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उमाबाई दाभाड़े

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उमाबाई दाभाड़े (1728-52 A.D.) खण्डेराव दाभाड़े की पत्नी थीं। वे एक वीरांगना एवं साहसी महिला थीं।

उमाबाई अभोने के ठोके सरदार परिवार की थीं। पिता का नाम अंभोरकर ठोके था। विवाह गुजरात के खंडेराव दाभाड़े के साथ हुआ था। खंडेराव दाभाड़े सार के प्रसिद्ध सरदारों में से थे। इनकी अनुपम सेवाओं से प्रसन्न हो साहू ने इन्हें १७१७ ई. में सेनापति का पद दिया। इस अवसर पर उमाबाई को वहजे और कुर्ला के ग्राम उपहार में मिले। उमाबाई के तीन पुत्र थे। त्रिंबकराव बाबूराव तथा यशवन्तराव। त्रिंबकराव दाभाड़े को साहू ने १७१७ ई. में सेना खास खेल का पद दिया। उमाबाई वीर और साहसी थीं। अपने पति खंडेराव के कार्यों में हाथ बटाया करती थीं। राजाराम और फिर ताराबाई ने विभिन्न प्रांत सरदारों में बाँट दिए थे। खंडेराव दाभाड़े को गुजरात का प्रांत प्राप्त हुआ था। जब खंडेराव दाभाड़े की मृत्यु २८ नवम्बर १७२९ कों हो गई, तब उमाबाई का अत्यधिक दु:ख हुअ। उनके पुत्र त्रिंबकराव को सेनापति का पद ८ जनवरी १७३० ई. को दिया गया। वे योद्धा थे पर अनुभवहीन थे अत: बहुत से मामलों में उमाबाई को ही आगे बढ़ना पड़ा। ऐसे दुख्द वातावरण में चिमाजी अप्पा अपनी सेना ले गुजरात में प्रविष्ट हुए। वहाँ के राजप्रतिनिधि (Governor) सर बुलंद खान से गुजरात से कर वसूल करने का अधिकार प्राप्त करना चाहा। इसी समय होल्कर, सिंधिया और आनंदराव पवार गुजरात के विभिन्न स्थानों में लूटपाट मचा रहे थे। उमाबाई चिंतित हुई।

उमाबाई तथा त्रिंबकराव दामाड़े ने साहू को मराठा सरदारों के आक्रमण के विषय में लिखा किंतु कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं प्राप्त हुआ। उन्होंने अपनी रक्षा के लिए ऐसे सरदारों को एकत्र किया जो बाजीराव से असंतुष्ट थे। उन्हें निजामुलमुल्क और संभाजी (कोल्हापुर) से भी सहायता का आश्वासन मिला। बाजीराव भी जानते थे कि एक न एक दिन दाभाड़े से उन्हें युद्ध करना पड़ेगा। उन्होंने भी अपने सरदारों को एकत्र किया। उमाबाई के संबंधी भाऊसिंह और दलपतराव ठोंके को भी अपनी ओर कर लिया। उमाबाई अत्यंत क्रोधित हुईं। १७३१ में ५०,००० सेना सहित त्रिंबकराव दाभाड़े डभोई की ओर बढ़े। बाजीराव की सेना भी आगे बढ़ी। साहू सेनापति और पेशवा के बीच शत्रुता नहीं चाहते थे। उन्होंने तुरंत चिमाजी अप्पा के चौथ वसूल करने के अधिकार को रद्द कर दिया पर पेशवा ने यह समाचार उमाबाई को नहीं दिया। उमाबाई दाभोड़े की सेना और पेशवा की सेना में १ अप्रैल १७३१ ई को डभोई के मैदान में घमासान युद्ध हुआ जिसमें त्रिंबकराव दाभाड़े की मृत्यु हो गई। विजयी होने पर भी बाजीराव रणक्षेत्र छोड़ भागे। दाभाड़े भाइयों ने उनका पीछा किया। बाजीराव साहू के पास पहुँचे और प्राणदान माँगा। साहू की मध्यस्थता से दाभाड़े भाई लौटे परंतु बाजीराव को चेतावनी दी कि वे अपने भाई की मृत्यु का बदला अवश्य लेंगे।

त्रिंबकराव की मृत्यु से उमाबाई दु:खित हुई और अपने पुत्र यशवंतराव के साथ सतारा आईं। साहू ने एक तलवार उमाबाई को दी। बाजीराव को उपस्थित किया। उमाबाई से अपने पुत्र की मृत्यु का बदला लेने के लिए कहा। बाजीराव ने उमाबाई से किसी भी मूल्य पर प्राणदान की भिक्षा माँगी। उमाबाई ने क्षमा तो किया परंतु बाजीराव को शांति से नहीं बैठने दिया।

उमाबाई के पुत्र यशवंतराव दाभाड़े को सेनापति का पद प्राप्त हुआ। साहू ने गुजरात और मालवा की सीमा निर्धारित की। 'कर' वसूल करने का अधिकार दाभाड़े को दिया और उसे सीधे राजकोष में भेजने का आदेश दिया।

उमाबाई ने राजकोष में पूरा पैसा नहीं भेजा। पेशवा ने अपने कुछ सरदारों को 'कर' वसूल करने को नियुक्त किया। उमाबाई ने स्वयं कर वसूल करना आरंभ किया। यहाँ तक कि मोगलाई प्रांत से भी वह 'कर' लेना नहीं छोड़ती थीं। इसी बीच उनके सेनापति पीलाजी गायकबाड़ की हत्या १७३२ ई. में कर दी गई। उसका बदला लेने का वह, उनके पुत्र दमाजी गायकवाड़ और यशवंतराव दाभाड़े तथा सैनिकों सहित अहमदाबाद की ओर बढ़ीं और उसे रौंद डाला। अंत में जब अभयसिंह ने दाभाड़े का 'चौथ' तथा 'सरदेशमुखी' वसूल करने का अधिकार स्वीकार किया तब वे लौटीं।

उमाबाई के पुत्र और सेनापति दमाजी गायकवाड़ साहू को 'पैसा' भेजने के पक्ष में न थे। उमाबाई चाहती थीं कि राजकोष अवश्य भेजा जाए। उन्होंने कौशलपूर्वक अपने पुत्र बाबूराव को उचित मार्ग दर्शाया और किसी भी प्रकार 'पैसा' प्राप्त कर सतारा भेजा।

बाजीराव की मृत्यु के पश्चात् उमाबाई का क्रोध शांत हुआ। उनके पुत्र बालाजी के प्रति उनका व्यवहार ठीक था पर जब बालाजी ने साहू की मृत्यु के पश्चात् गुजरात से 'कर' माँगा, उमाबाई ने उसका विरोध किया और अपने प्रतिनिधि (Agent) यादव महादेव निर्गुडे को पेशवा के पास भेजा। पेशवा अपनी बात पर अटल थे। उमाबाई स्वयं सतारा आई और पेशवाको समझाने का प्रयत्न किया। बालाजी ने अपना हठ न छोड़ा।

उमाबाई को इसी बीच ताराबाई का सहारा मिला। ताराबाई ने पेशवा से युद्ध करने की तैयारी कर ली थी। उमाबाई भी उसमें सम्मिलित हो गईं। उनकी फौज द्रुत गति से पूना और सतारा की ओर बढ़ी। पेशवा की सेना अचानक उमाबाई की सेना पर टूट पड़ी। इस अप्रत्याशित हमले को गुजरात की सेना न रोक सकी। १६ मई १५५१ ई. को उमाबाई बंदी के रूप में पूना के होल्करवाड़ा में रखी गई। पेशवा ने पुरानी शर्तों को दोहराया। दमाजी गायकवाड़ ने पेशवा की शर्तों को मान लिया। पेशवा ने इतना धन देना स्वीकार किया जिससे दाभाड़े परिवार सम्मानपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके।

उमाबाई और अन्य साथी मुक्त हुए और गुजरात लौटे। तत्पश्चात् उमाबाई जीवन से उदासीन हो गईं। दाभाड़े परिवार को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा पर उन्होंने पेशवा से कभी इसकी शिकायत नहीं की। १७५३ ई में उमाबाई की मृत्यु हो गई।