अतिसूक्ष्म रसायन
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अतिसूक्ष्म रसायन (अल्ट्रा-माइक्रोकेमिस्ट्री) उन रासायनिक विधियों को कहते हैं जिनके द्वारा रासायनिक विश्लेषण तथा अन्य क्रियाएँ पदार्थों की अतिसूक्ष्म मात्रा में संपन्न की जा सकती हैं। साधारण रासायनिक विश्लेषण १/१० ग्राम मात्रा पर्याप्त मानी जाती थी, सूक्ष्म रसायन में द्रव के १/१००० ग्राम से काम चल जाता है और अतिसूक्ष्म रसायन का अवलंबन तब करना पड़ता है जब पदार्थ का केवल माइक्रोग्राम (१,१०,००,००० ग्राम) उपलब्ध रहता है।
इतिहास[संपादित करें]
अतिसूक्ष्म रसायन का प्रारंभ सन् १९३० में कोपेनहेगेन की कार्ल्सबुर्ग प्रयोगशाला में हुआ; वहाँ के लिंडरस्ट्रॉम-लैंग तथा सहयोगियों ने इसका उपयोग एनजाइमों, जीव प्रेरकों और पौधों तथा पशुओं से प्राप्त पदार्थों की अति सूक्ष्म मात्रा के विश्लेषण में किया। सन् १९३३ से कैलिफ़ोर्निया में पॉल एल. कर्क ने इन विश्लेषण विधियों को अधिक उन्नत किया और साथ ही साथ उन्होंने अन्य सब प्रकार की भौतिक तथा रासायनिक क्रियाओं का अध्ययन भी अतिसूक्ष्म मात्राओं में आरंभ किया। जीव तथा वनस्पति रसायन के अतिरिक्त तीव्र रेडियो सक्रिय पदार्थों के अध्ययन में ये विधियाँ विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुई हैं। इन रेडियो सक्रिय पदार्थों के अध्ययन में साधारणतया अतिसूक्ष्म मात्राओं का ही उपयोग किया जाता है। इसका कारण इनकी कम मात्रा में उपलब्धि के अतिरिक्त यह भी है कि कम मात्रा से निकलने वाली हानिकारक रेडियो किरणों की तीव्रता कम रहती है, जिससे कार्य संपन्न करने में सुविधा रहती है।
प्रमुख विधियाँ[संपादित करें]
अतिसूक्ष्म रसायन में मुख्यत निम्नलिखित विधियों का उपयोग किया जाता है:
द्रवों की अनुमापन विधि[संपादित करें]
अतिसूक्ष्म रसायन में सर्वप्रथम आयतनों के मापन पर आधारित विधियों का ही उपयोग हुआ। इन क्रियाओं में प्रयुक्त सभी उपकरण, जैसे परीक्षण नलियाँ, बीकर, पिपेट तथा ब्यूरेट, केश नलिकाओं (कपिलरोज़) से ही बनाए जाते हैं और इनकी सहायता से १०-४ से १८-८ लीटर तक के आयतन सुगमता से नापे जा सकते हैं। इन विधियों का सर्वप्रथम उपयोग जीवन रसायन में हुआ। उदाहरणार्थ, प्राय रोगग्रस्त बालकों के रक्त के सूक्ष्म आयतन को नापने, उसमें प्रोटीन पृथक् करके उबालने तथा अकार्बनिक तत्वों को पृथक् करने की समस्त पद्धतियों को अतिसूक्ष्म परिमाण में ही करना होता है।
गैसमितीय विधियाँ[संपादित करें]
इन विधियों का उपयोग अतिसूक्ष्म रसायन में मुख्यत जीवकोषों या सूक्ष्म जीवों की श्वासगति या उससे संबंधित क्रियाओं के अध्ययन में होता है। कर्क और कनिंघम के बाद द्वितीय महायुद्ध के समय शोलेंदर तथा उसके सहयोगियों ने इस विधि को इतना उन्नत किया कि अब गैसीय मिश्रणों के माइक्रोलीटर आयतनों को भी पूर्णतया विश्लेषित करना संभव हो गया है।
भार मापन विधियाँ[संपादित करें]
यद्यपि २०वीं शताब्दी में बहुत अच्छी भार-तुलाओं का निर्माण हुआ है, तथापि १९४२ में कर्क, रोडरिक क्रेग तथा गुलबर्ग नामक वैज्ञानिकों द्वारा क्वार्ट्ज तुला की खोज से इस ओर विशेष प्रगति हुई है। इस नई तुला की सहायता से .००५ माइक्रो ग्राम के अंतर सुगमता से नापे जा सकते हैं।
अन्य विविध विधियाँ[संपादित करें]
अतिन्यून मात्राओं के साथ कार्य करने के लिए अन्य सभी कार्य विधियों में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। उदाहरणार्थ, छानने के स्थान पर अपकेंद्रण (सेंट्रीफ्यूगेशन) विधि का उपयोग किया जाता है। प्राय संपूर्ण रासायनिक क्रिया सूक्ष्मदर्शी के ही नीचे सम्पन्न की जाती है, जिससे सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तन भी देखा जा सके। इन सूक्ष्म मात्राओं के लिए उपयोगी विश्लेषण पद्धतियों में वर्णक्रमीय (स्पेक्ट्रॉस्कोपिक) पद्धतियाँ विशेषतया उल्लेखनीय हैं और आधुनिक रेडियो रसायन की पद्धतियों ने तो विश्लेषण की इस चरम सीमा को सहस्रों गुना सूक्ष्म कर दिया है। आज प्रयोगशाला में संश्लेषित नवीन तत्वों के कुछ इने-गिने परमाणुओं को इनके द्वारा पहचानना ही नहीं वरन् उनके तथा उनके यौगिकों के गुणों का अध्ययन भी इन सूक्ष्म मात्राओं से, चाहे कुल उपलब्ध मात्रा लगभग १०-२० ग्राम ही हो, संभव हो रहा है।