अमरूशतकम्

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नायक की प्रतीक्षा में नायिका (अमरूकशतक परा आधारित सत्रहवीं सदी के आरम्भिक काल की पेंटिंग)

अमरूशतकम् संस्कृत का एक गीतिकाव्य है। इसके रचयिता अमरु या अमरूक हैं। इसका रचना काल नवीं शती माना जाता है। इसमें १०० श्लोक हैं जो अत्यन्त शृंगारपूर्ण एवं मनोरम हैं।

परिचय[संपादित करें]

नाम से यह शतक है, परंतु इसके पद्यों की संख्या एक सौ से कहीं अधिक है। सूक्तिसंग्रहों में अमरूक के नाम से निर्दिष्ट पद्यों को मिलाकर समस्त श्लोकों की संख्या 163 है। इस शतक की प्रसिद्धि का कुछ परिचय इसकी विपुल टीकाओं से लग सकता है। इसके ऊपर दस व्याख्याओं की रचना विभिन्न शताब्दियों में की गई जिनमें अर्जुन वर्मदेव (13वीं सदी का पूर्वार्ध) की 'रसिक संजीवनी' अपनी विद्वत्ता तथा मार्मिकता के लिए प्रसिद्ध है। आनंदवर्धन की सम्मति में अमरूक के मुक्तक इतने सरस तथा भावपूर्ण हैं कि अल्पकाय होने पर भी वे प्रबंधकाव्य की समता रखते हैं। संस्कृत के आलंकारिकों ने ध्वनिकाव्य के उदाहरण के लिए इसके बहुत से पद्य उद्धृत कर इनकी साहित्यिक सुषमा का परिचय दिया है।

अमरूक शब्दकवि नहीं हैं, प्रत्युत रसकवि हैं जिनका मुख्य लक्ष्य काव्य में रस का प्रचुर उन्मेष है। अमरूशतक के पद्य शृंगार रस से पूर्ण हैं तथा प्रेम के जीते जागते चटकीले चित्र खींचने में विशेष समर्थ हैं। प्रेमी और प्रेमिकाओं की विभिन्न अवस्थाओं में विद्यमान शृंगारी मनोवृत्तियों का अतीव सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इन सरस श्लोकों की प्रधान विशिष्टता है। कहीं पति को परदेश जाने की तैयारी करते देखकर कामिनी की हृदयविह्वलता का चित्र है, तो कहीं पति के आगमन का समाचार सुनकर सुंदरी की हर्ष से छलकती हुई ऑखों और विकसित स्मित का रुचिक चित्रण हैं। हिंदी के महाकवि बिहारी तथा पद्माकर ने अमरूक के अनेक पद्यों का सरस अनुवाद प्रस्तुत किया है।

सन्दर्भ ग्रंथ[संपादित करें]

  • बलदेव उपाध्याय: संस्कृत साहित्य का इतिहास, काशी, पंचम सं. 1958;
  • दासगुप्त तथा दे: हिस्ट्री ऑव क्लैसिकल लिटरेचर, कलकता, 1935।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]