आचार्य वामन

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आचार्य वामन (८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध - ९वीं शताब्दी का पूर्वार्ध) प्रसिद्ध अलंकारशास्त्री थे। उनके द्वारा प्रतिपादित काव्यलक्षण को रीति-सिद्धान्त कहते हैं। वामन द्वारा रचित काव्यालङ्कारसूत्र, काव्यशास्त्र का दर्शन निर्माण का प्रथम प्रयास है। यह ग्रन्थ सूत्र रूप में है। वे रीति को काव्य की आत्मा कहते हैं।

काव्यालङ्कारसूत्र आचार्य वामन द्वारा रचित एकमात्र ग्रंथ है। यह सूत्र शैली में लिखा गया है। इसमें पाँच अधिकरण हैं। प्रत्येक अधिकरण अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रंथ में कुल बारह अध्याय हैं। स्वयं इन्होंने ही इस पर कविप्रिया नामक वृत्ति लिखी-

प्रणम्य परमं ज्योतिर्वामनेन कविप्रिया।
काव्यालङ्कारसूत्राणां स्वेषां वृत्तिर्विधीयते।

इसमें इन्होंने उदाहरण के तौर पर अन्य कवियों के साथ-साथ अपनी कविताओं का भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वे स्वयं भी कवि थे। लेकिन काव्यालंकार सूत्र के अलावा उनके किसी अन्य ग्रंथ का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हो सकता है कि उन्होंने कुछ श्लोकों की रचना केवल इस ग्रंथ में उदाहरण लिए ही की हो।

काव्यालङ्कारसूत्र पर किसी ऐसे आचार्य ने टीका नहीं लिखी जो प्रसिद्ध हों। लगता है कि कविप्रिया टीका में आचार्य वामन ने अपने ग्रन्थ को इतना स्पष्ट कर दिया है कि परवर्ती आचार्यों ने अलग से टीका या भाष्य लिखने की आवश्यकता न समझी हो। यह भी सम्भव है कि आचार्यों ने टीकाएँ की हों, परन्तु वे आज उपलब्ध न हों। क्योंकि काव्यालङ्कारसूत्र बीच में लुप्त हो गया था। आचार्य मुकुलभट्ट (प्रतिहारेन्दुराज के गुरु) को इसकी प्रति कहीं से मिली, जो आज उपलब्ध है। इस बात का उल्लेख काव्यालङ्कार के टीकाकार आचार्य सहदेव ने किया है।

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