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जीववाद

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जीववाद या सर्वात्मवाद (Animism) वह दार्शनिक, धार्मिक या आध्यात्मिक विचार है कि आत्मा न केवल मनुष्यों में होती है वरन् सभी जन्तुओं, वनस्पतियों, चट्टानों, प्राकृतिक परिघटनाओं (बिजली, वर्षा आदि) में भी होती है। इससे भी आगे जाकर कभी-कभी शब्दों, नामों, उपमाओं, रूपकों आदि में भी आत्मा के अस्तित्व की बात कही जाती है। सर्वात्मवाद का दर्शन मुख्यतया आदिवासी समाजों में पाया जाता है परन्तु यह शिन्तो एवं हिन्दुओं के कुछ सम्प्रदायों में भी पाया जाता है।

आत्मा (Spirit), जीवात्मा या जीव (soul) के विषय में मनुष्यों में प्राय: तीन प्रकार के विश्वास या विचार प्रचलित रहे हैं। कुछ लोग तो चार्वाक के अनुयायियों की तरह, शरीरों से स्वतंत्र या पृथक् जीवों या आत्माओं की कोई सत्ता ही नहीं मानते। उनके अनुसार चेतना जड़ मस्तिष्क की क्रियाओं के परिणामस्वरूप उसी प्रकार उत्पन्न हो जाती है जिस प्रकार कि यकृत से पित्त; वह किसी जीव या आत्मा नामक अभौतिक तत्व या पदार्थ का गुण या स्वरूप नहीं। इसके विरुद्ध कुछ लोगों के विचार में चेतना भौतिक तत्वों से उत्पन्न नहीं होती, किंतु भौतिक पदार्थों से विलक्षण आत्मा या जीव का गुण है। उदाहरण के लिए, जैन विचारकों ने जीवों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हुए जीव की परिभाषा "चेतनालक्षणो जीव:" इन शब्दों में की है। परंतु आत्मा या जीव की सत्ता स्वीकार करनेवाले सब व्यक्ति एक मत के नहीं। उन्हें स्थूल रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक तो वे जो केवल मनुष्यों और कुछ उच्च कोटि के पशुपक्षियों में ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं और दूसरे वे जो न केवल मनुष्यों और पशुपक्षियों में ही अपितु कीट-पतंगों और पेड़-पौधों आदि में भी, जिन्हें दूसरे लोग जड़ समझते हैं, आत्मा या जीव के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं। मानवों के इसी प्रकार के विश्वास या विचार को सर्वात्मवाद नाम दिया जाता है। तार्किक भाषा में सर्वात्मवाद वह सिद्धांत है जिसके अनुसार तथाकथित जड़ पदार्थों में भी आत्मा या जीवात्मा नामवाले एक अभौतिक तत्व या शक्ति का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है और उसे न केवल बुद्धिजीवी प्राणियों के बौद्धिक जीवन का अपितु शारीरिक अथवा भौतिक क्रियाओं का भी मूलाधार माना जाता है।

जैसा कठोपनिषद "योनिमन्ये प्रपद्यंते शरीरत्वाय देहिन: स्थाणुमन्येऽनुसयति यथाकर्म यथाश्रुतम्" (2-27) के इस श्रुति से एवं श्रीमद्भागवत के "अण्डेषु पेशिष तरुष्वनिश्चितेषु प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र (11-3-39)" इस श्लोक से तथा श्री उमास्वामी के तत्वार्थाधिगमसूत्र (2-22) के "वनस्पत्यन्तानामेकम्" इस वाक्य से विदित होता है, भारतीय आस्तिक विचारक तथा जैन दार्शनिक दोनों ही वनस्पति आदि स्थावर तथा पृथिवी आदि जंगम जड़ पदार्थों में भी आत्मा का अस्तित्व मानते रहे हैं। अत: उन्हें सर्वात्मवादी विचार का समर्थक कहा जा सकता है।

वस्तुत: वृक्ष, ग्रह, उपग्रहादि अचेतन पदार्थो में भी आत्मा या जीव की सत्ता पर आस्था रखनेवाले व्यक्ति अब भी संसार के गायना आदि अनेक देशों में पाए जाते हैं जो प्राय: न केवल प्रेतात्माओं की, विशेषतया अपने मृत पूर्वजों की, अपितु ऐसी आत्माओं की भी पूजा करते हैं जिन्हें वे या तो किसी भी शरीर या वस्तु विशेष से संबंधित नहीं समझते या फिर प्राकृतिक पदार्थों के अधिष्ठाता अथवा अभिमानी देवताओं के रूप में स्वीकार करते हैं।

आधुनिक युग के अधिकांश विचारक सर्वात्मवाद को न केवल बहु-ईश्वरवाद का ही किन्तु सुसभ्य मानव के धार्मिक एकेश्वरवाद का भी आधारभूत विश्वास समझते हैं और उसकी गणना असभ्य या अर्धसभ्य जातियों के धर्म या दर्शन में करते हैं। उनके अनुसार सर्वात्मवाद मानव की एक अवैज्ञानिक आस्था मात्र है। वे उसे विश्व के तथ्यों की व्याख्या करने का एक बौद्धिक प्रयत्न तो मानते हैं; परन्तु केवल प्रारम्भिक या अपरिपक्व प्रयत्न ही।

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