उपेन्द्र भंज
ओड़िया साहित्य के महान् कवि उपेंद्र भंज सन् 1665 ई. से 1725 ई. तक जीवित रहे। उन्हें 'कवि सम्राट' कहा जाता है। उनके पिता का नाम नीलकंठ और दादा का नाम भंज था। दो साल राज्य करने के बाद नीलकंठ अपने भाई घनभंज के द्वारा राज्य से निकाल दिए गए। नीलकंठ के जीवन का अंतिम भाग नयागढ़ में व्यतीत हुआ था। उपेंद्र भंज के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने नयागढ़ के निवासकाल में 'ओड्गाँव' के मंदिर में विराजित देवता श्रीरघुनाथ को 'रामतारक' मंत्रों से प्रसन्न किया था और उनके ही प्रसाद से उन्होंने कवित्वशक्ति प्राप्त की थी। संस्कृत भाषा में न्याय, वेदांत, दर्शन, साहित्य तथा राजनीति आदि सीखने के साथ ही उन्होंने व्याकरण और अलंकारशास्त्र का गंभीर अध्ययन किया था। नयागढ़ के राजा लड़केश्वर मांधाता ने उन्हें 'वीरवर' उपाधि से भूषित किया था। पहले उन्होंने बाणपुर के राजा की कन्या के साथ विवाह किया था, किंतु थोड़े ही दिनों बाद उनके मर जाने के कारण नयागढ़ के राजा की बहन को उन्होंने पत्नी रूप में ग्रहण किया। उनका दांपत्य जीवन पूर्ण रूप से अशांत रहा। उनके जीवनकाल में ही द्वितीय पत्नी की भी मृत्यु हो गई। कवि स्वयं 40 वर्ष की आयु में नि:संतान अवस्था में मरे।
रचना कार्य
[संपादित करें]उपेंद्र भंज रीतियुग के कवि हैं। वे लगभग पचास काव्यग्रंथों के निर्माता हैं। इनमें से 20 ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। उनके लिखित काव्यों में लावण्यवती, कोटिब्रह्माडसंदुरी और वैदेहीशविलास सुप्रसिद्ध हैं। उड़िया साहित्य में रामचंद्र छोटराय से लेकर यदुमाणि तक 200 वर्ष पर्यंत जिस रीतियुग का प्राधान्य रहा उपेंद्र भंज उसी के सर्वाग्रगण्य कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाओं में महाकाव्य, पौराणिक तथा काल्पनिक काव्य, संगीत, अलंकार और चित्रकाव्य अंतर्भुक्त हैं। उनके काव्यों में वर्णित विवाहोत्सव, रणसज्जा, मंत्रणा तथा विभिन्न त्यौहारों की विधियाँ आदि उत्कल की बहुत सी विशेषताएँ मालूम पड़ती हैं। उनकी रचनाशैली नैषध की सी है जिसमें उपमा, रूपकादि अलंकारों का प्राधान्य है। अक्षरनियम और शब्दपांडित्य से उनकी रचना दुर्बोध लगती है। उनके काव्यों में नारी-रूप-वर्णन में बहुत सी जगहों पर अश्लीलता दिखाई पड़ती है। परंतु वह उस समय प्रचलित विधि के अनुसार है। उस समय के काव्यों में श्रृंगार का ही प्राचुर्य रहता था।
दीनकृष्ण, भूपति पंडित और लोकनाथ विद्याधर आदि विशिष्ट कविगण उपेंद्र के समकालीन थे। उन सब कवियों ने राजा दिव्यसिंह के काल में ख्याति प्राप्त की थी। उपेंद्र के परवर्ती जिन कवियों ने उनकी रचनाशैली का अनुसरण किया उनमें अभिमन्यु, कविसूर्य बलदेव और यदुमणि प्रभृति माने जाते हैं। आधुनिक कवि राधानाथ और गंगाधर ने भी बहुत हद तक उनकी वर्णनशैली अपनाई।
उड़िया साहित्य में उपेंद्र एक प्रमुख संस्कारक थे। संस्कृतज्ञ पंडितों के साथ प्रतियोगिता में उतरकर उन्होंने बहुत से आलंकारिक काव्यों की भी रचना की। धर्म और साहित्य के बीच एक सीमा निर्धारित करके उन्होंने धर्म से सदैव साहित्य को अलग रखा। उनकी रचनाओं में ऐसे बहुत से देवताओं का वर्णन मिलता है पर प्रभु जगन्नाथ का सबसे विशेष स्थान है। वैदेहीशविलास उनका सबसे बड़ा काव्य है जिसमें प्रत्येक पंक्ति का प्रथम अक्षर 'व' ही है। इसी प्रकार 'सुभद्रा परिणय' और 'कला कउतुक' काव्यों की प्रत्येक पंक्ति यथाक्रम 'स' और 'क' से प्रारंभ हुई है। उनके रसपंचक काव्य में साहित्यिक रस, दोष और गुणों का विवेचन किया गया है। अवनारसतरंग एक ऐसा काव्य है जिसमें किसी भी स्थान पर मात्रा का प्रयोग नहीं हुआ है। शब्दप्रयोग के इस चमत्कार के अतिरिक्त उनकी इस रचना में और कोई मौलिकता नहीं है। उनके काव्यों में वर्णन की एकरूपता का प्राधान्य है। पात्र पात्रियों का जन्म, शास्त्राध्ययन, यौवनागम, प्रेम, मिलन और विरह सभी काव्यों में प्राय: एक से हैं। उनके कल्पनाप्रधान काव्यों में वैदेहीशविलास सर्वश्रेष्ठ है :
उन्होंने 'चौपदीभूषण', 'चौपदीचंद्र', प्रभृत्ति कई संगीतग्रंथ भी लिखे हैं, जो उड़ीसा प्रांत में बड़े जनप्रिय हैं। उनकी संगीत पुस्तकों में आदिरस और अलंकारों का प्राचुर्य हैं। कवि की कई पुस्तकें मद्रास, आंध्र, उत्कल और कलकत्ता विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में गृहीत हैं। वैदेहीशविलास, कोटिब्रह्मांडसुंदरी, लावण्यवती, प्रेमसुधानिधि, अवनारसतरंग, कला कउतुक, गीताभिधान, छंतमंजरी, बजारबोली, बजारबोली, चउपदी हारावली, छांद भूषण, रसपंचक, रामलीलामृत, चौपदीचंद्र, सुभद्रापरिणय, चित्रकाव्य बंधोदय, दशपोइ, यमकराज चउतिशा और पंचशायक प्रभृति उनकी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।