार्थों के विषय में हिन्दुओं के विश्वास पर ।

चौथा परिच्छेद -- कर्म का कारण क्या है और आत्मा का प्रकृति के साथ कैसे संयोग होता है ।

पाँचवाँ परिच्छेद -- जीवात्माओं की अवस्था और पुनर्जन्म के द्वारा उनका देहान्तर्गमन ।

छठा परिच्छेद -- भिन्न-भिन्न लोक, और स्वर्ग तथा नरक में फल भोगने के स्थान ।

सातवाँ परिच्छेद -- संसार से मुक्त होने की व्यवस्था और मोक्ष-मार्ग ।

आठवाँ परिच्छेद -- सृष्टि की भिन्न भिन्न जातियों तथा उनके नामों का वर्णन ।

नवाँ परिच्छेद -- जातियों, जो 'रङ्ग' (वर्ण) कहलाती हैं और उनसे नीचे की श्रेणियों का वर्णन ।

दसवाँ परिच्छेद -- उनके धार्मिक तथा सामाजिक नियमों का मूल; भविष्यद्वक्ता; और साधारण धार्मिक नियमों का लोप हो सकता है या नहीं - इस विषय पर ।

ग्यारहवाँ परिच्छेद -- मूर्तिपूजन का आरम्भ और प्रत्येक प्रतिमा का वर्णन ।

बारहवाँ परिच्छेद -- वेद, पुराण और उनका अन्य प्रकार का धार्मिक साहित्य ।

तेरहवाँ परिच्छेद -- उनका व्याकरण तथा छन्द-सम्बन्धी साहित्य ।

चौदहवाँ परिच्छेद -- फलित ज्योतिष तथा नक्षत्र-विद्या आदि दूसरी विद्याओं पर हिन्दुओं का साहित्य। · पन्द्रहवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं की परिमाण-विद्या पर टीका, जिससे तात्पर्य्य यह है कि इस पुस्तक में वर्णित सब प्रकार के मानों को समझने में सुविधा हो जाय।

सोलहवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं की लिपियों पर, उनके गणित तथा तत्सम्बन्धी विषयों पर, और उनकी कई एक विचित्र रीति-रिवाजों पर टीका-टिप्पणी।

सत्रहवाँ परिच्छेद -- लोगों की अविद्या से उत्पन्न होनेवाले हिन्दू-शास्त्रों पर।

अठारहवाँ परिच्छेद -- उनके देश, उनके नदी नालों, और उनके महासागर पर और उनके भिन्न-भिन्न प्रान्तों तथा उनके देश की सीमाओं के बीच की दूरियों पर विविध टिप्पणियाँ।

उन्नीसवाँ परिच्छेद -- ग्रहों, राशिचक्र की राशियों, चान्द्र स्थानों, और उससे सम्बन्धित वस्तुओं के नामों पर।

बीसवाँ परिच्छेद -- ब्रह्माण्ड पर ।

इक्कीसवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं के धार्मिक विचारानुसार आकाश और पृथ्वी का वर्णन, जिसका आधार उनका पौराणिक साहित्य है।

बाईसवाँ परिच्छेद -- ध्रुव प्रदेश के विषय में ऐतिह्य।

तेईसवाँ परिच्छेद -- पुराणों और अन्य ग्रंथों के बनानेवालों के विश्वासानुसार मेरु पर्वत का वर्णन।

चौवीसवाँ परिच्छेद -- सात द्वीपों में से प्रत्येक के विषय में पौराणिक ऐतिह्य।

पच्चीसवाँ परिच्छेद -- भारत की नदियां, उनके उद्गम स्थानां और मार्गों पर।

छब्बीसवाँ परिच्छेद -- हिन्दू ज्योतिषियों के मतानुसार आकाश और पृथ्वी के आकार पर।

सत्ताईसवाँ परिच्छेद -- पृथिवी की प्रथम दो गतियों ( एक तो प्राचीन ज्योतिषियों के मतानुसार पूर्व से पश्चिम को, और दूसरी विषुवों का अयन चलन ) पर हिन्दू ज्योतिषियों तथा पुराणकारों दोनों के मतानुसार ।

अट्ठाइसवाँ परिच्छेद -- दश दिशाओं के लक्षणों पर।

उन्तीसवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं के मतानुसार पृथिवी कहाँ तक बसी हुई है।

तीसवाँ परिच्छेद -- लङ्का अर्थात् पृथिवी के गुम्बज ( शिखर तोरण ) पर।

इकतीसवाँ परिच्छेद -- भिन्न-भिन्न स्थानों के उस प्रभेद पर जिसे हम रेखांश-भेद कहते हैं ।

बत्तीसवाँ परिच्छेद -- सामान्यतः काल और अवधि ( मुद्दत ) - सम्बन्धी कल्पना पर, और संसार की उत्पत्ति तथा विनाश पर ।

तेतीसवाँ परिच्छेद -- भिन्न भिन्न प्रकार के दिन या अहोरात्रि के मान की कल्पनाओं पर, और विशेषतः दिन तथा रात के प्रकारों पर।

चौतीस परिच्छेद -- समय के छोटे-छोटे भागों में अहारात्रि के विभाग पर।

पैंतीसवाँ परिच्छेद -- भिन्न-भिन्न प्रकार के मासों और वर्षो पर।

छत्तीसवाँ परिच्छेद -- काल के चार परिमाणों पर जिन्हें 'मान' कहते हैं।

सैंतीसवाँ परिच्छेद -- मास और वर्ष के विभागों पर।

अड़तीसवाँ परिच्छेद -- दिनों के बने हुए काल के विविध परिमाणों पर, इसमें ब्रह्मा की आयु भी है।

उनतालीसवाँ परिच्छेद -- काल के उन परिमाणों पर जो ब्रह्मा की आयु से बड़े हैं।

चालीसवाँ परिच्छेद -- काल की दो अवधियों के मध्यवर्ती अन्तर-सन्धि पर जो कि उन दोनों में जोड़नेवाली शृङ्खला है।

इकतालीसवाँ परिच्छेद -- "कल्प" तथा "चतुर्युगी" की परिभाषाओं के लक्षण, और एक का दूसरे के द्वारा स्पष्टीकरण।

बयालीसवाँ परिच्छेद -- चतुर्युगी की युगों में बाँट और युगों के विषय में भिन्न भिन्न सम्मतियाँ।

तैंतालीसवाँ परिच्छेद -- चार युगों का और चौथे युग की समाप्ति पर जिन बातों के होने की आशा है उन सबका वर्णन।

चवालीसवाँ परिच्छेद -- मन्वन्तरों पर।

पैंतालीसवाँ परिच्छेद -- सप्तर्षि नामक तारामण्डल पर।

छयालीसवाँ परिच्छेद -- नारायण, भिन्न-भिन्न समयों में उसका प्रादुर्भाव, और उसके नामों पर।

सैंतालीसवाँ परिच्छेद -- वासुदेव और महाभारत के युद्ध पर ।

अड़तालीसवाँ परिच्छेद -- अक्षौहिणी की व्याख्या ।

उनचासवाँ परिच्छेद -- संवत का संक्षिप्त वर्णन ।

पचासवाँ परिच्छेद -- एक 'कल्प' में और एक 'चतुर्युगी' में तारागण कितने चक्कर लगाते हैं ।

इक्यावनवाँ परिच्छेद -- 'अधिमास', 'ऊजरात्रि', और 'अहर्गण' का वर्णन - जो कि दिनों की भिन्न भिन्न संख्याओं को प्रकट करते हैं ।

वावनवाँ परिच्छेद -- 'अहर्गण ' की स्थूल रूप से गिनती, अर्थात् वर्षों और मासों के दिन, और दिनों के वर्ष और मास बनाना ।

तिरपनयाँ परिच्छेद -- अहर्गण, अथवा समय की विशेष विशेष तिथियों या क्षणों के लिए पञ्चांगों में नियत किये हुए विशेष नियमों के अनुसार वर्षों के मास बनाने पर ।

चौपनवाँ परिच्छेद -- नक्षत्रों के मध्यम स्थानों की गिनती पर ।

पचपनवाँ परिच्छेद -- नक्षत्रों के क्रम, उनकी दूरियों, और परिमाण पर।

छप्पनवाँ परिच्छेद -- चन्द्रमा के स्थानों पर ।

सत्तावनवाँ परिच्छेद -- नात्रों के सौर रश्मियों के नीचे से प्रकट होने पर, और उन रीतियों और अनुष्ठानों पर जो कि हिन्दू लोग इन अवसरों पर करते हैं ।

अट्ठानवाँ परिच्छेद -- सागर में ज्वार भाटा कैसे आता है।

उनसठवाँ परिच्छेद -- सूर्य और चन्द्र के ग्रहणों पर ।

साठवाँ परिच्छेद -- पर्वत पर ।

इकसठवाँ परिच्छेद -- धर्म्म तथा नक्षत्र विद्या ( नजूम) की दृष्टि से काल के भिन्न मित्र मानों के अधिष्ठाताओं पर, और तत्सम्बन्धी विषयों पर ।

बासठवाँ परिच्छेद -- साठ वर्षों के संवत्सर पर जिसे 'षष्ट्यब्द' भी कहते हैं ।

तिरसठवाँ परिच्छेद -- विशेषतः ब्राह्मणों से सम्बन्ध रखनेवाली बातों और जीवन में उनके कर्त्तव्य-कर्मों पर ।

चौंसठवाँ परिच्छेद -- उन रीति रिवाजों और कम्मों पर जो ब्राह्मणों को छोड़ कर अन्य वर्ण अपने जीवन काल में करते हैं।

पैंसठवाँ परिच्छेद -- यज्ञों पर ।

छाछठवाँ परिच्छेद -- पवित्र स्थानों के दर्शनों और तीर्थयात्रा पर ।

सरसठवाँ परिच्छेद -- दान पर और इस बात पर कि मनुष्य को अपनी कमाई कैसे व्यय करनी चाहिए ।

अरसठवाँ परिच्छेद -- भक्ष्य-अभक्ष्य और पेय-अपेय पदार्थों पर ।

उनहत्तरवाँ परिच्छेद -- विवाह, स्त्रियों के मासिक धर्म, भ्रूण, और प्रसवावस्था पर ।

सत्तरवाँ परिच्छेद -- अभियोगों पर।

इकहत्तरवाँ परिच्छेद -- दण्ड और प्रायश्चित्त पर ।

बहत्तरवाँ परिच्छेद -- दाय पर, और इस बात पर कि मृत व्यक्ति के उस पर क्या अधिकार हैं।

तिहत्तरवाँ परिच्छेद -- निर्जीव तथा सजीव व्यक्तियों के शरीरों के अधिकारों के विषय में ( कर्थात् अन्त्येष्टि संस्कार और आत्महत्या के विषय में )

चौहत्तरवाँ परिच्छेद -- उपवास और उनके नाना प्रकारों पर ।

पचहत्तरवाँ परिच्छेद -- उपवास के लिए दिन निश्चय करना ।

छिहत्तरवाँ परिच्छेद -- त्योहारों और आनन्द के दिनों पर ।

सतत्तरवाँ परिच्छेद -- विशेष प्रकार से पवित्र दिनों पर, शुभाशुभ समयों पर, और ऐसे समयों पर जो स्वर्ग में आनन्द लाभ करने के लिए विशेष रूप से अनुकूल हैं ।

अठहत्तरवाँ परिच्छेद -- करणों पर ।

उनासीवाँ परिच्छेद -- युगों पर ।

असीवाँ परिच्छेद -- हिन्दुओं की नक्षत्र-विद्या के प्रास्ताविक निथमें पर और ज्योतिष- सम्बन्धी गणनाओं के विषय में उनकी रीतियों का संक्षिप्त वर्णन |

ग्रंथकार की शैली

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इस ग्रन्थ के रचनाकार अलबेरुनी की यह शैली है कि वह अपनी ओर से कुछ नहीं कहता बल्कि हिन्दुओं को ही कहने देता है और उनके श्रेष्ठ लेखकों की पुस्तकों से विस्तीर्ण श्रवतरण उपस्थित करता है। वह हिन्दू-सभ्यता का वह चित्र उपस्थित करता है जो कि स्वयम् हिन्दुओं ने चित्रित किया है। कई एक परिच्छेद, (सारे नहीं) एक व्यापक प्रकार की छोटी सी विशेष भूमिका के साथ प्रारम्भ होते हैं। बहुत से परिच्छेदों का शरीर तीन भागों का बना है। पहला भाग तो विषय का संक्षिप्त सार है । दूसरे भाग में ज्योतिप, फलित ज्योतिष, तत्त्वज्ञान और धर्म पर जो परिच्छेद हैं उनमें संस्कृत पुस्तकों के अवतरण हैं; और हिन्दुओं के सिद्धान्त, साहित्य, ऐतिहासिक कालगणना, भूगोल, नियम, रीति-रिवाज और आचार-व्यवहार पर जो परिच्छेद हैं उनमें और और जानकारी की बातें या वे बातें हैं जो उसने स्वयं देखी थीं । तीसरे भाग में उसने वही किया है जो पहले मेगास्थनीज़ कर चुका था। वह कई बार अत्यन्त वैदेशिक विषयों को उनकी प्राचीन यूनानी सिद्धातों से तुलना करके या अन्य उपमाओं द्वारा अपने पाठकों को भलीभाँति समझा देने का यत्न करता है। इस प्रकार के क्रम का उदाहरण पाँचवें परिच्छेद में मिलता है । प्रत्येक परिच्छेद के विधान में, और परिच्छेदों के अनुक्रम में एक स्पष्ट और भलीभाँति निरूपित कल्पना देख पड़ती है । किसी प्रकार का संग्रंथन या कोई फालतू बात बिलकुल नहीं । शब्द बिलकुल विषयोचित और यथासम्भव सुबद्ध हैं । सारी रचना में प्राञ्जलता और श्रेष्ठ क्रम को देख कर वह हमें निपुण गणितज्ञ जान पड़ता है और उसके लिए इस तरह क्षमा माँगने का शायद ही मुश्किल से कोई अवसर मालूम होता है जिस तरह कि वह पहले परिच्छेद के अन्त में माँगता है कि "मैं सब कहीं रेखागणित शास्त्र के नियमों का पालन नहीं कर सका, और कई जगह अज्ञात अंश को लाने के लिए बाधित हुआ हूँ, क्योंकि उसकी व्याख्या पुस्तक के पिछले भाग में ही हो सकती थी ।

किताब-उल-हिन्द में वर्णित विचार

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संस्कृत भाषा और उसके साहित्य को समझने में अपनी कठिनाई पर

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अपने इस ग्रन्थ के प्रथम पर्च्छेद के आरम्भ में ही अलबेरुनी लिखता है-

अपने विवरण को आरम्भ करने से पूर्व हम यह आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक भारतीय विषय को उसके वास्तविक रूप में जानना जिस कारण से हमारे लिए इतना कठिन हो रहा है उसे यथार्थ रीति से स्पष्ट कर दें। इन बाधाओं का ज्ञान हो जाने से प्रथम तो हमारा काम सुगमता से चलने लगेगा। यदि ऐसा न भी हुआ तो भी इसमे जो त्रुटियाँ रह जायँगी उनके लिए क्षमा माँगने के लिए हमें पर्याप्त कारण मिल जायगा । अतः पाठक को अपने मन में यह भली भाँति समझ लेना चाहिए कि हिन्दू लोगों की प्रत्येक बात हमसे भिन्न है। निस्सन्देह कई बातें जो आज बड़ी गहन और अस्पष्ट प्रतीत होती हैं पारस्परिक मेल मिलाप के बढ़ जाने सं सर्वथा स्पष्ट हो जायँगी । हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नता की एक भारी झील देख पड़ती है उसके कई कारण हैं।
पहला कारण यह है कि जो जो बातें दूसरी जातियों की हमसे मिलती हैं उन सबमें हिन्दुओं से हमारा भेद है । यद्यपि अन्य जातियों के साथ भी हमारा भाषा-भेद है फिर भी हम पहले यहाँ भाषा को ही लेते हैं। इस बाधा को दूर करना (संस्कृत सीखना ) कोई सुगम बात नहीं, क्योंकि उनकी भाषा का भण्डार, क्या शब्दों की दृष्टि से और क्या विभक्तियों की दृष्टि से, अरवी की भाँति बहुत विस्तृत है। एक ही पदार्थ के अनेक रूढ़ि और यौगिक नाम हैं, और एक ही शब्द अनेक विषयों के लिए प्रयुक्त होता है । इन विषयों को समझने के लिए इनका नाना विशेषणों (उपसर्ग?) द्वारा एक दूसरे से भेद करना आवश्यक होता है। कोई भी व्यक्ति यह नहीं जान सकता कि अमुक शब्द का क्या अर्थ है--- जब तक कि उसे उसके प्रसंग और वाक्य में पूर्वापर सम्बन्ध का ज्ञान न हो। हिन्दू, दूसरे लोगों की भाँति, अपनी भाषा के इस विस्तृत क्षेत्र पर अभिमान करते हैं पर वास्तव में यह एक दोष है। फिर यह भाषा दो शाखाओं में विभक्त है। एक तो उपेक्षित बोली है जिसे केवल साधारण लोग बोलते हैं, और दूसरी श्रेष्ठ भाषा जो शिक्षित और उच्च श्रेणी के लोगों में प्रचलित है । यह दूसरी भाषा बड़ी उन्नत है । इसमें शब्दों की विभक्ति, व्युत्पत्ति और अलङ्कार तथा व्याकरण का लालित्य आदि सभी बातें पाई जाती हैं । इसके अतिरिक्त कई वर्ण ( व्यञ्जन ) जो इस भाषा में प्रयुक्त होते हैं ऐसे हैं जो न तो अरबी और फ़ारसी के वर्णों के सदृश हैं, और न किसी प्रकार उनसे मिलते ही हैं । हमारी जिह्वा और हमारा कण्ठ बड़ी कठिनता से भी उनका शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकते । हमारे कान भी उसी प्रकार के अन्य वर्णों से उनका भेद नहीं कर सकते, और न हम अपनी वर्णमाला में उन्हें लिख सकते हैं । अतः भारतीय शब्दों को अपनी लिपि में प्रकट करना बड़ा कठिन है क्योंकि उच्चारण को ठीक प्रकटाने के लिए हमें अपने वर्ण-विन्यास-संबन्धी चिह्नों और लग मात्रा को बदलना पड़ेगा, और विभक्तियों के अन्तिम भागों को या तो साधारण अरबी नियमों के अनुसार या इसी के निमित्त बनाये हुए विशेष नियमों के अनुसार उच्चारण करना पड़ेगा ।
इसके साथ ही दूसरी बात यह है कि भारतीय लेखक बड़े असावधान हैं । वे पुस्तक को मूल हस्तलेख के साथ मिला कर शुद्ध करने का कष्ट सहन नहीं करते। इसका यह परिणाम हुआ है कि ग्रन्थकार के मानसिक विकास के उत्कृष्ट फल उनकी असावधानता के कारण नष्ट हो रहे हैं। उसकी पुस्तक एक दो प्रतियों में ही दोषों से ऐसी भर जाती है कि पिछली प्रति एक बिलकुल नवीन पुस्तक प्रतीत होने लगती है, और उसे न कोई विद्वान् और न उस विषय से परिचित कोई और ही व्यक्ति, चाहे वह हिन्दू हो चाहे मुसलमान, समझ सकता है। पाठकों को इस बात का प्रमाण इसी से मिल जायगा कि हमने हिन्दुओं के किसी शब्द का शुद्ध उच्चारण निर्धारित करने के लिए उसे अनेक वार बड़ी सावधानता से लिखा, परन्तु जब उनके सन्मुख फिर उसे पढ़ा तो वे उसे बड़ी मुश्किल से पहचान सके ।
अन्य विदेशीय भाषाओं की भाँति संस्कृत में भी दो तीन व्यश्वन इकट्ठे आ जाते हैं । ये वह व्यञ्जन हैं जिन्हें फ़ारसी व्याकरण में गुप्त स्वरवाले कहा जाता है । बहुत से संकृत शब्द और नाम ऐसे ही स्वर-रहित व्यञ्जनों से आरम्भ होते हैं, इसलिए उनके उच्चारण करने में हमें बड़ी कठिनाई होती है ।
हिन्दुओं की सारी वैज्ञानिक पुस्तकें नाना प्रकार के ललित छन्दों में लिखी हुई हैं। इसका कारण यह है कि वे समझते हैं कि बढ़ा घटा देने से पुस्तकें शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाती हैं। उनका विचार है कि छन्दों में होने से उनकी शुद्धता में कोई अन्तर न आयेगा, और वे सुगमता से कण्ठस्थ हो सकेंगी क्योंकि उनकी सम्मति में केवल वही बात नियमानुसार है जो कण्ठस्थ हो सकती है, न कि वह जो केवल लिपिबद्ध रहती है। अब देखिए, प्रत्येक व्यक्ति यह बात जानता है कि कविता में बहुत से अस्पष्ट और निरर्थक शब्द केवल छन्द की पूर्ति के लिए ही बलात् ठूँसे जाते हैं जिससे विशेषांश में वाक्प्रपञ्च की आवश्यकता पड़ती है । एक ही शब्द के एक समय कुछ और दूसरे समय कुछ अर्थ देने का एक यह भी कारण है। इससे यह विदित हो गया कि संस्कृत-साहित्य के अध्ययन को इतना कठिन बना देनेवालो बातों में से एक उसके ग्रंथों का छन्दों में होना भी है।

भारतीय धर्म पर

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दूसरे, उनका धर्म हमारे धर्म से बिलकुल भिन्न है । जिन बातों पर उनका विश्वास है, हम उनमें से किसी को भी नहीं मानते । और यही दशा उनकी है । सर्वतोभावेन धार्मिक विषयों पर वे आपस में बहुत कम झगड़ते हैं। अधिक से अधिक उनकी लड़ाई शब्दों की होती है। धार्मिक शास्त्रार्थ में वे कभी अपने प्राण, शरीर, अथवा सम्पत्ति को जोखों में नहीं डालते। इसके विपरीत, उनका सारा पक्षपात उन लोगों के विरुद्ध कार्य करता है जो कि उनमें से नहीं हैं बल्कि जो विदेशीय हैं। वे उन्हें म्लेच्छ अर्थात् अपवित्र कह कर पुकारते हैं, और उनके साथ खान-पान, उठना-बैठना, रोटी-बेटी इत्यादि किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं रखते, क्योंकि उनका विचार है कि ऐसा करने से हम भ्रष्ट हो जायेंगे। जो वस्तु किसी विदेशी के जल या अग्नि से छू जाय उसे भी वे भ्रष्ट समझते हैं। यह दोनों वस्तुएँ ऐसी हैं कि जिनके बिना कोई भी परिवार निर्वाह नहीं कर सकता । इसके अतिरिक्त उन्हें कभी इस बात की इच्छा ही नहीं होती कि जो वस्तु एक बार भ्रष्ट हो गई है उसे शुद्ध करके पुनः ग्रहण कर लें; जैसा कि सामान्य अवस्था में जब कोई पदार्थ अपवित्र हो जाता है तो वह फिर पवित्र अवस्था को प्राप्त करने की चेष्टा करता है । जो मनुष्य उनमें से नहीं, चाहे वह उनके धर्म की ओर कितना ही झुका हुआ क्यों न हो, और उसकी अभिलाषा कितनी ही प्रबल क्यों न हो, उन्हें उसे अपने में मिलाने की आज्ञा नहीं है। इस बात ने भी उनके साथ हमारा मेल-मिलाप असम्भव बना दिया है, और हमारे और उनके बीच सहस्रों कोसों का अन्तर डाल दिया है।
तीसरे, आचार-विचार और रीति-रिवाज में वे हमसे इतने भिन्न हैं कि अपने बच्चों को हमारे नाम, हमारे वेष और हमारी चाल-ढाल से डराते हैं। हमें राक्षसों की सन्तान और हमारे कर्मों को अपवित्र तथा नीच कहते हैं । न्याय को न छोड़ते हुए, यहाँ पर भी स्वीकार करना पड़ता है कि विदेशियों के प्रति इस प्रकार की घृणा हमारे और हिन्दुओं के ही बीच में नहीं प्रत्युत यह सब जातियों में एक दूसरे के प्रति पाई जाती है ।

बौद्ध धर्म की बहुत कम चर्चा

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अलबेरुनी ने अपने इस ग्रन्थ में बौद्ध धर्म की बहुत कम चर्चा की है, और जो चर्चा की भी है वह सब ईरान शहरी की पुस्तक के आधार पर की है। ईरान शहरी ने स्वयम् - ज़र्कान की पुस्तक से नकुल किया है । इससे ऐसा लगता है कि अलबरूनी के समय का भारत बौद्ध न था, पौराणिक था। ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम अर्धभाग में मध्य एशिया, खुरासान, अफ़ग़ानिस्तान, और उत्तर-पश्चिमी भारत से बौद्ध धर्म का नामो-निशान सर्वथा मिट चुका प्रतीत होता है; और यह एक अद्भुत बात है कि अलबरूनी ऐसे जिज्ञासु को बौद्ध-धर्म के विषय में कुछ भी मालूम न हो, और न इस विषय की जानकारी लाभ करने के लिए ही उसके पास कोई साधन हो ।

कहते हैं बुद्ध ने चूडामणि नामक एक पुस्तक रची थी । बौद्धों या शमनियों (श्रमणों) को अलबेरूनी ने मुहम्मिर अर्थात् लाल वस्त्रों- वाले (रक्तपट ) लिखा है । बौद्ध त्रिमूर्ति (बुद्ध, धर्म, संघ) आदि का वर्णन करते हुए वह बुद्ध को 'बुद्धोदन' लिखता है । बौद्ध ग्रंथकारों में चन्द्र नामक एक वैयाकरण, सुग्रीव नामक एक ज्योतिषी और उसके एक शिष्य का ही उल्लेख अलबेरूनी करता है । अलबेरूनी लिखता है कि उसके समय में राजा कनिष्क का बनाया हुआ एक भवन पेशावर में मौजूद था । इसका नाम कनिष्क-चैत्य था । यह वही स्तूप मालूम होता है जिसके विषय में कहते हैं कि स्वयम् भगवान् बुद्ध की भविष्यद्वाणी के अनुसार राजा ने इसका निर्माण कराया था।

भारतवर्ष में प्रचलित लिपियों की गिनती करते हुए वह सबसे अन्त में "पूर्वदेशान्तर्गत उदनपुर में प्रचलित भैक्षुकी" का नाम लेता है । यह स्वयम् बुद्ध की लिपि मानी जाती है।

वर्ण व्यवस्था

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वर्ण-व्यवस्था का वर्णन करते हुए अलबेरूरु ने लिखा है-

सबसे ऊँची जाति ब्राह्मणों की है, जिनके विषय में हिन्दुओं के ग्रंथ हमें बताते हैं कि वे ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न हुए थे और क्योंकि ब्रह्मा प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है और सिर शरीर का सबसे ऊपरी भाग है, इसलिए ब्राह्मण पूरी प्रजाति के सबसे चुनिंदा भाग हैं। इसी कारण से हिन्दू उन्हें मानव जाति में सबसे उत्तम मानते हैं। अगली जाति क्षत्रियों की है जिनका सृजन, ऐसा कहा जाता है, ब्रह्मा के कन्धों और हाथों से हुआ था। उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचे नहीं है। उनके पश्चा वैश्य आते हैं, जिनका उद्भव ब्रह्मा की जंघाओं से हुआ था। शूद्र, जिनका सृजन चरणों से हुआ था। अंतिम दो वर्गों के बीच अधिक अंतर नहीं है। किंतु इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों और गाँवों में रहते हैं; समान घरों और आवासों में मिल-जुलकर ।
प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से भारतीय जाति व्यवस्था की तुलना

अल-बिरूनी ने भारत में विद्यमान जाति व्यवस्था को अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के द्वारा समझने का प्रयास किया। उसने इस व्यवस्था की व्याख्या करने में भी अन्य समुदायों के प्रतिरूपों का आश्रय लिया। उसने भारत में विद्यमान वर्ण-व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से करते हुए लिखा वि प्राचीन फारस के समाज में भी घुड़सवार एवं शासक वर्ग; भिक्षु, आनुष्ठानिक पुरोहित और चिकित्सक; खगोलशास्त्री एवं अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक एवं शिल्पकार, ये चार वर्ग अस्तित्व में थे। इस प्रकार, अल बिरूनी यह स्पष्ट कर देना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ-ही-साथ अल-बिरूनी ने यह भी स्पष्ट किया कि इस्लाम में इस प्रकार का कोई वर्ग विभाजन नहीं था; सामाजिक दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाता था; उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन के आधार पर विद्यमान थीं।

सन्दर्भ

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  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 19 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2015.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 3 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 अप्रैल 2015.

बाहरी कड़ियाँ

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