आचार्य जीतमल

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आचार्य जीतमल जी

आचार्य जीतमलजी ( श्रीमद जयाचार्य)
नाम (आधिकारिक) आचार्य जीतमल जी
व्यक्तिगत जानकारी
जन्म नाम जीतमल
जन्म वि.सं. १८६० की आश्विन शुक्ला १४ , 29th September 1803
रोयट,जोधपुर डिविजन (मारवाड़) , राजस्थान, भारत
निर्वाण सं. १९३८ भाद्रपद कृष्ण द्वादशी
जयपुर ,राजस्थान
माता-पिता आईदानजी और कल्लूजी
शुरूआत
नव सम्बोधन जयाचार्य
दीक्षा के बाद
पद आचार्य
पूर्ववर्ती आचार्य रायचंद जी
परवर्ती आचार्य मघराज जी

[1]

आचार्य जीतमलजी (जयाचार्य) तेरापंथ धर्म-संघ के प्रतिभाशाली आचार्य थे। उनका जन्म जोधपुर डिविजन (मारवाड़) के रोयट गांव में वि.सं. १८६० की आश्विन शुक्ला १४ को हुआ था। उनके पिता का नाम आईदानजी तथा माता का नाम कल्लूजी था। वे ओसवाल जाति में गोलछा गोत्र के थे। इनके दो बड़े भाई थे - सरूपचन्दजी और भीमराजजी। आचार्य भिक्षु एक बार रोयट पधारे थे तब से आईदानजी स्वामीजी के प्रति श्रद्धालु बन गए थे। वि.सं. १८४४ में जयाचार्य की बुआ अजबूजी ने स्वामीजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली थी। स्वामीजी ने योग्यता देखकर कालांतर में उनका सिंघाड़ा कर दिया था।

एक बार साध्वी अजबूजी विहार करती हुई रोयट गांव पहुंची।उनका व्याख्यान प्रभावशाली होता था। अनेक लोग उनके व्याख्यान सुनने आया करते थे। कल्लूजी भी दर्शन करने आई। साध्वीजी ने कल्लू जी से कहा - तुम व्याख्यान क्यों नहीं सुनती ?' कल्लू जी ने कहा "महाराज ! जीतमल बहुत बीमार है। हम लोग उसके जीने की आशा छोड़ चुके हैं। निरन्तर आर्तध्यान रहता है। किसी काम में मन नहीं लगता। साध्वीजी बालक जीतमल को दर्शन देने गई। मंगल पाठ सुनाया और कहा - "चिंता छोड़ो, मेरी एक बात सुनो। यदि बालक रोग-मुक्त होकर मुनि-दीक्षा ले तो तुम इसे रोकोगी नहीं यह संकल्प लो।" कल्लू जी ने कहा "महाराज ! इसके जीने की आशा क्षीण हो रही है और आप दीक्षा की बात कर रहे हैं।" अजबूजी ने कहा "जीतमल जीवित रहे, तभी तुम्हारे संकल्प का उपयोग होगा।" कल्लू जी ने वचन शिरोधार्य किया और संकल्प की घोषणा कर दी। संकल्प का चमत्कार हुआ । धीरे-धीरे बालक स्वस्थ होने लगा। लोगों ने कहा यह संतों के भाग्य से जिया है।[2]

अध्यात्म के अंकुर[संपादित करें]

जीतमल सात-आठ वर्ष की अवस्था में ही बुद्धिमान प्रतीत होता था। वह सबको बहुत प्रिय था। उसे धर्म बहुत अच्छा लगता था। उसकी प्रबल धार्मिक रुचि देख लोग पूछते “तू साधु बनेगा ?" जीतमल कहता - "जरूर बनूंगा।" साधु कहते - "तू अभी छोटा है साधु नहीं बन सकता।" गांव में जब कभी साधु आते तो बालक पूछ बैठता - “अब मैं साधु बन सकता हूं या नहीं ?" साधु बनने की अज्ञात प्रेरणा, मात्र भावना में नहीं आचरण में भी उतर आई । एक दिन कपड़े की झोली में कटोरी रख बालक जीतमल अपने चाचा के घर गया। उसने कहा - "मैं साधु बन गया हूं। मुझे शुद्ध आहार की भिक्षा दो ।'" चाचा का परिवार इस बाल-लीला को देखकर आश्चर्यचकित हो गया।[2]

दीक्षा[संपादित करें]

आचार्य भारमल जी जयपुर विराज रहे थे। उस समय जयाचार्य की माता कल्लू जी अपने तीनों पुत्रों को लेकर सेवा में उपस्थित हुई। सारा परिवार आचार्य भारमल जी के चरणों में हमेशा के लिए समर्पित होने को उत्सुक था। सबसे पहले बड़े भाई सरूपचंद जी ने दीक्षा का निवेदन किया। भारमल जी स्वामी ने योग्य समझ उन्हें दीक्षित कर लिया। बड़े भाई की दीक्षा देख बालक जीतमल का मन छटपटाने लगा। अवस्था छोटी, वैराग्य बड़ा। आचार्य श्री ने वैराग्य का महत्त्व दिया और माघ कृष्ण सप्तमी का दिन दीक्षा के लिए निश्चित कर दिया। बालक जीतमल को दीक्षा देने आचार्य श्री स्वयं न जाकरं ऋषिराय जी को भेजा। ऋषिराय उस समय २२ वर्ष के मुनि थे। भारमल जी स्वामी ने कहा मेरे पीछे भार संभालने के लिए तू है, तुझे भार संभालने वाला चाहिए, अत: तू ही जा।' वि.सं. १९६९ माघ कृष्णा ७ को ऋषिराय के हाथों बालक जीतमल का दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ। उसके एक महीने बाद उनकी माता कल्लू जी व बड़े भाई भीमराज जी ने भी भारमल जी स्वामी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। पूरा परिवार दीक्षित हो गया।[2]

विद्या गुरु[संपादित करें]

भारमल जी स्वामी ने मुनि जीतमल को विद्याभ्यास के लिए मुनि हेमराजजी को सौंप दिया। भारमल जी स्वामी जैसे समर्थ आचार्य, ऋषिराय जैसे दीक्षा गुरु और हेमराज जी स्वामी जैसे विद्या गुरु को पाकर वे अपने-आपको धन्य अनुभव करने लगे। मुनि जीतमल ने विद्याभ्यास के साथ तप और जप का भी अभ्यास किया। एक बार १५ वर्ष की अवस्था में उन्होंने पाली के चतुर्मास में। बयालीस उपवास किए थे। मुनि जीतमल अध्ययन की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ रहे थे। हेमराज जी स्वामी के साथ वे १२ वर्ष तक रहे। बारह वर्ष में प्रवचन कला, तत्वचर्चा, आगमों के सूक्ष्म रहस्य सभी विषयों पर वे प्रभूत्व स्थापित कर चुके थे।[2]

गुरुभक्ति[संपादित करें]

सं. १८८४ की घटना है। ऋषिराय जी मध्य-भारत की यात्रा कर रहे थे। मुनि जीतमल उनके साथ थे। वे झाबुआ के जंगल में से गुजर रहे थे। वह झाड़-झंकाड़ से भरा भयावना प्रदेश‌ था। कहा जाता है -

झाड़ी बंको झाबुओ,वचन बंको कुशलेश।
 हाड़ा गामड़ बांकड़ा,सबको मरुधर देश ।।

चलते-चलते देखा, एक भयावह आकृति आ रही थी। निकट आने पर देखा, सामने से रींछ आ रहा है। मुनि जीतमल तत्काल ऋषिराय के आगे आकर खड़े हो गए।

ऋषिराय ने कहा "हम चल ही रहे हैं, तुम आगे क्यों आये? पीछे चलो।" मुनि जीतमल ने कहा - "यह नहीं हो सकता । आप संघ के आचार्य हैं। आपके शरीर की सुरक्षा करना हमारा धर्म है।" न ऋषिराय भयभीत थे और न मुनि जीतमल । दोनों अभय । अभय की रश्मियां चारों ओर फैली। रींछ का हृदय भी उससे अभिभूत हुआ,वह रास्ते को पार कर जंगल में चला गया।[2]

संस्कारी कवि[संपादित करें]

आप संस्कारी कवि थे। काव्य-प्रतिभा आपकी जन्मजात सहचरी थी। ऐसी प्रतिभा को विरला ही व्यक्ति पा सकता है। आप ११ वर्ष की अवस्था में ही कविता करने लग गए थे। १९ वर्ष की अवस्था में तो आपने जैनागम प्रज्ञापना सूत्र का संक्षिप्त पद्यानुवाद कर दिया था। आपने भगवती सूत्र, जो वर्तमान आगमों में सबसे बड़ा आगम है कि, पद्यमय टीका की। उसकी ८० हजार गाथाएं हैं आपकी समस्त रचनाओं का परिणाम साढ़े तीन लाख गाथाएं हैं। राजस्थानी साहित्यकारों में आपका प्रमुख स्थान है।[2]

एकाग्रता[संपादित करें]

आपकी चित्तवृत्ति बड़ी एकाग्र थी। कार्य में संलग्न होने के पश्चात् आस-पास का वातावरण आपके लिए बाधक नहीं बनता था। हेमराज जी स्वामी एक बार पाली पधारे। वे बाजार की दुकानों पर ठहरे। जीतमल मुनि भी उनके साथ थे। उन्हीं दिनों वहां नट मंडली आई हुई थी। बाजार में बांस रोपकर अपना खेल प्रारंभ किया। शहर के आबाल-वृद्ध उसे देखने जमा हो गए। मुनि जीतमल चौबारे में लिखना कर रहे थे। उधर उनके बिलकुल सामने नाटक प्रारंभ हुआ, इधर उनका लेखन-कार्य चलता रहा। नाटक की ओर उन्होंने आंख उठाकर भी नहीं देखा। एक व्यक्ति ने जो तेरापंथ का द्वेषी था बालक साधु को देखा तो सोचा, यदि एक बार भी वह साधु नाटक की ओर देख ले तो इसकी निंदा करने का थोड़ा मसाला मिल जाए। उसने अंत तक ध्यान रख, पर असफल। नाटक समाप्त हुआ। उस व्यक्ति ने कहा - "जिस संस्था का एक बाल-साधु भी इतना एकाग्रचित्त और दृढ़ है उसकी जड़ कोई नहीं खोद सकता।इसलिए मैं कहता हूं कि तेरापंथ की जड़ को आगामी सौ वर्षों तक तो कोई हिला नहीं सकता।"[2]

स्वाध्याय-प्रेमी[संपादित करें]

आपने अपने जीवन का बहुत-सा भाग स्वाध्याय में बिताया।अंतिम वर्षों में तो आप एक दिन में पांच-पांच हजार गाथाओं का स्वाध्याय किया करते थे। योगाभ्यास, ध्यान और एकान्तचिंतन आपके जीवन की प्रमुख प्रवृत्तियां थी। मुनि मघराज जी को उत्तराधिकार देने के बाद आप प्रायः स्वाध्याय में ही संलग्न रहते थे। कोई व्यक्ति आपकी सेवा करने जाता तब आप कहते - मघजी के दर्शन किए या नहीं ? उनकी सेवा करो । इस प्रकार आप अपना जीवन स्वाध्याय-पूर्ण बिताते ।[2]

महान आचार्य[संपादित करें]

वि.सं. १८९४ में आप युवाचार्य बने। आप पन्द्रह वर्ष तक युवाचार्य रहे। अपने स्वतंत्र विचार कर अनेक जनपदों को प्रतिबद्ध किया। भली प्रदेश में उनकी प्रेरणा से धर्म की व्यापक चेतना जागृत हुई। वि.सं. १९०८ बीदासर में आपने आचार्य पद को सुशोभित किया। आप तेरापंथ के भाग्य-विधाता थे। इस संघ को समृद्ध और संगठित रखने के लिए आपने अनेक नई मर्यादाएं बांधीं। तेरापंथ संघ को तीन महोत्सवों - चरमोत्सव, पाटमहोत्सव तथा मर्यादा-महोत्सव की देन आपके मस्तिष्क की ही उपज है। आपने तेरापंथ शासन संचालन की जो व्यवस्था की वह एक स्वतंत्र ग्रंथ का विषय है। आपकी बहुमुखी प्रतिभा ओर विशाल जीवन हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेंगे।[2]

महाप्रयाण[संपादित करें]

श्रीमद जयाचार्य समाधि स्थल,जयपुर

सं. १९३८ भाद्रपद कृष्ण द्वादशी जयपुर में आपको महाप्रयाण हुआ।[3]आपके शासनकाल में तीन सौ तीस दीक्षाएं हई । उनमें सन्तों की १०४ व साध्वियों की २२६ दीक्षाएं हुई। आपके दिवंगत होने के समय ७१ साधु और २५० साध्वियां संघ में विद्यमान थे । [2]

बाहरी कड़ियां[संपादित करें]

  1. "आचार्य श्री जीतमल जी". मूल से 9 अप्रैल 2016 को पुरालेखित.
  2. भाग २. जैन विद्या. जैन विश्व भारती प्रकाशन. पपृ॰ ४५, ४६, ४७, ४८, ४९, ५०. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7195-309-3.
  3. "Shrimad Jayacharya Samadhi". Shrimad Jayacharya Samadhi (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2019-06-11.