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अण्डमानी लोग

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(अण्डमानी से अनुप्रेषित)

वैसे तो अण्डेमान में बसे हुए लोग भारत के प्रत्येक कोने से सबन्धित हैं और आज वे सब के सब अण्डेमान की अपनी हिन्दी बोली बोलते हैं। जिन लोगों ने अण्डेमान की औपनिवेशिक बस्ती को बसाया है उनमें से कुछ का उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है -

मालाबार के मोपला

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अण्डेमान में लगभग १,१३३ मोपला निष्कासित किए गए। इनमें से २२८ बन्दियों को कृषि कार्य करने के निकट दिए गए थे। ये लोग अपने साथ बीबी बच्चों और अन्य सम्बन्धियों को भी अण्डेमान ले आए और तब इनकी संख्या ४६८ हो गई परन्तु बाद में मोपला लोगों को अपनी बीबियों और सम्बन्धियों को लाने से मना कर दिया गया।

मोपला लोग केरल में कालीकट के समीप मालाबार तट के निवासी हैं। यह क्षेत्र कालीमिर्च के व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र है। नवीं शताब्दी में कुछ मुसलमान सौदागर अरब से आकर मालाबार में रहने लगे और स्थानीय हिन्दू द्रविड़ महिलाओं से विवाह कर लिया। ऐसे दम्पती के वशंज, मोपला कहे जाने लगे। ये लोग हिन्दू राजा को कर अदा करते थे, परन्तु पक्के सुन्नी मुसलमान थे। वे तुर्किस्तान के खलीफा को अपना धर्म गुरु मानते थे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने तुर्किस्तान के सुलतान के पक्ष में "खिलफत का आन्दोलन" छेड़ा तो मोपला भी अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। बड़ी संख्या में मोपला आन्दोलनकारियों ने सरकारी थानों पर धरना देना शुरु कर दिया। वे हिन्दू जमीदारों को कर देते थे और इस आन्दोलन ने कुछ सीमा तक साम्प्रदायिक रूप भी ले लिया। ब्रिटिश सरकार मोपला नेताओं को पकड़ने में असफल रही। प्राय: हजारों मोपला आन्दोलनकारी सरकारी अधिकारिओं के निवास-स्थानों, रेलवे स्टेशनों, डाकखानों, शराब की दुकानों तथा अन्य स्थानों पर हमला करने लगे थे। इस लोगों ने मुहम्मद हाजी को `खिलाफत बादशाह' की उपाधि दे दी। हिन्दुओं को काफिर घोषित करके उनके घरों को लूटा जाने लगा। अनेक हिन्दू-महिला-पुरुषों का जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन कर दिया गया। २५ जुलाई १९२१ को पुलिस और ५००० मोपला आन्दोलनकारियों की भिड़न्त में एक ब्रिटिश फौजी अधिकारी और एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी गई। फौज के दो अधिकारी और कई जवान मारे गए। एक रेलवे स्टेशन में आग लगाकर रेलवे लाइन तोड़ दी गई। आंतक के इस वातावरण को समाप्त करने के लिए गोरखे, गढ़वाली और बर्मी फौजियों को आना पड। अकेले पंडिक्का थाने पर संघर्ष में २१६ मोपला विद्रोही मारे गए और एक अंग्रेज अफसर तथा आठ सिपाही और दो गोरखा अधिकारी तथा २७ अन्य सैनिक मारे गए।

मोहम्मद हाजी और उसके २१ साथियों को पकड़ कर कोर्ट मार्शल के बाद गोली से उड़ा दिया गया। इस संघर्ष में २,२६६ मोपला मारे गए और १,६१५ घायल हुए तथा ५,६८८ को गिरफ्तार कर लिया गया। कुल मिलाकर ३८,२५६ मोपला विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों द्वारा बदले की कार्यवाही में कलकत्ते की कालकोठरी वाली घटना को फिर से दोहराया गया। कासलीकट से मद्रास जाने वाली एक मालगाड़ी के डब्बे में १०० मोपला बन्द कर दिए गए थे। भीषण गर्मी में मद्रास पहुंचने पर जब मालगाड़ी का डब्बा खोला गया तो ६६ मोपला मर चुके थे और शेष की दशा गम्भीर थी।

जिन मोपला आन्दोलनकारियों ने आत्मसमर्पण किया था या जिन्हें गिरफ्तार किया गया उन्हीं में से अनेक कालेपानी का दण्ड पाकर अण्डमान आए थे। आजकल, मन्नारघाट और विम्बर्लीगंज आदि क्षेत्रों में मोपला परिवारों के वंशज रहते हैं। ये लोग मलयालम के साथ-साथ हिन्दी भाषा भी बोलते हैं। एंग्लो-इंडियन—भारतीय केन्द्रीय विधान सभा के एक एंग्लो-इंडियन सदस्य ले। कर्नलन सर हेनरी सिडनी चाहते थे कि भारत सरकार अण्डेमान में एक पृथक एंग्लों इंडियन प्रदेश बनाए। कुछ एंग्लों-इंडियन परिवार अण्डेमान में बसने के इरादे से आए। परन्तु वे शहरी जीवन के आदी थे और अण्डेमान की परिस्थितियाँ उन्हें रास नहीं आई। जार्ज़ डाकर्टी नामक एक एंग्लों-इंडियन ने एक करेन महिला से शादी कर ली और वे मध्य अण्डेमान के वेबी नामक गांव में बस गए। श्री डाकर्टी को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों ने बन्दी बना लिया था।

उत्तर प्रदेश मुरादाबाद और अन्य पश्चिमी जेलों में सुलताना डाकू बहुत कुख्यात था। सुलताना डाकू और उसके अनुयायी भाथू लोग एक अपराधी जनजाति से सम्बन्धित थे। सुलतान डाकू का आंतक मिटाने के लिए उच्च अंग्रेज अधिकारी, पुलिस व फौज की सहायता से सफल हो सके। सुलताना डाकू की पत्नी और उसकी जाति के अनेक लोगों को अण्डेमान में निर्वासित कर दिया गया। ये लोग पोर्ट ब्लेयर के निकट भाथू बस्ती, फरार गंज और कैडलगंज के ग्रामों में आबाद हैं। आजकल इस जाति के अनेक युवक युवतियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करके डॉक्टर और इंजिनियर जैसे पदों पर पदासीन हैं।

बर्मा और भारतवर्ष के सीमा क्षेत्र में करेन जन-जाति के लोग प्राय: उपद्रव मचाया करते थे--ब्रिटिश राज के दिनों में इनमें से अनेक लोगों को अण्डेमान में निर्वासित कर दिया गया। जब बर्मा को स्वतन्त्रता मिली तो इनमें से अनेक लोग अपने देश बर्मा पहुंच गये। मध्य अण्डेमान में माया बन्दर से लगभग ९ किलोमीटर की दूरी पर करेन लोगों की बस्ती है। बेबी नामक इस गांव में करेन लोगों के कई गिरजाघर हैं। गिरजागर में बच्चों के लिये एक ईसाई मिशन द्वारा स्थापित एक विद्यालय भी चलता है। इस बच्चों को करेन बोली के साथ-साथ अंग्रेजी, हिन्दी और धार्मिक शिक्षा का ज्ञान दिया जाता है।

करेन लोग गोरे रंग के होते हैं--इनका मुंह गोल, नाक चपटी और कद नाटा होता है। ये शिकार के शौकीन, मेहनती और बड़े हट्टे-कट्टे होते हैं। स्त्री और पुरुष सभी लुंगी पहनते हैं। यह खुशी की बात है कि करेन लोग अपने पड़ोस की बस्तियों जैसे, लखनऊ, लटाव, रामपुर, दानापुर और पोखाडेरा में रहने वाले बंगालियों और अन्य भाषा-भाषियों के साथ हिन्दी में बातचीत करते हैं। बच्चों को विद्यालय में करेन, हिन्दी और अंग्रेजी के गीत आदि सिखाये जाते हैं।

बर्मी लोग

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पहले बर्मा भी भारत का एक अंग था। भारत के वाइसराय के अधीन एक उपराज्यपाल बर्मा प्रान्त का शासन देखता था। जिन लोगों को आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाता था, उन्हें भी बर्मा से इन द्वीपों में भेज दिया जाता था। शुरू में आजीवन कारावास में भेजे जाने वालों की संख्या कम थी। परन्तु थारवर्दी विद्रोह के बाद ५३५ लोग एक साथ आजीवन कारावास के लिए अण्डेमान भेजे गए और उसी दिन चौबीस फरवरी, उन्नीस सौ पैंतीस को थारवर्दी विद्रोहियों को मृत्यु दण्ड दे दिया गया। सन् १९४२ ई। में जब द्वीपों पर जापानियों ने कब्जा किया तो लगभग पांच हजार बर्मी थे। १९२८ में बर्मी संघ ने डा। सायासेन को अपना महासचिव चुना। डा। सेन ने किसानों की मदद से एक विद्रोही सेना का गठन कर लिया। उन्होंने थारवर्दी के घने वनों में बन्दूकें और गोला बारूद का भण्डार बना लिया। दिसम्बर १९३० ई। में सारे बर्मा के युवकों ने डा। सेन के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। डा। सेन ने एक घोषणा पत्र द्वारा किसानों पर लगे सारे ऋण माफ कर दिए। बौद्ध धर्म को राज्य का धर्म घोषित कर दिया गया। थारवर्दी क्षेत्र में जेलों के फाटक तोड़ कर बन्दियों को मुक्त कर दिया गया। पुलिस कर्मचारियों और ग्रामों के मुखियाओं से हथियार छीन लिए गए। पुल, रेल की लाइनें, टेलीग्राफ और टेलीफोन के तार काट दिये गए।

सात दिन के लिए डॉ॰ सेन के स्वयं-सेवक, थारवर्दी प्रदेश में अंग्रेज कलेक्टर के आत्मसमर्पण के बाद, सत्ता को सम्भाले रहे। सात दिन के बाद अंग्रेजी फौज आ गई और तीन दिन युद्ध के बाद विद्रोह कुचल दिया गया। डा। सेन स्वयं बर्मा के अन्य क्षेत्रों में पहुंच गए और उनके अनुयायियों ने थानों और जेलों पर कब्जा कर लिया। अग्रेज सरकार ने पूरी शक्ति से दमन कार्य प्रारम्भ किया और गांव के गांव तोपों से भस्मीभूत कर दिए गए। ग्रामवासियों पर हर तरह के जुल्म ढाए गए। इस बर्माव्यापी विद्रोह को शान्त करने में चार वर्ष का समय लगा और उसके चार वर्ष बाद एक मित्र द्वारा विश्वासघात किए जाने पर डा। सायासेन को माण्डले वन में बीमारी की हालत में गिरफ्तार किया जा सका।

जो बर्मी क्रान्तिकारी अण्डेमान भेगे गए, वे कारावास की अवधि समाप्त करने के बाद, पोर्टब्लेयर में फोनिक्सेबे के क्षेत्र, सिप्पी घाट, हर्म्फीगंज और बर्मा नाला के आसपास बस गए। पोर्टब्लेयर के लाइट हाऊस सिनेमा के समीप स्थित बौद्ध मन्दिर आज भी अण्डमान के बर्मी लोगों की याद ताजा किए है। वर्ष सन् १९५१ ई। में कुल ३१ हजार जनसंख्या में से १,६०४ बौद्ध लोग थे। सन् १९६१ ई। की जनगणना में कुल ६३,५४८ व्यक्तियों में से १,७०७ बौद्ध धर्मावलम्बी थे परन्तु इसके बाद बर्मी लोग बर्मा लौट गए जिसके परिणामस्वरूप सन् १९७१ ई। की जनगणना में कुल ११५१३३ लोगों में बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या केवल १०३ रह गई थी।

बंगाली शरणार्थी

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कलकत्ता में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का मुख्य कार्यालय था और अण्डेमान में ब्रिटिश अधिकार के समय कलकत्ता बन्दरगाह से प्राय: जलयान भेजे जाते थे। सन् १८५८ ई। और उसके बाद के वर्षों में निर्वासित किए जाने वाले व्यक्ति भी मुख्य रूप से कलकत्ता से ही पोर्टब्लेयर लाए जाते थे। बंगाल के क्रान्तिकारी और अन्य अपराधी प्राय: अण्डेमान में निर्वासित कर दिये जाते थे। परन्तु बंगालियों की संख्या पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित शरणार्थियों को बसाने के कारण धीरे-धीरे बढ़ती गई। सन् १९४९ ई। में पहली बार २०२ बंगाली परिवारों को पोर्टब्लेयर से आठ दस मील के घेरे में बसाया गया। १९५० ई। में ११९ बंगाली परिवार और सन् १९५१ में ७८ बंगाली परिवार बसाए गए। बाद में हर साल नए परिवार आते गए और दूर-दूर के इलाकों में फैलते गए। दक्षिण अण्डेमान के दूरवर्ती प्रदेशों के बाद उनको लांग आइलैण्ड, लिटिल अण्डेमान, ओरलकच्चा, मध्य अण्डेमान और उत्तरी अण्डेमान में बसाया गया। इन बंगाली शरणार्थियों को द्वतीय पंचवर्षीय योजना के अन्त तक दक्षिणी अण्डेमान में (५६५ परिवार), मध्य अण्डेमान में (९३१ परिवार) और उत्तरी अण्डेमान में (११४८ परिवार) बसाया गया। ३३९ शरणार्थी परिवार मध्य अण्डेमान के बेटापुर क्षेत्र में बसाये गए। इन पूर्वी पाकिस्तान से आये हुए बंगालियों के लिये २,०५० एकड़ भूमि साफ की गई। इसी तरह के १०० बंगाली परिवारों को नील द्वीप में १,१९० एकड़ भूमि पर बसाया गया। इस तरह से ग्रेट अण्डेमान के तीनों क्षेत्रों अर्थात् उत्तरी अण्डेमान, मध्य अण्डेमान और दक्षिणी अण्डेमान में पूर्वी पाकिस्तान से आये हुए २,८८७ बंगाली परिवार बसा दिये गये। इन बंगाली शरणार्थियों के अलावा केरल के १५७ परिवार तमिलनाडु के ४३ परिवार, बिहार के १८४ परिवार, माही से आये ४ परिवार और बर्मा से आये ५ परिवारों को ग्रेट अण्डेमान में बसाया गया था।

लिटिल अण्डेमान में भी पूर्वी पाकिस्तान से आये बंगाली शरणार्थियों और श्रीलंका से आये तमिल शरणार्थियों के लगभग २००० परिवारों को बसाने की योजना तैयार की गई थी। रामकृष्णापुरम आदि की बंगाली बस्तियों की तुलना में अब ओंगी जन-जाति अपने ही द्वीप लिटिन अण्डेमान में एक नगण्य समुदाय में संकुचित हो गई है। इसी तरह हैव लाक द्वीप में बंगाली शरणार्थियों को बसाया गया।

आज बंगाली समुदाय के सदस्यों का इन द्वीपों में सबसे बड़ा समूह बन गया है। बंगाल की संस्कृति और सभ्यता अण्डेमान में मुखरित हो उठी है। दुर्गापूजा, "यात्रा", "तर्जा", "कवि गान", "बाउल" और `कीर्तन' के स्वर गूंजते सुनाई देते हैं। इन बस्तियों में दुर्गापूजा, सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा, मनसा पूजा, दोलोत्सव और झूलन जैसे उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं।

पोर्टब्लेयर के समीपवर्ती क्षेत्र जैसे छोलादारी, नील, हैवलाक और मध्य अण्डेमान में भांति-भांति के फल और सब्जियां उगाई जाने लगी हैं। इन बस्तियों में छेने से बनी हुई स्वादिष्ट बंगाली मिठाइयां भी मिल जाती हैं।

मद्रास से पोर्टब्लेयर के बीच सीधी वायुयान सेना के साथ-साथ नियमित जलयान सेवा भी उपलब्ध है। तमिलनाडु से अनेक तमिल व्यवसायी पोर्टब्लेयर और अन्य द्वीपों में व्यापार और वाणज्य का कार्य सम्भाल रहे हैं। जंगलों में और दूसरे सरकारी विभागों तथा कारखानों में काम करने के लिये बहुत बड़ी संख्या में तमिल मूल के श्रमिक आते रहे हैं। श्रीलंका में विस्थापित तमिल परिवारों को भी अण्डेमान में बसाया गया है। तमिल परिवार दक्षिण और मध्य अण्डेमान में मुख्य रूप से बसे हैं परन्तु श्रीलंका से विस्थापित १२०० परिवारों को कचाल द्वीप में बसाने की व्यवस्था की गई थी। तमिल भाषी मुख्य रूप से हैडो, विमबर्लीगंज, रंगत, माया-बन्दर, डिगलीपुर, हटबे, कपंगा द्वीप तथा शबनम नगर ग्रेट निकोबार में रहते हैं।

तमिल लोग अपने साथ दक्षिण भारतीय संस्कृति और देवी देवताओं को लेकर आये हैं। जहां-जहां भी तमिल लोगों की बस्तियां है वहाँ पर तमिल शैली के मन्दिर और धार्मिक उत्सव देखने को मिलते हैं।

तेलगू भाषी

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विशाखापटनम और पोर्टब्लेयर के बीच सीधी जलयान व्यवस्था होने के कारण अनेक आन्ध्र प्रदेश वासी श्रमिक इन द्वीपों में आते रहे हैं। अधिकांश आन्ध्र प्रदेश वासियों को हैडो, लांग आइलैन्ड, डेरी फार्म (पोर्टब्लेयर) बम्बूफलैट, माया बन्दर, सुभापग्राम (उत्तरी अण्डेमान) आदि की बस्तियों में देखा जा सकता है। ये लोग बहुत परिश्रमी और लगन से काम करने वाले होते हैं। अपने अवकाश के समय में वे दक्षिण भारतीय संगीत और नृत्य के कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

केरल से अनेक मलयालम भाषी लोग आकर इन द्वीपों में बसे हैं। मालावार तट के मोपला लोगों के अलावा अनेक शिक्षक, लिपिक, अधिकारी, नर्सें आदि इन द्वीपों में आकर बस गये हैं। लगभग सभी उच्च अधिकारियों के निजी सहायक केरलवासी हैं। इन द्वीपों का जलवायु केरल के जलवायु से बहुत मिलता जुलता है। मलयालम भाषी वर्ग ने एक मत होकर अपने बच्चों के लिये पांचवी कक्षा के बाद अनिवार्य रूप से हिन्दी पढ़ाने की मांग की है। केरल वासी अपने साथ केरल की संस्कृति और कथाकली जैसी परम्पराओं का इन द्वीपों में प्रसार कर रहे हैं। मलयालम भाषी लोग मुख्य रूप से ओबरा ब्राज, मन्नार घाट, पद्मनाभ पुरम, स्वदेश नगर और हैडो आदि क्षेत्रों में केन्द्रित हैं।

राँची लोग

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इन द्वीपों में बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के मिलन स्थल छोटा नागपुर क्षेत्र से द्वीपों में आए व्यक्तियों को "राँची लोग" का नाम दिया गया है। छोटा नागपुर क्षेत्र में राँची नामक पर्वतीय स्थल बिहार राज्य की ग्रीष्म ऋतु की राजधानी कही जाती है। इस क्षेत्र में रहने वाले लोग प्राय: ओरांव, मुण्डा और मिण्डारी बोलियां बोलते हैं। छोटा नागपुर की जनजातियां बहुत परिश्रमी और मन लगा कर काम करने वाली होती है। अण्डेमान के वन क्षेत्र, बहुत कुछ छोटानागपुर के धरातल से मेल खाते हैं। रांची मजदूर बहुत बड़ी संख्या में इन द्वीपों में आए हैं और ये मुख्य रूप से ठेकेदारों द्वारा जंगलों में काम करने के लिए नियुक्त किए गए हैं। जिन क्षेत्रों में बंगाली शरणार्थियों को खेती के लिए भूमि दी गई है वहां भी रांची श्रमिक बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं। रांची मजदूरों की एक बहुत बड़ी बस्ती वाराटांग द्वीप में स्थित है। पोर्टब्लेयर, बाराटांग (ओरलकच्चा) और मायाबन्दर क्षेत्र में कई इसाई मिशन इन लोगों के बीच सेवाकार्य कर रहे हैं। इसाई मिशन द्वारा संचालित पोर्टब्लेयर का निर्मला उच्चतम माध्यमिक विद्यालय मुख्य रूप से रांची के लड़के-लड़कियों के लिए शिक्षा और छात्रावास की सुविधाएं प्रदान करता है। इन लोगों ने अपनी मेहनत और लगन से दक्षिणी अण्डेमान और मध्य अण्डेमान से वन विकास तथा कृषि कार्यों में विशेष योगदान दिया है।