एंग्लिकनवाद

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एंग्लिकनवाद
Anglicanism
एंग्लिकन गुलाब
ध्येय: यूनानी भाषा : "सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा"
कैंटरबरी कैथेड्रल जोकि कैंटरबरी के आर्चबिशप के आसान की मेज़बानी करता है। यह चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का मातृ गिरजा है।

एंग्लिकनवाद एक पश्चिमी ईसाई परंपरा है जो अंग्रेजी सुधार के बाद इंग्लैंड की कलीसिया की प्रथाओं, मुकदमेबाजी और पहचान से विकसित हुई है।[1] कुछ देशों में एंग्लिकनवाद के अनुयायियों को एंग्लिकन या एपिस्कोप्लियन कहा जाता है। अधिकांश एंग्लिकन, अंतर्राष्ट्रीय एंग्लिकन ऐक्य के राष्ट्रीय या क्षेत्रीय कलीसियाई प्रांतों के सदस्य होते हैं, जो रोमन कैथोलिक कलीसिया (रोमन कैथोलिक चर्च) और पूर्वी रूढ़िवादी कलीसिया के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा ईसाई संप्रदाय बनाता है।[2] वे कैंटरबरी के धर्ममण्डल और इस प्रकार कैंटरबरी के आर्कबिशप के साथ पूर्ण संवाद में हैं, जिसे वे अपने प्राइमस इंटर पारेस (लैटिन: "बराबरों में प्रथम") के रूप में संदर्भित करता है। कैंटरबरी के आर्चबिशप के कार्यों में: डिकेनियल लेम्बेथ सम्मेलन कहना, प्राइमेट की बैठक की अध्यक्षता करना, और एंग्लिकन कंसल्टेंट काउंसिल की अध्यक्षता करना शामिल है।[3][4] कुछ कलीसिया जो एंग्लिकन ऐक्य का हिस्सा नहीं हैं या इसके द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं, वे भी खुद को एंग्लिकन कहते हैं: ऐसे कलीसियाओं में वे भी शामिल हैं जो कंटीन्यूइंग एंग्लिकन आंदोलन और एंग्लिकन रीएलाइनमेंट के भीतर हैं।

एंग्लिकन लोग अपने ईसाई विश्वास को बाइबल, एपोस्टोलिक कलीसिया की परंपराओं, एपोस्टोलिक उत्तराधिकार, और चर्च पादरियों के लेखन को आधार बना क्र मानते हैं। एंग्लिकनवाद पश्चिमी ईसाई धर्म की शाखाओं में से एक बनाता है, जिसने एलिज़ाबेथन धार्मिक निपटान के समय पवित्र धर्ममंडल से अपनी स्वतंत्रता की निश्चित रूप से घोषणा की थी। 16 वीं शताब्दी के मध्य के कई नए एंग्लिकन समर्थक और नेता समकालीन प्रोटेस्टेंटवाद के निकट थे। इंग्लैंड की कलीसिया (चर्च ऑफ़ इंग्लैंड) में इन सुधारों को थॉमस क्रैंमर, कैंटरबरी के तत्कालीन आर्कबिशप, द्वारा उभरते हुए दो प्रमुख प्रोटेस्टेंट परंपराओं: ल्यूटलैनिज्म और कैल्विनवाद, के बीच एक मध्यम मार्ग के रूप में स्थापित किया गया।[5]

ऐंग्लिकन चर्च का इतिहास आगे चलकर प्रधानतया इसकी विभिन्न विचारधाराओं का उतार-चढ़ाव है। यहाँ पर ऍक्ट ऑफ़ सेटलमेंट, १७०१ का उल्लेख करना जरूरी है जिसके अनुसार इंग्लैंड के भावी राजाओं का ऐंग्लिकन होना अनिवार्य ठहराया गया है।

इतिहास[संपादित करें]

हेनरी अष्टम, जिनके राजकाल में आंगलिकाई कलीसिया को रोम से अलग एवंद स्वतंत्र रूप में स्थापित किया गया

हेनरी अष्टम के राज्यकाल (सन १५०९-१५५७) में लूथर ने जर्मनी में प्रोटेस्टैंट धर्म चलाया। इसके विरोध में हेनरी अष्टम ने १५२१ में एक ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने रोम के बिशप (पोप) के ईश्वरदत्त अधिकार का प्रतिपादन किया। इसपर हेनरी को रोम की ओर से धर्मरक्षक की उपाधि मिली (यह आज तक इंग्लैंड के राजाओं की उपाधि है)। बाद में पोप ने हेनरी का प्रथम विवाह अमान्य ठहराने तथा इसको दूसरा विवाह कर लेने की अनुमति देने से इंकार किया। इसके परिणामस्वरूप पार्लियामेंट ने हेनरी के अनुरोध से एक अधिनियम स्वीकार किया जिसमें राजा को चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का परमाधिकारी घोषित किया जाता था। (ऐक्ट ऑफ सुप्रिमेसी १५३१)। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन के बाद हेनरी अष्टम ने जीवन भर प्रोटेस्टैंट विचारों का विरोध कर काथलिक धर्म सिद्धांतों को अक्षुण्ण बनाए रखने का सफल प्रयास किया। इंग्लैंड के कलीसिया का परमाधिकारी होने के नाते उसने मठों की संपत्ति अपनाकर उनका उन्मूलन किया।

एडवर्ड षष्ठम के राज्यकाल (सन १५५७-१५५३) में क्रैन्मर के नेतृत्व में ऐंग्लिकन चर्च का काथलिक स्वरूप बहुत कुछ बदल गया तथा 'बुक ऑफ कामन प्रेयर' में बहुत से प्रोटेस्टैंट विचारों का सननिवेश किया गया (इसका प्रथम संस्करण सन १५४९ में स्वीकृत हुआ, दूसरा परिवर्तित संस्करण सन १५५२ में प्रकाशित हुआ)।

अपने भाई एडवर्ड के निधन पर मेरी ट्यूडर ने कुछ समय तक (सन १५५३-५८) रोमन काथलिक चर्च के साथ चर्च ऑव इंग्लैंड का संपर्क पुन: स्थापित किया किंतु उसकी बहन एलिज़ाबेथ (सन १५५८-१६०३) ने चर्च ऑव इंग्लैंड को पूर्ण रूप से स्वतंत्र तथा राष्ट्रीय चर्च बना दिया। सर्वप्रथम अपने एक नए अधिनियम द्वारा अपने पिता हेनरी अष्टम की भाँति अपने को चर्च ऑव इंग्लैंड पर परमाधिकार दिलाया (ऐक्ट ऑव सुप्रिमेसी-सन १५५९) तथा एक दूसरे अधिनियम द्वारा एडवर्ड का द्वितीय बुक ऑव कामन प्रेयर अनिवार्य ठहरा दिया। (ऐक्ट ऑव यूनिफ़ार्मिटी-सन १५५९)। इतने में चर्च ऑव इंग्लैंड के सिद्धांतों के सूत्रीकरण का कार्य भी आगे बढ़ा और १५६२ में पार्लियामेंट तथा १५६३ में महारानी एलिज़ाबेथ द्वारा ३९ सूत्र (थर्टीनाइन आर्टिकिल्स) अनुमोदित हुए। इन सूत्रों पर लूथर के विचारों का प्रभाव स्पष्ट है।

एलिज़ाबेथ के समय में प्युरिटन दल का उदय हुआ किंतु वह विशेष रूप से जेम्स प्रथम (सन १६०३-२५) तथा चार्ल्स प्रथम (सन १६२५-१६४९) के राज्यकाल में सक्रिय था। प्युटिन दल ऐंग्लिकन चर्च को प्रोटेस्टैंट धर्म के अधिक निकट ले जाना चाहता था। वह कुछ समय तक सर्वोपरि रहा तथा सन १६४३ में पार्लियामेंट द्वारा बिशप की पदवी का उन्मूलन कराने में समर्थ हुआ। यह परिस्थिति सन १६६० तक बनी रही।

सिद्धांत[संपादित करें]

कैंटरबरी के सन्त ऍगस्टीन, जो कैंटरबरी के प्रथम आर्चबिशप थे

सैद्धांतिक तौरपर रोम से अलग हाते हुए भी ऐंग्लिकन कलीसिया अपने को काथलिक कलीसिया का अंग मानता है। सैद्धांतिक दृष्टि से उसका स्थान रोमन काथलिक कलीसिया तथा प्रोटेस्टैंट धर्म के बीच में है। इसी में ऐंग्लिकन चर्च का विशेष महत्त्व है और इसी कारण उसे 'ब्रिज चर्च' की उपाधि दी गई है क्योंकि वह पुल की भाँति दोनों के बीच में स्थित है। वह प्रोटेस्टैंट धर्म के समान रोम के विशप का अधिकार अस्वीकार करता है किंतु वह रोमन काथलिक चर्च की भाँति सिखलाता है कि बाइबिल ईसाई धर्म का एकमात्र आधार नहीं है। बाइबिल के अतिरिक्त वह काथलिक गिरजे की प्रथम चार महासभाओं के निर्णय भी स्वीकार करता है तथा बाइबिल की व्याख्या में गिरजे की प्राचीन परंपरा को बहुत महत्त्व देता है। फिर भी वह धार्मिक शिक्षा के संबंध में सैद्धांतिक एकरूपता के प्रति एक प्रकार से उदासीन है। फलस्वरूप ऐंग्लिकन कलीसिया (एंग्लिकन चर्च) में प्राय: प्रारंभ से ही कई विचारधाराओं अथवा दलों का अस्तित्व रहा है। यद्यपि बहुत से ऐंग्लिकन किसी भी दल का अनुयायी होना स्वीकार नहीं करते तथापि पहले की भाँति आजकल भी ऐंग्लिकन धर्म में मुख्यतया तीन भिन्न विचारधाराएँ वर्तमान हैं: इंजीलवादी, कैथोलिक, उदारवादी

प्रवर्तन के समय से ही ऐंग्लिकन चर्च पर प्रोस्टेटैंट धर्म का प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव विशेष रूप से निम्नलिखित बातों में लक्षित होता है:

  • यज्ञ का निराकरण
  • पुरोहिताई तथा संस्कारों को कम महत्त्व देने की प्रवृत्ति
  • बिशपों के अधिकार को घटाने का प्रयत्न।
सामान्य प्रार्थना की किताब (बुक ऑफ़ कॉमन प्रेयर्स) १५९६ का संस्करण

इस विचारधारा के अनुयायी पहले तो कलीसिया (चर्च) के नाम से विख्यात थे किंतु आजकल वे अपने को एवेंजेलिकल कहकर पुकारते हैं। जब ऐंग्लिकन चर्च पहले पहल रोमन कैथोलिक कलीसिया से अलग होने लगा था तब किसी के मन में नया धर्म चलाने का विचार नहीं था। बाद में भी ऐंग्लिकन धर्मपंडितों का एक दल निरंतर इस प्रयत्न में रहा कि ऐंग्लिकन धर्म जहाँ तक बन पड़े सिद्धांत तथा पूजापद्धति की दृष्टि से रोमन काथलिक धर्म से दूर न होने पाए। इस दल का नाम 'हाई चर्च' रखा गया और वह १७वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में बिशप लार्ड के नेतृत्व में कुछ समय तक सर्वोपरि रहा। पिछली शताब्दी में ऑक्सफ़ोर्ड आंदोलन द्वारा इस विचारधारा का महत्त्व फिर बढ़ने लगा। इसके अनुयायी अपने को ऐंग्लो-काथलिक कहते हैं तथा ऐंग्लिकन चर्च को काथलिक चर्च की एक शाखा मात्र मानते हैं। इधर (सन् १९२८ ई.) आधुनिक ऐंग्लो-काथलिक दल का एक नया संगठन, जिसके सदस्य प्राय: पादरी ही हाते हैं, सामूहिक रूप से रोमन काथलिक गिरजे में सम्मिलित हो जाने का आंदोलन करता है; विरोधियों ने उसका नाम पेपलिस्त रखा है। यह नितांत स्वाभाविक प्रतीत होता है कि जिस धर्म में उपर्युक्त परस्पर विरोधी काथलिक और एवेंजेलिकल विचारधाराओं की गुंजाइश थी, वहाँ कुछ लोग समन्वय की ओर झुक जाते तथा सिद्धांत को कम महत्त्व देते। उनके अनुसार धर्मसिद्धांत ईश्वर द्वारा प्रकट किए हुए धार्मिक सत्य का अंतिम सूत्रीकरण नहीं है, ये युगविशेष की धार्मिक भावनाओं की दार्शनिक अभिव्यक्ति मात्र हैं। १७वीं शताब्दी में इस दल का नाम 'लैटिट्यूडिनेरियन' रखा गया था, १८वीं शताब्दी में उसे 'लिबरल' तथा बाद में 'ब्राड चर्च' कहा गया। आजकल इसके लिए 'मॉडर्निज़्म' शब्द का भी प्रयोग होने लगा है।

प्रसार[संपादित करें]

अमेरिकी क्रांति के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका में एंग्लिकन मंडलियां (जो बाद में कनाडा के आधुनिक देश का आधार बनेगी) प्रत्येक को अपने स्वयं के बिशप और स्व-शासन संरचनाओं के साथ स्वायत्त कलीसियाओं (चर्चओं) में पुनर्गठित किया गया; इन्हें कनाडा के डोमिनियन में अमेरिकन एपिस्कोपल चर्च और इंग्लैंड की कलीसिया के रूप में जाना जाता था। ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार और ईसाई मिशनों की गतिविधि के माध्यम से, इस मॉडल को कई नवगठित कलीसियाओं के लिए मॉडल के रूप में अपनाया गया था, विशेष रूप से अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया-प्रशांत में। 19 वीं शताब्दी में, इन चर्चों की सामान्य धार्मिक परंपरा का वर्णन करने के लिए एंग्लिकनवाद शब्द गढ़ा गया था; जैसा कि स्कॉटिश एपिस्कोपल चर्च के बारे में भी है, जो कि पहले स्कॉटलैंड की कलीसिया के भीतर उत्पन्न हुआ था, लेकिन इसे आम पहचान साझा करने के रूप में मान्यता दी गई थी।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "What it means to be an Anglican". Church of England]]. मूल से 22 अगस्त 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 March 2009.
  2. "The Anglican Communion official website – homepage". मूल से 19 मार्च 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 March 2009.
  3. Anglican Communion official website. Archived 29 जून 2011 at the वेबैक मशीन
  4. The Oxford Dictionary of the Christian Church by F. L. Cross (Editor), E. A. Livingstone (editor) Oxford University Press, US; 3th edition, p. 65 (13 March 1997)
  5. "History of the Church of England". The Church of England (अंग्रेज़ी में). मूल से 12 अप्रैल 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 जून 2020.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]