औद्योगिक वास्तु

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सामान्यत: औद्योगिक वास्तु (Industrial architecture) के अंतर्गत ऐसी इमारतें तथा कारखाने आते हैं जहाँ वस्तुओं का प्रारंभिक निर्माण, उत्पादन, संग्रह और क्रय-विक्रय होता है। ऐसी इमारते हैं : कल-कारखाने, मिल, विद्युत्शक्ति केंद्र, तैलशोधन केंद्र, प्रदर्शन कक्ष, अन्नसंग्राहक (सिलो) और गोदाम इत्यादि। मूलत: इन इमारतों का निर्माण व्यावहारिक ढंग पर होना चाहिए, अर्थात् इनका ढाँचा ऐसा हो जिससे कम से कम खर्च से, स्थान, सामग्री और धन का अपव्यय बचाते तथा कार्यकुशलता को अक्षुण्ण रखते हुए ये उस विशिष्ट उद्देश्य को सिद्ध कर सकें जिसके लिए इनका निर्माण किया जाता है। ये इमारतें और कारखाने जिन लोगों के उपयोग में आते हैं उन्हें पर्याप्त सुरक्षा और अधिक सुख सुविधा प्राप्त हो सके, इसका पूरा ध्यान रखना आवश्यक होता है। आकार प्रकार में भी इन इमारतों को सुसंतुलित, मनोरम और भव्य होना चाहिए।

इतिहास[संपादित करें]

आरंभ में भारत में औद्योगिक इमारतें मुख्यत: शहतीर, ईंट और पत्थरों से बनती थीं और एकमंजिली ही होती थीं। शहरों में, जहाँ भूमि का मूल्य अपेक्षाकृत बहुत अधिक होता था, ये इमारतें दुमंजिली बनती थीं। तीन या इससे अधिक मंजिलोंवाली इमारतें तो बहुत ही कम थीं। लंबी धरनों के न मिल सकने के कारण छत के नीचे पास-पास खंभे रखने पड़ते थे जिससे इमारत के भीतर का एक बड़ा भाग किसी काम में न आ पाता था। आगे चलकर जब लोहा सुलभ होने पर खंभे इस्पात के ही धरन, कैंचियाँ (ट्रसेज़) और खंभे बनाए जाने लगे जिससे खंभे दूर-दूर रखे जा सकें और काम के लिए कारखाने के भीतर अधिक स्थान मिलने लगा। साथ ही इस्पात के पायों पर खड़े किए गए कई मंजिल के भवनों का निर्माण भी संभव हो सका।

प्रबलित सीमेंट कंक्रीट, अच्छी जाति के इस्पात और ऐल्यूमिनियम की मिश्र धातुओं के विकास से औद्योगिक इमारतों की डिज़ाइन, निर्माण और साज सज्जा में अच्छी प्रगति हुई। टेलीफ़ोन, लिफ़्ट तथा स्वचालित संवहन से इस प्रगति में और तीव्रता आई।

स्थान का चुनाव एवं अन्य आवश्यकताएँ[संपादित करें]

औद्योगिक इमारतों के निर्माण के लिए उपयुक्त स्थान का चुनाव करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक हैं : विद्युत्शक्ति और जल सस्ता और पर्याप्त मात्रा में मिल सके। आवश्यक मात्रा और संतोषजनक रूप में श्रम सुलभ हो। कच्चे माल और आवश्यक उपकरण को उचित व्यय और सुविधाजनक रीति से प्राप्त करने तथा प्रस्तुत माल को बाहर भेजने के लिए समुद्र या नौसंवहन योग्य नदी, रेल लाइन और पक्की सड़क हो। व्यवसायजन्य रद्दी सामानों के उचित विक्रय की सुविधा हो। भूमि भवननिर्माण योग्य हो और पड़ोस ऐसा हो जिससे भविष्य में उद्योग का कम खर्च से सुविधाजनक एवं संतोषजनक रूप से विस्तार संभव हो सके। युद्धकालीन बमबारी जैसे जोखिमों से बचने के लिए यथासंभव जनाकीर्ण एंव सामरिक महत्व के क्षेत्रों को नहीं चुनना चाहिए।

स्थान की आवश्यकता पर सावधानी से विचार करना चाहिए। विभिन्न एककों की रचना बड़ी सतर्कता से करनी चाहिए जिससे दैनिक कार्यसंचालन में शक्ति का अपव्यय न हो और न स्थान, सामग्री, श्रम या धन की बरबादी हो। आयोजन सरल होना चाहिए जिससे कम से कम खर्च में प्रतिष्ठान में कार्य करनेवालों की कार्यक्षमता अधिक से अधिक बढ़ाई जा सके और उन्हें अधिकतम सुख सुविधा प्राप्त हो सके। जलवायु की स्थिति, वायुप्रवाह की दिशा, वर्षा की मात्रा आदि पर भी उचित ध्यान देना आवश्यक है। इमारतें एकमंजिली हों या कई मंजिलों की, यह उद्योगविशेष की अपनी आवश्यकताओं, भूमि के आपेक्षिक मूल्य, भूमि की स्थिति तथा क्षेत्रफल आदि पर निर्भर है। कई मंजिलोंवाली इमारतों में अग्नि के नियंत्रण के लिए स्वचालित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे बीमे का खर्च कम हो। अग्निकांड और संकट के समय निकल भागने का भी उचित प्रबंध आवश्यक है। लिफ़्ट और स्वचालित सोपानों की व्यवस्था भी हो सके तो अच्छा है।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रत्येक विभाग का विस्तार समय आने पर उचित रीति और कम व्यय से किया जा सके और इससे उत्पादन में कोई ह्रास न हो। प्रतिष्ठान के विस्तार के अनुरूप जलपान एवं भोजनगृह, विश्रामकक्ष, शौचालय, बहुमूल्य वस्तुओं को रखने के लिए सुरक्षित स्थान, चिकित्सालय एवं क्रीड़ांगण आदि कल्याणकारी सुविधाएँ भी नितांत अपेक्षित हैं। वास्तु को प्रभावशाली बनाने के लिए भवन के आकार प्रकार, बनावट, सौष्ठव और सम्यक् अनुपात का ध्यान रखना चाहिए। कर्मचारियों की मनोदशा और मानसिक वृत्तियों पर रंगों के आयोजन का बड़ा प्रभाव पड़ता है, जिससे अंतत: उत्पादन के परिमाण और अच्छाई दोनों प्रभावित होते हैं। प्रतिष्ठान की भीतरी दीवालों की रँगाई हल्के रंगों से या सफेद होनी चाहिए। इमारतों में रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए जिससे निरंतर एकरूप प्रकाश मिल सके, किंतु चकाचौंध न उत्पन्न हो। प्राकृतिक प्रकाश का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए। रात के समय कृत्रिम प्रकाश के रूप में बिखरकर आया बिजली का श्वेत प्रकाश अपेक्षित होता है। प्राय: विद्युन्नलिकाएँ (फ़्लुओरेसेंट ट्यूब लाइट) सर्वाधिक सुविधाजनक होती हैं। इसके लिए प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों प्रकार की व्यवस्थाएँ की जा सकती हैं। तंबाकू, औषध और वस्त्रोद्योग जैसे प्रतिष्ठानों में, जहाँ ताप एवं आर्द्रता का नियंत्रण और धूलिकणों का दूर रखना बहुत आवश्यक होता है, वायु अनुकूलन की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। औद्योगिक इमारतों का निर्माण अग्निसह होना चाहिए।

कुछ देशों में कारखानों की वृद्धि इतनी अधिक हुई है कि शहरों में उनका बनाना असंभव हो गया है। इसलिए बड़े कारखाने शहर से दूर बनाए जाते हैं और पास में ही कार्यकर्ताओं के लिए गृह, पाठशाला, उद्यान, अस्पताल, बाजार, सिनेमा आदि सभी विशेष रूप से बनाए जाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक कारखाना एक छोटा सा नगर ही हो जाता है।

कार्यालयों के लिए भवन भी औद्योगिक वास्तु के अंतर्गत गिने जाते हैं। विदेशों में कुछ इतने बड़े कार्यालय हैं कि वे तीस मंजिलें या इससे भी ऊँचे बनाए गए हैं। इस्पात के ढाँचे के आविष्कार के पहले ऐसे ऊँचे कार्यालयों के निम्नतम खंड में जगह बिलकुल नहीं बचती थी, क्योंकि आवश्यक दृढ़ता के लिए दीवारें बड़ी मोटी बनानी पड़ती थीं। उदाहरणत:, 348 फुट ऊँचे एक कार्यालय के निम्नतम खंड की दीवारें 20 फुट मोटी थीं। सन् 1884 में पहली बार ऐसा भवना बना जिसमें इस्पात का कंकाल था और सब छतों और सामान का बोझ इसी कंकाल पर टिका था। इसमें दीवारें बहुत पतली थीं और उनका भी भार कंकाल पर ही सँभला हुआ था। पीछे इस्पात के गर्डरों को लवंगित (रिवेट) करने के बदले वेल्डिंग जोड़ने का उपयोग होने लगा। तब वांछित दृढ़ता के लिए बहुत हल्के कंकालों का ही प्रयोग होने लगा और बहुत ऊँचे भवन बनने लगे। परंतु बहुत ऊँचे भवनों में इतने एलिवेटरों की आवश्यकता पड़ने लगी कि बहुत सा उपयोगी स्थान उन्हीं में लग जाता था। अब स्वयंचल (ऑटोमैटिक) एलीवेटरों के प्रयोग से इस समस्या का भी हल निकल आया है।

भवनों को अग्निसह (फ़ायर प्रूफ़) बनाने के लिए आवश्यक है कि इस्पात के गर्डर आदि सीमेंट-कंक्रीट में दबे रहें, अन्यथा भवन के भीतर रखे समान के जलने पर वे तप्त होकर नरम पड़ जाते हैं और भवन गिर पड़ता है।

प्रकाश अधिक आ सके, इस अभिप्राय से कभी-कभी काँच की ईंटों से दीवार बना दी जाती है। यदि ऐसा न भी किया जाए तो काँच लगी बड़ी खिड़कियों से काम लिया जाता है। कंकालयुक्त भवनों में दीवारों पर तो कोई बोझ रहता नहीं, इसलिए उनको प्राय: काँच से ही भरना संभव होता है। विदेशों में बहुत से कारखानों में दीवार का 90 प्रतिशत काँच होता है; परंतु भारत में धूप से भी बचना रहता है; इसलिए इतना काँच नहीं लगाया जा सकता। कंकालयुक्त भवनों में खंभों के बीच 30 फुट व् 60 फुट का स्थान सुगमता से रखा जा सकता है। हवाई जहाज के कारखानों में इससे भी बड़े चौके (स्तंभ-रहित स्थान) रखे जाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इंग्लैंड में बने एक कारखाने में 358 फुट व् 420 फुट चौके हैं। ऐसे भवनों पर पड़े गर्डर सादे नहीं, कैंची (ट्रस) या पुलों पर प्रयुक्त कंकालमय गर्डर की तरह या मेहराब होते हैं।

पिछले विश्वयुद्ध में इसकी भी आवश्यकता पड़ी कि औद्योगिक भवन शीघ्रता से बनें। तब ऐसी निर्माण रीतियाँ निकाली गईं कि वर्षों का काम सप्ताहों में होने लगा। सफलता प्रामाणिक नाप के अवयवों और ब्यारों से मिली। उदाहरणत: सब कारखानों में विशिष्ट नापों के कक्ष बनते थे और दरवाजे, खिड़कियाँ आदि विशेष नापों के और विशेष मेलों के ही लगाए जाते थे।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]