ऋग्वेद संहिता
ऋग्वेद-संहिता वैदिक साहित्य का प्राचीनतम वेद है और ऋग्वैदिक वाङ्मय का मन्त्र-भाग मानी जाती है। परम्परा में इसे दस मण्डलों में व्यवस्थित 1,028 सूक्तों (लगभग 10,552 मन्त्र; शाकल-शाखा) का संकलन माना जाता है। विद्वानों के मुख्यधारा मतानुसार ऋग्वेद-संहिता का प्रमुख संकलन लौह-युग के प्रारम्भ के आसपास, सामान्यतः c. 1500–1200 BCE के बीच रखा जाता है (कुछ परतें/सूक्त बाद के भी माने गये हैं, c. 1000–800 BCE), जबकि पाठ-संरक्षण दीर्घकाल तक मौखिक परम्परा से हुआ। इसे ‘विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ’ कहना विवादास्पद है, क्योंकि मिस्र के Pyramid Texts (c. 2400 BCE) और सुमेरी Instructions of Shuruppak (c. 2600–2500 BCE) जैसे लिखित संकलन इससे पहले प्रमाणित हैं।[1][2][3][4][5]
विभाजन — ऋकसंहिता का पाठ दो प्रचलित विन्यासों में बताया जाता है: (1) मण्डल–अनुवाक–सूक्त–मन्त्र (10 मण्डल, 1,028 सूक्त, ~10,552 मन्त्र; शाकल-शाखा), और (2) अष्टक–अध्याय–वर्ग–मन्त्र (8 अष्टक, 64 अध्याय, ~2006 वर्ग)।[6]
शाखाएँ — उपलब्ध पूर्ण संहिता प्रायः शाकल-शाखा की मानी जाती है; अन्य शाखाओं के अवशेष/उद्धरण मिलते हैं।[7]
परिचय
[संपादित करें]चारों वेदों में सर्वोच्च स्थान ऋग्वेद को ही प्राप्त है। वैदिक वाङ्मय में ऋग्वेद को परम पूजनीय माना जाता है और वसन्त पूजा आदि के अवसर पर सर्वप्रथम वेदपाठ ऋग्वेद से ही प्रारम्भ किया जाता है। पुरुषसूक्त में आदि पुरुष से उत्पन्न वेदमन्त्रों में सर्वप्रथम 'ऋक' को गिनाया गया है।
ऋग्वेद की संहिता को 'ऋकसंहिता' कहते हैं। वस्तुत: 'ऋक' का अर्थ है- 'स्तुतिपरक मन्त्र और 'संहिता' का अभिप्राय संकलन से है। अत: ऋचाओं के संकलन का नाम 'ऋकसंहिता' है। ऋक की परिभाषा दी जाती है- ऋच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति ऋक ; अर्थात् जिससे देवताओं की स्तुति हो उसे 'ऋक' कहते हैें। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार छन्दों में बंधी रचना को 'ऋक' नाम दिया जाता है। ब्राह्रण ग्रन्थों में ऋक को ब्रह्म, वाक, प्राण, अमृत आदि कहा गया है जिसका तात्पर्य यही है कि ऋग्वेद के मन्त्र ब्रह्म की प्रापित कराने वाले, वाक की प्रापित कराने वाले, प्राण या तेज की प्रापित कराने वाले और अमरत्व के साधन हैं। सामान्य रूप से इससे ऋग्वेद के मन्त्रों की महिमा का ग्रहण किया जाना चाहिए।
पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की कदाचित २१ शाखाएं थीं। इनमें से 'चरणव्यूह' नामक ग्रन्थ में उल्लखित ये पांच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं- शाकल, वाष्कल, आश्वलायनी, शांखायनी और माण्डूकायनी। सम्प्रति ऋग्वेद की शाकल शाखा तथा आश्वलायनी शाखा की संहिता ही प्राप्त होती है। यह संहिताएं कई दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
ऋग्वेद की संहिता का महत्त्व
[संपादित करें]सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का प्राचीनतम ग्रन्थ होने के कारण इस (शाकल) संहिता को विश्वसाहित्य का प्रथम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है। चारों वेदों की संहिताओं की तुलना में यह सबसे बड़ी संहिता है। एक विशालकाय वैदिक ग्रन्थ के रूप में यह अद्भुत और विविध अनंत ज्ञान का स्रोत है। भाव, भाषा और छन्द की दृषिट से भी यह अत्यन्त प्राचीन है। इसमें अधिकांश देव इन्द्र, विष्णु, मरुत आदि प्राकृतिक तत्त्वों के प्रतिनिधि हैं। ये पंचतत्त्वों- अगिन, वायु, आदि तथा मेघ, विद्युत, सूर्य आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी वेदों और ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋग्वेद या इसकी संहिता का ही नाम सर्वप्रथम गिनाया जाता है। फिर अनेक विषयों की व्यापक चर्चा करने के कारण इस संहिता का वर्ण्यविषयपरक महत्त्व भी स्वीकार किया जाता है।
ऋग्वेद संहिता का विभाजन
[संपादित करें]ऋग्वेद की संहिता ऋचाओं का संग्रह है। ऋकसंहिता का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है- (1) अष्टक-क्रम और (2) मण्डल-क्रम।
अष्टक क्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण संहिता आठ अष्टकों में विभाजित है और प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं। अध्याय वर्गों में विभाजित हैं और वर्ग के अन्तर्गत ऋचाएं हैं। कुल अध्यायों की संख्या 64 और वर्गों की संख्या 2006 है।
मण्डल-क्रम में सम्पूर्ण संहिता में दस मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डल में कई अनुवाक, प्रत्येक अनुवाक में कई सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कई मन्त्र हैं। तदनुसार ऋग्वेद-संहिता में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10552 मन्त्र हैं।
इस प्रकार ऋग्वेद की मन्त्र-संहिता के विभाजन की एक सुन्दर और निश्चित व्यवस्था प्राप्त होती है।
ऋग्वेद-संहिता के ऋषि एवं ऋषिका
[संपादित करें]ऋग्वेद-संहिता के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों पर यदि ध्यान दिया जाए, तो हम पाते हैं कि दूसरे से सातवें मण्डल के अन्तर्गत समाविष्ट मन्त्र किसी एक ऋषि के द्वारा ही साक्षात्कार किये गये हैं। इसीलिए ये मण्डल वंशमंडल कहलाते हैं। इन मण्डलों को दूसरे मण्डलों की तुलना में प्राचीन माना जाता है। यद्यपि कई विद्वान इस मत से असहमत भी हैं। आठवें मण्डल में कण्व, भृगु आदि कुछ परिवारों के मन्त्र संकलित हैं। पहले और दसवें मण्डल में सूक्त-संख्या समान हैं। दोनों में 191 सूक्त ही हैं। इन दोनों मण्डलों की उल्लेखयोग्य विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किये गये मन्त्रों का संकलन किया गया है। पहले और दसवें मण्डल में विभिन्न विषयों के सूक्त हैं। प्राय: विद्वान इन दोनों मण्डलों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन मानते हैं। नवां मण्डल भी कुछ विशेष महत्त्व लिये हुए है। इसमें सोम देवता के समस्त मन्त्रों को संकलित किया गया है। इसीलिए इसका दूसरा प्रचलित नाम है- पवमान मण्डल।
सुविधा के लिए ऋग्वेद की संहिता के मण्डल, सूक्तसंख्या और ऋषिनामों का विवरण निम्नलिखित तालिका में दिया जा रहा है-
| मण्डल | सूक्त संख्या | महर्षियों के नाम |
|---|---|---|
| 1. | 191 | मधुच्छन्दा: , मेधातिथि, दीर्घतमा:, अगस्त्य, गौतम, पराशर आदि। |
| 2. | 43 | गृत्समद एवं उनके वंशज |
| 3. | 62 | विश्वामित्र एवं उनके वंशज |
| 4. | 58 | वामदेव एवं उनके वंशज |
| 5. | 87 | अत्रि एवं उनके वंशज |
| 6. | 75 | भरद्वाज एवं उनके वंशज |
| 7. | 104 | वशिष्ठ एवं उनके वंशज |
| 8. | 103 | कण्व, भृगु, अंगिरा एवं उनके वंशज |
| 9. | 114 | ऋषिगण, विषय-पवमान सोम |
| 10. | 191 | त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी इन्द्राणी, शची आदि। |
इन मन्त्रों के द्रष्टा-ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, भृगु और अंगिरा प्रमुख हैं। कर्इ वैदिक नारियां भी मन्त्रों की द्रष्टा रही हैें। प्रमुख ऋषिकाओं के रूप में वाक आम्भृणी, सूर्या, सावित्री, सार्पराज्ञी, यमी, वैवस्वती, उर्वशी, लोपामुद्रा, घोषा आदि के नाम उल्लेखनीय हैें।
ऋग्वेद संहिता के छन्द
[संपादित करें]ऋग्वेद संहिता में कुल 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें भी प्रमुख छन्द सात हैं। ये हैं-
- 1. गायत्री - 24 अक्षर
- 2. उषिणक - 28 अक्षर
- 3. अनुष्टुप - 32 अक्षर
- 4. बृहती - 36 अक्षर
- 5. पंकित - 40 अक्षर
- 6. त्रिष्टुप - 44 अक्षर
- 7. जगती - 48 अक्षर
इनमें भी इन चार छन्दों के मन्त्रों की संख्या इस संहिता में सबसे अधिक पार्इ जाती है- त्रिष्टुप, गायत्री, जगती और अनुष्टुप।
ऋग्वेद संहिता का वर्ण्य-विषय
[संपादित करें]ऋग्वेद में तत्कालीन समाज की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था तथा संस्थाओं का विवरण है। इसमें उनके दार्शनिक, आध्यात्मिक कलात्मक तथा वैज्ञानिक विचारों का समावेश भी है। वेदकालीन ऋषियों के जीवन में देवताओं और देव-आराधना को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी देवता से सम्बद्ध है। यथार्थ में देवता से तात्पर्य वर्ण्य विषय का है। तभी छुरा और ऊखल जैसी वस्तुएं भी देवता है। अक्ष और कृषि भी देवता हैं।
ऋग्वेद की संहिता में देवस्तुति की प्रधानता है। अगिन, इन्द्र, मरुत, उषा, सोम, अशिवनौ आदि नाना देवताओं की कर्इ-कर्इ सूक्तों में स्तुतियां की गर्इ हैं। सबसे अधिक सूक्त इन्द्र देवता की स्तुति में कहे गये हैं और उसके बाद संख्या की दृष्टि से अग्नि के सूक्तों का स्थान है। अत: इन्द्र और अगिन वैदिक आर्यों के प्रधान देवता प्रतीत होते हैं। कुछ सूक्तों में मित्रवरुणा, इन्द्रवायू, धावापृथिवी जैसे युगल देवताओं की स्तुतियां हैं। अनेक देवगण जैसे आदित्य, मरुत, रुद्र, विश्वेदेवा आदि भी मन्त्रों में स्तवनीय हैं। देवियों में उषा और अदिति का स्थान अग्रगण्य है।
ऋकसंहिता में देवस्तुतियों के अतिरिक्त कुछ दूसरे विषयों पर भी सूक्त हैं, जैसे जुआरी की दुर्दशा का चित्रण करने वाला 'अक्षसूक्त', वाणी और ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला 'ज्ञानसूक्त', यम और यमी के संवाद को प्रस्तुत करने वाला 'यमयमी-संवादसूक्त', पुरूरवा और उर्वशी की बातचीत पर प्रकाश डालने वाला 'पुरूरवाउर्वशी-संवादसूक्त' आदि।
विषय की गम्भीरता को दर्शाने वाले सूक्तों में दार्शनिक सूक्तों को गिना जा सकता है, जैसे पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, नासदीयसूक्त आदि। इनमें सृष्टि-उत्पत्ति और उसके मूलकारण को लेकर गूढ़ दार्शनिक विवेचन किया गया है। औषधिसूक्त में नाना प्रकार की औषधियों के रूप, रंग और प्रभाव का विवरण है।
ऋग्वेद संहिता के कुछ प्रमुख सूक्त
[संपादित करें]ऋग्वेद-संहिता के सूक्तों को वर्ण्य-विषय और शैली के आधार पर प्राय: इस प्रकार विभाजित किया जाता है- (1) पुरुष सूक्त (2) देवस्तुतिपरकसूक्त (3) दार्शनिक सूक्त (4) लौकिक सूक्त (5) संवाद सूक्त (6) आख्यान सूक्त (7) श्री सूक्त आदि।
कुछ प्रमुख सूक्त, जो अत्यधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस संहिता के व्यापक विषय पर प्रकाश डालता है।
- (१) पुरुष सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल का 90 संख्यक सूक्त 'पुरुषसूक्त कहलाता है क्योंकि इसका देवता पुरुष है। इसमें पुरुष के विराट रूप का वर्णन है और उससे होने वाली सृषिट की विस्तार से चर्चा की गयी है। इस पुरुष को हजारों सिर, हजारों पैरों आदि से युक्त बताया गया है। इसी से विश्व के विविध अंग और चारों वेदों की उत्पत्ति कही गयी है। सर्वप्रथम चार वर्णों के नामों का उल्लेख ऋग्वेद के इसी सूक्त में मिलता है। यह सूक्त उदात्तभावना, दार्शनिक विचार और रूपकात्मक शैली के लिए अति प्रसिद्ध है।
- (२) नासदीय सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 129वें सूक्त को 'नासदीय सूक्त या 'भाववृत्तम सूक्त' कहते हैं। इसमें सृषिट की उत्पत्ति की पूर्व अवस्था का चित्रण है और यह खोजने का यत्न किया गया है कि जब कुछ नहीं था तब क्या था। तब न सत था, न असत, न रात्रि थी, न दिन था; बस तमस से घिरा हुआ तमस था। फिर सर्वप्रथम उस एक तत्त्व में 'काम उत्पन्न हुआ और उसका यही संकल्प सृषिट के नाना रूपों में अभिव्यक्त हो गया। पर अन्त में सन्देह किया गया है कि वह परम व्योम में बैठने वाला एक अध्यक्ष भी इस सबको जानता है या नहीं। अथवा यदि जानता है तो वही जानता है और दूसरा कौन जानेगा?
- (३) हिरण्यगर्भ सूक्त - इस संहिता के दशम मण्डल के 121वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त' कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है। नौ मन्त्रों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्र में 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' कहकर यह बात दोहराई गयी है कि ऐसे महनीय हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराधना करेंं? हमारे लिए तो यह 'क' संज्ञक प्रजापति ही सर्वाधिक पूजनीय है। इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का नियामक और धर्ता है।
- (४) संज्ञान सूक्त - ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 191वें संख्यक सूक्त को संज्ञान सूक्त कहते हैं। इसमें कुल 8 मन्त्र हैं, पर ऋग्वेद का यह अनितम मन्त्र अपने उदात्त विचारों और सांमनस्य के सन्देश के कारण मानवीय समानता का आदर्श माना जाता है। हम मिलकर चले, मिलकर बोलें, हमारे हृदयों में समानता और एकता हो-यह कामना किसी भी समाज या संगठन के लिए एकता का सूत्र है।
- (५) अक्ष सूक्त - ऋग्वेद के दशम मण्डल के 34वें सूक्त को 'अक्ष सूक्त' कहते हैं। यह एक लौकिक सूक्त है। इसमें कुल 14 मन्त्र हैं। अक्ष क्रीड़ा की निन्दा करना और परिश्रम का उपदेश देना- इस सूक्त का सार है। एक निराश जुआरी की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण इसमें दिया गया है जो घर और पत्नी की दुर्दशा को समझकर भी जुए के वशीभूत होकर अपने को उसके आकर्षण से रोक नहीं पाता है और फिर सबका अपमान सहता है और अपना सर्वनाश कर लेता है। अन्त में, सविता देवता से उसे नित्य परिश्रम करने और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
- (६) विवाह सूक्त - ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 85वें सूक्त को विवाहसूक्त नाम से जाना जाता है। अथर्ववेद में भी विवाह के दो सूक्त हैं। इस सूक्त में सूर्य की पुत्री 'सूर्या तथा सोम के विवाह का वर्णन है। अशिवनी कुमार इस विवाह में सहयोगी का कार्य करते हैं। यहां स्त्री के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है। उसे सास-ससुर की सेवा करने का उपदेश दिया गया है। परिवार का हित करना उसका कर्तव्य है। साथ ही स्त्री को गृहस्वामिनी, गृहपत्नी और 'साम्राज्ञी' कहा गया है। अतः स्त्री को परिवार में आदरणीय बताया गया है।
- (७) कुछ मुख्य आख्यानसूक्त - ऋग्वेदसंहिता में कैई सूक्तों में कथा जैसी शैली मिलती है और उपदेश या रोचकता उसका उद्देश्य प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख सूक्त जिनमें आख्यान की प्रतीति होती है इस प्रकार हैं- श्वावाश्र सूक्त (5-61), मण्डूक सूक्त (7-103), इन्द्रवृत्र सूक्त (1-80, 2-12), विष्णु का त्रिविक्रम (1-154); सोम सूर्या विवाह (10-85)। वैदिक आख्यानों के गूढ़ार्थ की व्याख्या विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से की जाती है।
- (८) कुछ मुख्य संवादसूक्त - वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अधिक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मध्य वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है, प्राय: संवादसूक्त कहलाते हैं। कुछ प्रमुख संवाद सूक्त इस प्रकार हैं-
- पुरूरवा-उर्वशी-संवाद ऋ. 10/95
- यम-यमी-संवाद ऋ. 10/10
- सरमा-पणि-संवाद ऋ. 10/108
- विश्वामित्र-नदी-संवाद ऋ. 3/33
- वशिष्ठ-सुदास-संवाद ऋ. 7/83
- अगस्त्य-लोपामुद्रा-संवाद ऋ. 1/179
- इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि-संवाद कं. 10/86
संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्र व्यक्ति मानना सम्भव नहीं है। इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विधाओं की उत्पत्ति हुई है। इसके अतिरिक्त, आप्रीसूक्त, दानस्तुतिसूक्त, आदि कुछ दूसरे सूक्त भी अपनी शैली और विषय के कारण पृथक रूप से उलिलखित किये जाते हैं।
इस प्रकार ऋग्वेद की संहिता वैदिक देवताओं की स्तुतियों के अतिरिक्त दर्शन, लौकिक ज्ञान, पर्यावरण, विज्ञान, कथनोपकथन आदि अवान्तर विषयों पर भी प्रकाश डालने वाला प्राचीनतम आर्ष ग्रन्थ है। धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और दार्शनिक दृष्टि से अत्यन्त सारगर्भित सामग्री को प्रस्तुत करने के साथ-साथ यह साहितियक और काव्य-शास्त्रीय दृषिट से भी विशिष्ट तथ्यों को उपस्थापित करने वाला महनीय ग्रन्थरत्न है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Jamison, Stephanie W.; Brereton, Joel P. (2014), The Rigveda: The Earliest Religious Poetry of India, Oxford University Press.
- ↑ Witzel, Michael (1995), “The Development of the Vedic Canon and its Schools: The Social and Political Milieu”, in: Inside the Texts, Beyond the Texts, Harvard University.
- ↑ Encyclopaedia Britannica, s.v. “Rigveda”.
- ↑ Allen, James P. (2015), The Ancient Egyptian Pyramid Texts, SBL Press.
- ↑ Alster, Bendt (2005), Wisdom of Ancient Sumer, Eisenbrauns — अध्याय “The Instructions of Šuruppag”.
- ↑ Jamison & Brereton 2014; Macdonell, A.A. & Keith, A.B. (1912), Vedic Index of Names and Subjects, London.
- ↑ Witzel 1995.
ग्रन्थसूची (चयन)
[संपादित करें]- Jamison, S.W.; Brereton, J.P. (2014). The Rigveda: The Earliest Religious Poetry of India. Oxford University Press.
- Witzel, Michael (1995). “The Development of the Vedic Canon and its Schools…”, in: Inside the Texts, Beyond the Texts. Harvard University.
- Allen, James P. (2015). The Ancient Egyptian Pyramid Texts. SBL Press.
- Alster, Bendt (2005). Wisdom of Ancient Sumer. Eisenbrauns.
- Macdonell, A.A.; Keith, A.B. (1912). Vedic Index of Names and Subjects. London.
- Encyclopaedia Britannica: “Rigveda”.
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- ऋग्वेद संहिता (संस्कृत विकिस्रोत)
- ऋग्वेद: English translation
- ऋग्वेद: मूलग्रन्थ: ITRANS encoding