एंग्लो-डच युद्ध
एंग्लो-डच युद्ध 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान वाणिज्यिक और समुद्री प्रभुत्व की लड़ाई का प्रतिनिधित्व करते हैं। इंग्लैंड और डच गणराज्य ने वैश्विक व्यापार और नौसैनिक शक्ति के लिए संघर्ष किया। इन युद्धों ने यूरोपीय नौसैनिक युद्ध और राज्य निर्माण में नए युग की शुरुआत की। भारी तोपों और नई सामरिक रणनीतियों का प्रभावी उपयोग इन संघर्षों की प्रमुख विशेषता थी।
पहला एंग्लो-डच युद्ध (1652–1654)
[संपादित करें]पहला युद्ध इंग्लैंड और डच गणराज्य के बीच वाणिज्यिक विवादों और समुद्री टकराव से उपजा। 1651 में इंग्लैंड के नेविगेशन एक्ट ने डच व्यापारिक जहाजों को नुकसान पहुंचाया। मई 1652 में डोवर के पास माटर्न ट्रॉम्प और रॉबर्ट ब्लेक के बीच झड़प ने युद्ध को शुरू किया। अंग्रेजों ने अपनी मजबूत नौसेना और बेहतर तोपों के बल पर डच जहाजों पर बढ़त बनाई। डच गणराज्य के प्रयासों के बावजूद, इंग्लैंड ने शेवेनींगन की लड़ाई (1653) में जीत हासिल की, जिससे इंग्लैंड की नौसैनिक श्रेष्ठता स्थापित हुई। हालांकि, डच व्यापार प्रणाली को बनाए रखा गया और शांति संधि में इंग्लैंड ने केवल मामूली आर्थिक लाभ प्राप्त किया।[1]
दूसरा एंग्लो-डच युद्ध (1665–1667)
[संपादित करें]चार्ल्स II के शासन में, इंग्लैंड ने डच गणराज्य पर आक्रमण किया। 1665 में लोवेस्टॉफ्ट की लड़ाई में डच नौसेना को बड़ा नुकसान हुआ, लेकिन डच एडमिरल माइकल डि रॉयटर की कुशल रणनीति ने डचों को चार-दिवसीय लड़ाई (1666) में सफलता दिलाई। 1667 में मेडवे पर डच नौसेना के हमले ने अंग्रेजी नौसेना को भारी नुकसान पहुंचाया। दूसरी वेस्टमिंस्टर संधि के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ, जिसमें डचों ने अपनी अधिकांश नौसैनिक शक्ति और व्यापार को बनाए रखा।[2]
तीसरा एंग्लो-डच युद्ध (1672–1674)
[संपादित करें]1670 में चार्ल्स II ने फ्रांस के साथ गुप्त संधि की। डच नौसेना, माइकल डि रॉयटर के नेतृत्व में, लगातार चार लड़ाइयों में अंग्रजों और फ्रांसीसियों को रोकने में सफल रही। 1673 में टेक्सल की लड़ाई में, डच बेड़े ने एक मजबूत एंग्लो-फ्रेंच बेड़े को पराजित किया। इस युद्ध ने डच गणराज्य की समुद्री शक्ति को बनाए रखा, और शांति समझौते के बाद इंग्लैंड और डच गणराज्य के बीच गठबंधन स्थापित हुआ।[1]
चौथा एंग्लो-डच युद्ध (1780–1784)
[संपादित करें]अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, डच व्यापार ब्रिटिश हितों के लिए चुनौती बन गया। 1780 में, इंग्लैंड ने डच गणराज्य पर युद्ध घोषित किया। हालांकि, डच नौसेना कमजोर थी और डॉगगर बैंक की लड़ाई (1781) के अलावा कोई महत्वपूर्ण जीत दर्ज नहीं कर सकी। युद्ध के अंत में, पेरिस संधि (1784) ने डच गणराज्य को मामूली रियायतें दीं, लेकिन यह उनकी वाणिज्यिक शक्ति के अंत की शुरुआत थी।[1]
सामरिक नवाचार: लाइन-अहेड रणनीति
[संपादित करें]एंग्लो-डच युद्धों ने "लाइन-अहेड" सामरिक संरचना की शुरुआत की, जिसमें जहाजों को पंक्ति में तैनात किया गया ताकि वे अपनी तोपों का अधिकतम उपयोग कर सकें। यह रणनीति, विशेष रूप से अंग्रेजों द्वारा प्रथम एंग्लो-डच युद्ध में अपनाई गई, बाद के नौसैनिक युद्धों में प्रभावी साबित हुई। डचों ने इस रणनीति को द्वितीय युद्ध के दौरान अपनाया और इसे कुशलता से लागू किया।[2]
महत्व और परिणाम
[संपादित करें]एंग्लो-डच युद्धों ने यूरोपीय नौसैनिक शक्ति संतुलन को बदल दिया। डच गणराज्य ने अपनी समुद्री शक्ति बनाए रखी लेकिन धीरे-धीरे इंग्लैंड के प्रभुत्व को स्वीकार करना पड़ा। इन युद्धों ने आधुनिक नौसैनिक रणनीतियों की नींव रखी और यूरोप में राज्य निर्माण और सैन्य विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।[2]
संदर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ इ "Anglo-Dutch Wars | Causes, Summary, Battles, Significance, & Outcome | Britannica". www.britannica.com (अंग्रेज़ी भाषा में). 2024-12-13. अभिगमन तिथि: 2025-01-21.
- ↑ अ आ इ Sicking, Louis (2011), "Anglo-Dutch Wars (1652–1654, 1665–1667, 1672–1674, 1780–1784)", The Encyclopedia of War (अंग्रेज़ी भाषा में), John Wiley & Sons, Ltd, डीओआई:10.1002/9781444338232.wbeow022, ISBN 978-1-4443-3823-2, अभिगमन तिथि: 2025-01-21