कर्ण

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(अंगराज कर्ण से अनुप्रेषित)
कर्ण
हिंदू पौराणिक कथाओं के पात्र
नाम:कर्ण
अन्य नाम:वासुसेन,दानवीर कर्ण, राधेय, सूर्यपुत्र कर्ण, सूतपुत्र कर्ण , कौंत्य कर्ण , विजयधारी , वैकर्तना, मृत्युंजय कर्ण , दिग्विजयी कर्ण, अंगराज कर्ण
संदर्भ ग्रंथ:महाभारत
व्यवसाय:अंग देश के राजा
मुख्य शस्त्र:धनुषबाण , विजय धनुष
राजवंश:पैतृक राजवंश पांडव लेकिन कुंती द्वारा जन्म के समय त्याग देना व कौरव युवराज दुर्योधन से घनिष्ठ मित्रता के चलते कौरव राजवंशी।
माता-पिता:जन्मदाता सूर्यदेव व श्रीमती कुंती।

लालन पालन कर्ता देवी राधा व श्री अधिरत
भाई-बहन:युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन ,नकुल , सहदेव , सूर्यपुत्र शनि , सूर्यपुत्र यमराज , राधा पुत्र शोण
जीवनसाथी:वृषाली और सुप्रिया
संतान:वृषसेन , चित्रसेन , सत्यसेन , सुशेन , द्विपाल , शत्रुंजय , प्रसेन , वनसेन और वृषकेतु

कर्ण (साहित्य-काल) महाभारत (महाकाव्य) के महानायक है। वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत कर्ण और पांडवों के जीवन पर केन्द्रित है| जीवन अंतत विचार जनक है। कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों में से एक थे। कर्ण छ: पांडवों में सबसे बड़े भाई थे । भगवान परशुराम ने स्वयं कर्ण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था । कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और कर्ण सहित सभी पाण्डवों के धर्मपिता महाराज पांडु थे। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे। कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। इसी से जुड़ा एक वाक्या महाभारत में है जब अर्जुन के पिता भगवान इन्द्र ने कर्ण से उसके कुंडल और दिव्य कवच माँगे और कर्ण ने दे दिए।[1]

कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था।[2] तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है। उन्हें दानवीर और अंगराज कर्ण भी कहा जाता है।

शुद्ध संकल्प के परिणाम स्वरुप जन्म[संपादित करें]

चित्र:Mahabharata(1965).jpg
Mahabharata(1965)

कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उनके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसकी नाभि को छूकर उसके गर्भ में प्रवेश किया और अपने पुत्र को वहां मंत्रों द्वारा स्थापित किया। कालांतर में कुन्ती के गर्भ से ऐसा बालक उत्पन्न हुआ जो तेज़ में सूर्य के ही समान था और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूँकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिए लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया।[3]

लालन-पालन[संपादित करें]

कर्ण गंगाजी में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज भीष्म के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। उन्होंने उसे वासुसेन नाम दिया। अपनी पालनकर्ता माता के नाम पर कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव उन्हीं को अपना माता-पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्मों को निभाया। अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ।[4]

प्रशिक्षण[संपादित करें]

युवावस्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने की बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होंने कर्ण को भी शिक्षा दी |अर्जुन से श्रेष्ठ बनने के लिए ही कर्ण ने अनुचित तरीके से ब्रम्हासिर अस्त्र की मांग की किंतु द्रोण ने कर्ण की मंशा जानकर उसे फटकार लगाते हुए ब्रम्हासि अस्त्र का ज्ञान देने से मना कर दिया । फिर कर्ण गुरु द्रोण को भला बुरा सुनाकर परशुराम से ब्रम्हासिर अस्त्र का ज्ञान प्राप्त करने चला गया ।

कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों वर्ण को ही शिक्षा दिया करते थे क्योकि उनकी प्रतिज्ञा थी वो सिर्फ वेदों क ज्ञाता को ही शिक्षा देंगे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण वर्ण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यन्त परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।[5]

कर्ण को मिले विविध श्राप[संपादित करें]

कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से श्राप मिला था। इसके अतिरिक्त भी कर्ण को बहुत से श्राप मिले थे।

कर्ण की शिक्षा अपने अन्तिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छू आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी और उन्होनें देखा की कर्ण की जाँघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में और परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।

कर्ण, जो कि स्वयं यह नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है - अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में माना जाता है कि बिच्छू के रूप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।

परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात, कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह शब्दभेदी विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।

आन्ध्र की लोक कथाओं के अनुसार एक बार कर्ण कहीं जा रहा था, तब रास्ते में उसे एक कन्या मिली जो अपने घडे़ से घी के बिखर जाने के कारण रो रही थी। जब कर्ण ने उसके सन्त्रास का कारण जानना चाहा तो उसने बताया कि उसे भय है कि उसकी सौतेली माँ उसकी इस असावधानी पर रुष्ट होंगी। कृपालु कर्ण ने तब उससे कहा कि वह उसे नया घी लाकर देगा। तब कन्या ने आग्रह किया कि उसे वही मिट्टी में मिला हुआ घी ही चाहिए और उसने नया घी लेने से मना कर दिया। तब कन्या पर दया करते हुए कर्ण ने घी युक्त मिट्टी को अपनी मुठ्ठी में लिया और निचोड़ने लगा ताकि मिट्टी से घी निचुड़कर घड़े में गिर जाए। इस प्रक्रिया के दौरान उसने अपने हाथ से एक महिला की पीड़ायुक्त ध्वनि सुनी। जब उसने अपनी मुठ्ठी खोली तो धरती माता को पाया। पीड़ा से क्रोधित धरती माता ने कर्ण की आलोचना की और कहा कि उसने एक बच्ची के घी के लिए उन्हें इतनी पीड़ा दी। और तब धरती माता ने कर्ण को श्राप दिया कि एक दिन उसके जीवन के किसी निर्णायक युद्ध में वह भी उसके रथ के पहिए को वैसे ही पकड़ लेंगी जैसे उसने उन्हें अपनी मुठ्ठी में पकड़ा है, जिससे वह उस युद्ध में अपने शत्रु के सामने असुरक्षित हो जाएगा।

इस प्रकार, कर्ण को तीन पृथक अवसरों पर तीन श्राप मिले। दुर्भाग्य से ये तीनों ही श्राप कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में फलीभूत हुए, जब वह युद्ध में अस्त्र विहीन, रथ विहीन और असहाय हो गया था।

विविध श्रापों के प्रभाव[संपादित करें]

कर्ण को मिले विविध श्रापों का प्रभाव इस प्रकार हुआ।

दो ब्रह्मास्त्रों का टकराना

यदि एक ब्रह्मास्त्र भी शत्रु के खेमें पर छोड़ा जाए तो ना केवल वह उस खेमे को नष्ट करता है बल्कि उस पूरे क्षेत्र में १२ से भी अधिक वर्षों तक अकाल पड़ता है। और यदि दो ब्रह्मास्त्र आपस में टकरा दिए जाएँ तब तो मानो प्रलय ही हो जाता है। इससे समस्त पृथ्वी का विनाश हो जाएगा और इस प्रकार एक अन्य भूमण्डल और समस्त जीवधारियों की रचना करनी पड़ेगी। महाभारत के युद्ध में दो ब्रह्मास्त्रों के टकराने की स्थिति तब आई जब ऋषि वेदव्यासजी के आश्रम में अश्वत्थामा और अर्जुन ने अपने-अपने ब्रह्मास्त्र चला दिए। तब वेदव्यासजी ने उस टकराव को टाला और अपने-अपने ब्रह्मास्त्रों को लौटा लेने को कहा। अर्जुन को तो ब्रह्मास्त्र लौटाना आता था, लेकिन अश्वत्थामा ये नहीं जानता था और तब उस ब्रह्मास्त्र के कारण परीक्षित, उत्तरा के गर्भ से मृत पैदा हुआ।

लेकिन कर्ण गुरु परशुराम के श्राप के कारण ब्रह्मास्त्र चलाना भूल गया था, नहीं तो वह युद्ध में अर्जुन का वध करने के लिए अवश्य ही अपना ब्रह्मास्त्र चलाता और अर्जुन भी अपने बचाव के लिए अपना ब्रह्मास्त्र चलाता और पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता। इस प्रकार गुरु परशुराम ने कर्ण को श्राप देकर पृथ्वी का विनाश टाल दिया।

धरती माता के श्राप का प्रभाव

धरती माता का श्राप यह था कि कर्ण के जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध में धरती उसके रथ के पहिए को पकड़ लेंगी। उस दिन के युद्ध में कर्ण ने अलग-अलग रथों का उपयोग किया, लेकिन हर बार उसके रथ का पहिया धरती में धँस जाता। इसलिए विभिन्न रथों का प्रयोग करके भी कर्ण धरती माता के श्राप से नहीं बच सकता था, अन्यथा वह उस निर्णायक युद्ध में अर्जुन पर भारी पड़ता।

दुर्योधन से मित्रता और अंगराज[संपादित करें]

चित्र:Coronation of Karna.jpg
कर्ण का राज्याभिषेक

गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर हस्तिनापुर में एक रंगभूमि का आयोजन करवाया। रंगभूमि में अर्जुन विशेष धनुर्विद्या युक्त शिष्य प्रमाणित हुआ। तभी कर्ण रंगभूमी में आया और अर्जुन द्वारा किए गए करतबों को पार करके उसे द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारा। तब कृपाचार्य ने कर्ण के द्वन्द्वयुद्ध को अस्वीकृत कर दिया और उससे उसके वंश और साम्राज्य के विषय में पूछा - क्योंकि द्वन्द्वयुद्ध के नियमों के अनुसार केवल एक राजकुमार ही अर्जुन को, जो हस्तिनापुर का राजकुमार था, द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकार सकता था। तब कौरवों में सबसे ज्येष्ठ दुर्योधन ने कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित किया जिससे वह अर्जुन से द्वन्द्वयुद्ध के योग्य हो जाए। जब कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि वह उससे इसके बदले में क्या चाहता है, तब दुर्योधन ने कहा कि वह केवल ये चाहता है कि कर्ण उसका मित्र बन जाए।

इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य सम्बन्ध स्थापित हुए, जैसे दुर्योधन और कर्ण के बीच सुदृढ़ सम्बन्ध बनें, कर्ण और अर्जुन के बीच तीव्र प्रतिद्वन्द्विता और पाण्डवों तथा कर्ण के बीच वैमनस्य।

कर्ण, दुर्योधन का एक निष्ठावान और सच्चा मित्र था।

यद्यपि वह बाद में दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा में भागीदारी करता है, लेकिन वह आरम्भ से ही इसके विरुद्ध था। कर्ण शकुनि को पसन्द नहीं करता था और सदैव दुर्योधन को यही परामर्श देता है कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब लाक्षागृह में पाण्डवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डाँटता है और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में जरासन्ध, शिशुपाल, दन्तवक्र, साल्व और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरासन्ध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासन्ध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासन्ध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो में बाँट कर हो सकती है। भीम द्वारा जरासंध को बार-बार धड़ से अलग करनेेे पर भी शरीर जुड़ जा रहा था तभी श्री कृष्ण के कहने पर भीम ने शरीर के दो हिस्सो को अलग अलग दिशा में फेेक दिया

उदारता और चरित्र[संपादित करें]

हस्तिनापुर स्थित दानवीर कर्ण का मन्दिर।

अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने ये घोषणा करी कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी माँगेगा तो वह मना नहीं करेगा और माँगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में इन्द्र और माता कुन्ती ने लाभ उठाया।

महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इन्द्र ने कर्ण से साधु के भेष में उससे उसके कवच-कुण्डल माँग लिए, क्योंकि यदि ये कवच-कुण्डल कर्ण के ही पास रहते तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असम्भव था और इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कर्ण से इतनी बडी़ भिक्षा माँग ली लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इन्द्र को भी मना नहीं किया और इन्द्र द्वारा कुछ भी वरदान माँग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इन्द्र से ये कहते हुए कि "देने के पश्चात कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है" कुछ नहीं माँगा।

इसी प्रकार माता कुन्ती को भी दानवीर कर्ण द्वारा यह वचन दिया गया कि इस महायुद्ध में उनके पाँच पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे और वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करेगा। और उसने वही किया , कर्ण ने अर्जुन के वध के लिए देवराज इंद्र से इंद्रास्त्र भी माँगा था।

द्रौपदी स्वयंवर[संपादित करें]

दुर्योधन, शकुनि और दुशासन की दुष्ट योजना से खुद को बचाने के बाद पांडव गुप्त रूप से वर्णावत से चले गए। फिर भी छिपते हुए, पांडवों ने खुद को ब्राह्मणों के रूप में प्रच्छन्न किया और पांचाल राजकुमारी द्रौपदी के स्वयंवर में भाग लिया। सभी महान राजाओं और अन्य कौरव राजकुमारों में से, केवल अर्जुन और कर्ण ही स्थापित चुनौती देने में सक्षम थे। परीक्षण केवल उसके प्रतिबिंब को देखकर एक सुनहरी मछली की आँख को छेदने के लिए पिनाकिन को उठाने, स्ट्रिंग करने और आग लगाने के लिए है; लिया।[6] [7]

विवाह और संतान[संपादित करें]

द्रौपदी स्वयंवर से निराश होकर आने के बाद कर्ण ने अपने पालक पिता अधिरथ के कहने पर सत्यवान जोकि दुर्योधन का सारथी था उसकी बहन वृषाली से विवाह कर लिया। इसके पश्चात् राजकुमारी असांवरी के स्वयंवर में कर्ण ने असांवरी से विवाह करने की अपेक्षा उसकी दासी और द्युत्मसेन नामक सूत की पुत्री सुप्रिया से भी विवाह कर लिया। वृषाली के गर्भ से वृषसेन , चित्रसेन ,सत्यसेन और वृषकेतु नामक चार पुत्रों का जन्म हुआ। सुप्रिया के गर्भ से सुशेन , द्विपाल , शत्रुंजय , प्रसेन और वनसेन नामक पाँच पुत्रों ने जन्म लिया। इन नौ पुत्रों में वृषकेतु सबसे छोटा था।

द्यूतक्रीड़ा़[संपादित करें]

कर्ण कभी भी शकुनी की पाण्डवों को छ्ल-कपट से हराने की योजनाओं से सहमत नहीं था। वह सदा ही युद्ध के पक्ष में था और सदैव ही दुर्योधन से युद्ध का ही मार्ग चुनने का आग्रह करता। यद्यपि वह दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा के खेल में सम्मिलित हुआ, जो बाद में कुख्यात द्रौपदी चीर हरण की घटना में फलीभूत हुआ।

जब शकुनी छ्ल-कपट द्वारा द्यूतक्रीड़ा में युधिष्ठिर से सब कुछ जीत गया, तो पाण्डवों की पटरानी द्रौपदी को दुःशासन द्वारा घसीट कर राजसभा में लाया गया और कर्ण के उकसाने पर, दुर्योधन और उसके भाईयों ने द्रौपदी के वस्त्र हरण का प्रयास किया। कर्ण दुर्योधन के बहुत अच्छे मित्र थे मगर द्रौपदी के चीर हरण के समय कर्ण ने द्रौपदी का अपमान करने में बिल्कुल साथ नहीं दिया बल्कि इसका विरोध करते हुए कहा - "हस्तिनापुर की कुल वधु या किसी भी स्त्री के साथ ऐसा करना पाप है।"

उसी स्थान पर, भीम द्वारा यह प्रतिज्ञा ली जाती है कि वह अकेले ही युद्ध में दुर्योधन और उसके सभी भाईयों का वध करेगा। और फिर अर्जुन, कर्ण का वध करने की प्रतिज्ञा लेता है क्योंकि कर्ण दुर्योधन के पक्ष में थे।

सैन्य अभियान[संपादित करें]

पाण्डवों के वनवास के दौरान, कर्ण, दुर्योधन को पृथ्वी का सम्राट बनाने का कार्य अपने हाथों में लेता है। कर्ण द्वारा देशभर में सैन्य अभियान छेड़े गए और उसने राजाओं को परास्त कर उनसे ये वचन लिए की वह हस्तिनापुर महाराज दुर्योधन के प्रति निष्ठावान रहेंगे अन्यथा युद्धों में मारे जाएगें। कर्ण सभी लड़ाईयों में सफल रहा। महाभारत में वर्णन किया गया है कि अपने सैन्य अभियानों में कर्ण ने कई युद्ध छेड़े और असंख्य राज्यों और साम्राज्यों को आज्ञापालन के लिए विवश कर दिया जिनमें हैं - कम्बोज, शक, केकय, अवन्ति, गन्धार, मद्र, त्रिगत, तंगन, पांचाल, विदेह, सुह्मस, अंग, वंग, निषध, कलिंग, वत्स, अशमक, ऋषिक और बहुत से अन्य जिनमें म्लेच्छ और वनवासी लोग भी हैं।[8]

श्रीकृष्ण और कर्ण[संपादित करें]

चित्र:Krishna explains to Karna.jpg
श्रीकृष्ण कर्ण को समझाते हुए

दुर्योधन के साथ शान्ति वार्ता के विफल होने के पश्चात, श्रीकृष्ण, कर्ण के पास जाते हैं, जो दुर्योधन का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है। वह कर्ण का वास्तविक परिचय उसे बतातें है, कि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है और उसे पाण्डवों की ओर आने का परामर्श देते हैं। कृष्ण यह विश्वास दिलाते हैं कि चूँकि वह सबसे ज्येष्ठ पाण्डव है, इसलिए युधिष्ठिर उसके लिए राजसिंहासन छोड़ देंगे और वह एक चक्रवती सम्राट बनेगा।

पर कर्ण इन सबके बाद भी पाण्डव पक्ष में युद्ध करने से मना कर देता है, क्योंकि वह अपने आप को दुर्योधन का ऋणी समझता था और उसे ये वचन दे चुका था कि वह मरते दम तक दुर्योधन के पक्ष में ही युद्ध करेगा। वह कृष्ण को यह भी कहता है कि जब तक वे पाण्डवों के पक्ष में हैं जो कि सत्य के पक्ष में हैं, तब तक उसकी हार भी निश्चित है। तब कृष्ण कुछ उदास हो जाते हैं, लेकिन कर्ण की निष्ठा और मित्रता की प्रशंसा करते हैं और उसका यह निर्णय स्वीकार करते हैं और उसे ये वचन देते हैं कि उसकी मृत्यु तक वह उसकी वास्तविक पहचान गुप्त रखेंगे।

== कवच-कुण्डल की क्षती ये प्रकरण मिलावटी है इसको आक्रांत ने मिलया है

कुन्ती और कर्ण[संपादित करें]

जब महाभारत का युद्ध निकट था, तब माता कुन्ती, कर्ण से भेंट करने गई और उसे उसकी वास्तविक पहचान का ज्ञान कराया। वह उसे बताती हैं कि वह उनका पुत्र है और ज्येष्ठ पाण्डव है। वह उससे कहती हैं कि वह स्वयं को 'कौन्तेय' (कुन्ती पुत्र) कहे नाकी 'राधेय' (राधा पुत्र) और तब कर्ण उत्तर देता है कि वह चाहता है कि सारा सन्सार उसे राधेय के नाम से जाने नाकी कौन्तेय के नाम से।[9] कुन्ती उसे कहती हैं कि वह पाण्डवों की ओर हो जाए और वह उसे राजा बनाएगें। तब कर्ण कहता है कि बहुत वर्ष पूर्व उस रंगभूमि में यदि उन्होनें उसे कौन्तेय कहा होता तो आज स्थिति बहुत भिन्न होती। पर अब किसी भी परिवर्तन के लिए बहुत देर हो चुकि है और अब ये सम्भव नहीं है। वह आगे कहता है कि दुर्योधन उसका मित्र है और उस पर बहुत विश्वास करता है और वह उसके विश्वास को धोखा नहीं दे सकता। लेकिन वह माता कुन्ती को ये वचन देता है कि वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी और पाण्डव का वध नहीं करेगा। कर्ण और अर्जुन दोनों ने ही एक दूसरे का वध करने का प्रण लिया होता है और इसलिए दोनों में से किसी एक की मृत्यु तो निश्चित है। वह कहता है कि उनके कोई भी पाँच पुत्र जीवित रहेंगे - चार अन्य पाण्डव और उसमें या अर्जुन में से कोई एक। कर्ण अपनी माता से निवेदन करता है कि वह उनके सम्बन्ध और उसके जन्म की बात को उसकी मृत्यु तक रहस्य रखे।

कुन्ती, कर्ण से एक और वचन माँगती है कि वह नागास्त्र का उपयोग केवल एक बार करे। कर्ण यह वचन भी कुन्ती को देता है। परिणामस्वरूप बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण एक बार से अधिक नागास्त्र का प्रयोग नहीं कर पाता।

महाभारत का युद्ध[संपादित करें]

कुरुक्षेत्र युद्ध को चित्रित करती महाभारत की एक पांडुलिपि।

महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पूर्व, भीष्म ने, जो कौरव सेना के प्रधान सेनापति थे, कर्ण को अपने नेतृत्व में युद्धक्षेत्र में भागीदारी करने से मना कर दिया। यद्यपि दुर्योधन उनसे निवेदन करता है, लेकिन वे नहीं मानते। और फिर कर्ण दसवें दिन उनके घायल होने के पश्चात ग्यारहवें दिन ही युद्धभूमि में आ पाता है।

तेरहवे दिन का युद्ध[संपादित करें]

तेरहवे दिन के युद्ध में, कौरव सेना के प्रधान सेनापति, गुरु द्रोणाचार्य द्वारा, युधिष्ठिर को बन्दी बनाने के लिए चक्रव्यूह/पद्मव्यूह की रचना की गई। पाण्डव पक्ष में केवल कृष्ण और अर्जुन ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस दिन उन्हें त्रिगर्त नरेश-बन्धु युद्ध करते-करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए। त्रिगत, दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य था। अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में केवल प्रवेश करना आता था, उससे निकलना नहीं, जिसे उसने तब सुना था जब वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके पिता अर्जुन उसकी माता को यह विधि समझा रहे थे और बीच में ही उन्हें नीन्द आ गई।

लेकिन जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया, सिन्धु नरेश - जयद्रथ ने प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़ गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-बड़े योद्धाओं को परास्त किया। कर्ण और दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया। कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और रथ का एक पहिया तोड़ दिया जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने उसपर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया। युद्ध समाप्ति पर जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ है तो वह प्रतिज्ञा लेता है कि अगले दिन का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले लेगा।

चौदहवें दिन की रात्रि[संपादित करें]

कर्ण द्वारा शक्ति अस्त्र से घटोत्कच वध

चौदहवें दिन का युद्ध अविलक्षण रूप से सूर्यास्त के बाद तक चलता रहा और भीमपुत्र घटोत्कच, जो अर्ध-असुर था, कौरव सेनाओं का बड़े पैमाने पर संहार करता रहा। आमतौर पर, असुर रात्री के समय बहुत अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। दुर्योधन और कर्ण ने वीरता से उसका सामना किया और उससे युद्ध किया। अन्ततः जब यह लगने लगा कि उसी रात घटोत्कच सारी कौरव सेना का संहार कर देगा तो, दुर्योधन ने कर्ण से ये निवेदन किया कि वह किसी भी प्रकार से इस समस्या से छुटकारा दिलाए। कर्ण को विवश होकर शक्ति अस्त्र घटोत्कच पर चलाना पड़ा। यह अस्त्र देवराज इन्द्र द्वारा कर्ण को उसकी दानपरायण्ता के सम्मान स्वरूप दिया गया था (जब कर्ण ने अपने कवच-कुण्डल इन्द्र को दान दे दिए थे)। लेकिन कर्ण इस अस्त्र का प्रयोग केवल एक बार कर सकता था, जिसके बाद यह अस्त्र इन्द्र के पास लौट जाएगा। इस प्रकार, शक्ति अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर करने के बाद वह इसे बाद में अर्जुन पर ना कर सका।

सोलवाँ दिन[संपादित करें]

इस दिन कर्ण का युद्ध भीम से हुआ था । भीम ने कर्ण को मल्लयुद्धकी चुनौती दी और भीम ने कर्ण को हराया फिर दोनो में दूसरा युद्ध हुआ जिसमे भीम की हार हुइ और कर्ण कुछ करता उससे पहले ही अर्जुन वहां आ गया। तब कर्ण का अर्जुन से सामना हुआ तब कर्ण ने अर्जुन पर वेसनवास्त्र का प्रयोग किए जिसे अर्जुन ने अपने भर्मशीर अस्त्र से काट देते है और अर्जुन कर्ण पशुपतास्त्र का प्रयोग करने हो वाले थे की कृष्णा ने उन्हें रोक लिया। और इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकलता ।

सत्रहवाँ दिन[संपादित करें]

इस दिन महाभारत का सबसे खतरनाक युद्ध हुआ जिसने कर्ण की मुत्यु हुई थी|सत्रह्वे दिन युद्ध में कर्ण और अर्जुन में महा भीषण युद्ध हुआ था|और इस युद्ध में कर्ण और अर्जुन दोनो ही एक दूसरे पर महाअस्त्र का प्रयोग कर रहे थे कि तभी कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धस गया और कर्ण उसे नही निकाल पा रहा था तो उसने जमीन से ही युद्ध शुरू रखा पर अर्जुन को हराने में कर्ण असमर्थ था और आखिर में अर्जुन ने अजन्लिकास्त्र से कर्ण की छाती में मारकर उनका वध किया

कर्ण की मृत्यु के पश्चात[संपादित करें]

युद्ध समाप्ति के पश्चात, मृतक लोगों के लिए अन्त्येष्टि संस्कार किए जा रहे थे। तब माता कुन्ती ने अपने पुत्रों से निवेदन किया कि वे कर्ण के लिए भी सारे मृतक संस्कारों को करें। जब उन्होंने यह कहकर इसका विरोध किया की कर्ण एक सूत पुत्र है, तब कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य खोला। तब सभी पाण्डव भाईयों को भ्रातृहत्या के पाप के कारण झटका लगता है। युधिष्ठिर विशेष रूप से अपनी माता पर रुष्ट होते हैं और उन्हें और समस्त नारी जाति को ये श्राप देते हैं कि उस समय के बाद से स्त्रियाँ किसी भी भेद को छुपा नहीं पाएँगी।

युधिष्ठिर और दुर्योधन, दोनों कर्ण का अन्तिम संस्कार करना चाहते थे। युधिष्ठिर का दावा यह था की चूँकि वे कर्ण के कनिष्ट भ्राता हैं इसलिए यह अधिकार उनका है। दुर्योधन का दावा यह था की युधिष्ठिर और अन्य पाण्डवों ने कर्ण के साथ कभी भी भ्रातृवत् व्यवहार नहीं किया इसलिए अब इस समय इस अधिकार को जताने का कोई औचित्य नहीं है। तब श्रीकृष्ण मध्यस्थता करते है और युधिष्ठिर को यह समझाते हैं कि दुर्योधन की मित्रता का बन्धन अधिक सुदृढ़ है इसलिए दुर्योधन को कर्ण का अन्तिम संस्कार करने दिया जाए।

जब १८-दिन का युद्ध समाप्त हो जाता है, तो श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके रथ से नीचे उतर जाने के लिए कहते हैं। जब अर्जुन उतर जाता है तो वे उसे कुछ दूरी पर ले जाते हैं। तब वे हनुमानजी को रथ के ध्वज से उतर आने का संकेत करते हैं। जैसे ही श्री हनुमान उस रथ से उतरते हैं, अर्जुन के रथ के अश्व जीवित ही भस्म हो जाते हैं और रथ में विस्फोट हो जाता है। यह देखकर अर्जुन दहल उठता है। तब श्रीकृष्ण उसे बताते हैं कि कर्ण के घातक अस्त्रों के कारण अर्जुन के रथ में यह विस्फोट हुआ है। यह अब तक इसलिए सुरक्षित था क्योंकि उस पर स्वयं उनकी कृपा थी और श्री हनुमान की शक्ति थी जो रथ अब तक इन विनाशकारी अस्त्रों के प्रभावो को सहन किए हुए था।

महायोद्धा[संपादित करें]

आज भी लाखों हिन्दुओं के लिए कर्ण एक ऐसा योद्धा है जो जीवन भर दुखद जीवन जीता रहा। उसे एक महान योद्धा माना जाता है, जो साहसिक आत्मबल युक्त एक ऐसा महानायक था जो अपने जीवन की प्रतिकूल स्थितियों से जूझता रहा।

विशेष रूप से कर्ण अपनी दानप्रियता के लिए प्रसिद्ध है। वह इस बात का उदाहरण भी है कि किस प्रकार अनुचित निर्णय किसी व्यक्ति के श्रेष्ठ व्यक्तित्व और उत्तम गुणों के रहते हुए भी किसी काम के नहीं होते। कर्ण को कभी भी वह नहीं मिला जिसका वह अधिकारी था, पर उसने कभी भी प्रयास करना नहीं छोड़ा। भीष्म और भगवान कृष्ण सहित कर्ण के समकालीनों ने यह स्वीकार किया है कि कर्ण एक पुण्यात्मा है जो बहुत विरले ही मानव जाति में प्रकट होते हैं। वह संघर्षरत मानवता के लिए एक आदर्श है कि मानव जाति कभी भी हार ना माने और प्रयासरत रहे।

अर्जुन से तुलना[संपादित करें]

कर्ण और अर्जुन में बहुत सी समानताएँ हैं।[10] दोनों ही अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, दोनों ने ही द्रौपदी का हाथ जीतने के लिए प्रतियोगिता में भागीदारी की और दोनों को अपने भाईयों के विरुद्ध युद्ध में लड़ना पड़ा। एक और गहरा संयोजन यह की दोनों ही कौरवों से निकटता से जुड़े हुए थे, कर्ण मित्रतावत और अर्जुन रक्तरत। उनके निर्णय और तद्नुरूप इसके उन पर और उनके परिवारों पर पड़ने वाले परिणामों पर इस बात के लिए बल दिया जाता है कि अपने कर्तव्यों का पालन करने का क्या महत्व है, जैसा कि भगवद गीता में भगवान कृष्ण द्वारा बताया गया है।

कर्ण की छवि पर प्रश्वचिह्न[संपादित करें]

दुर्योधन के प्रति कर्ण के स्नेह के कारण, यद्यपि अनिच्छुक रूप से, उसने अपने प्रिय मित्र दुर्योधन के पाण्डवों के प्रति कर्ण ने स्वयं ना चाहते हुए भी दुर्योधन के कुकर्मों में उसका साथ दिया। कर्ण को पाण्डवों के प्रति दुर्योधन की दुर्भावनापूर्ण योजनाओं का ज्ञान था। उसे यह भी ज्ञान था की असत के लिए सत से टकराने के कारण उसका पतन भी निश्चित है। जबकि कुछ लोगों का यह मानना है कि कुरु राजसभा में द्रौपदी के लिए 'वैश्या' शब्द का उपयोग करके कर्ण ने अपने नाम पर स्वयं कालिख पोत ली थी। फिर भी, अभिमन्यु के मारे जाने में कर्ण की भूमिका और एक योद्धा से अनेक योद्धाओं के लड़ने के कारण उसके एक महायोद्धा होने की छवि को कहीं अधिक क्षति पहुँची और फिर उसी युद्ध में उसकी भी वही गति हुई। महाभारत की कुछ व्याख्यायों के अनुसार, यही वह कृत्य था जिसने भली प्रकार से ये प्रमाणित कर दिया की कर्ण युद्ध में अधर्म के पक्ष में लड़ रहा है और इस कृत्य के कारण उसके इस दुर्भाग्य का भी निर्धारण हो गया की वह भी अर्जुन द्वारा इसी प्रकार मारा जाएगा जब वह शस्त्रास्त्र कर्ण को आखिर में अर्जुन ने मार डाला

कर्ण और अर्जुन के पिछले जन्म की कथा[संपादित करें]

कर्ण और अर्जुन के पिछले जन्म की कथा का वर्णन पद्म पुराण मे आता है एक बार भगवान ब्रह्मा और महादेव के बीच युद्ध होता है, महादेव ब्रह्माजी के पाँचवें सर को काट देते है। क्रोधित ब्रह्मदेव के शरीर से पसीना निकलता है और उस पसीने से एक वीर योद्धा उत्पन्न होता है। जो स्वेद से जन्मा इसलिए स्वेदज के नाम से जाना जाता है। स्वेदज पिता ब्रह्माजी के आदेश से महादेव से युद्ध करने जाता है। महादेव भगवान विष्णु के पास क्रोधित ब्रह्मा द्वारा जन्म लेने वाले स्वेदज का कुछ उपाय बताने को कहते हैं। भगवान विष्णु अपने रक्त से एक वीर को जन्म ‌देते है। रक्त से जन्मा इसलिए उसे रक्तज के नाम से जाना जाता है। स्वेदज 1000 कवच के साथ जन्मा था और रक्तज 1000 हाथ और 500 धनुष के साथ । भगवान ब्रह्माजी भी विष्णु से ही उत्पन्न हुए थे इसलिए स्वेदज भी भगवान विष्णु का ही अंश था। स्वेदज और रक्तज में भयंकर युद्ध होता हे। स्वेदज, रक्तज के 998 हाथ कट देता है और 500 धनुष तोड़ देता हे। वही रक्तज, स्वेदज के 999 कवच तोड़ देता है। रक्तज बस हारने ही वाला होता है कि भगवान विष्णु समझ जाते हैं की‌ रक्तज स्वेदज से हार जाएगा। इसलिए वे उस युद्ध को शांत करवाते हैं। स्वेदज दानवीरता दिखाते हुए रक्तज को जीवन दान देता है। भगवान विष्णु ‌स्वेदज की जवाबदेही सूर्यनारायण को सोंपते है, और रक्तज की‌ इंद्रदेव को। वह इंद्रदेव को वचन देते है की अगले जन्म में ‌रक्तज अपने प्रतिद्वंद्वी स्वेदज का वध अवश्य करेगा। द्वापर युग में ‌रक्तज अर्जुन और स्वेदज कर्ण के रुप में जन्म लेते हैं और अर्जुन अपने सबसे महान प्रतिद्वंद्वी कर्ण‌ की युद्ध के नियमों के विरुद्ध हत्या करते हैं।

कर्ण की मृत्यु के कारक[संपादित करें]

कर्ण की मृत्यु के सम्बन्ध में निम्नलिखित कारक गिनाए जा सकते हैं:

१. कर्ण की मृत्यु का सर्वप्रथम कारक तो स्वयं ऋषि दुर्वासा ही हैं। कुन्ती को यह वरदान देते समय की वह किसी भी देव का आह्वान करके उनसे सन्तान प्राप्त कर सकती है, इस वरदान के परिणाम के बारे में नहीं बताया। इसलिए, कुन्ती उत्सुकता वश सूर्यदेव का आह्वान करती है और यह ध्यान नहीं रखतीं की विवाहपूर्व इसके क्या परिणाम हो सकते हैं और वरदानानुसार सूर्यदेव कुन्ती को एक पुत्र देते हैं। लेकिन लोक-लाज ,hari bhai के भय से कुन्ती इस शिशु को गंगाजी में बहा देतीं है। तब कर्ण, महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा को मिलता है वे उसका लालन-पालन करते है और इस प्रकार कर्ण की क्षत्रिय पहचान निषेध कर दी जाती है। कर्ण, ना कि युधिष्ठिर या दुर्योधन, हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी था, लेकिन यह कभी हो ना सका क्योंकि उसका जन्म और पहचान गुप्त रखे गए।

३. गाय वाले ब्राह्मण का श्राप की जिस प्रकार उसने एक असहाय और निर्दोष पशु को मारा है उसी प्रकार वह भी तब मारा जाएगा जब वह सर्वाधिक असहाय होगा और उसका ध्यान अपने शत्रु से अलग किसी अन्य वस्तु पर होगा। इसी श्राप के कारण अर्जुन उसे तब मारता है जब उसके रथ का पहिया धरती में धँस जाता है और उसका ध्यान अपने रथ के पहिए को निकालने में लगा होता है।

४. धरती माता का श्राप की वह नियत समय पर उसके रथ के पहिए को खा जाएगीं और वह अपने शत्रुओं के सामने सर्वाधिक विवश हो जाएगा।

५. भिक्षुक के भेष में देवराज इन्द्र को, कर्ण द्वारा अपनी लोकप्रसिद्ध दानप्रियता के कारण अपने शरीर पर चिपके कवच कुण्डल दान में दे देना।

६. 'शक्ति अस्त्र' का घटोत्कच पर चलाना, जिसके कारण वह वचनानुसार दूसरी बार इस अस्त्र का उपयोग नहीं कर सकता था

८. माता कुन्ती को दिए दो वचन।

९. महाराज और कर्ण के सारथी पाण्डवों के मामा शल्य, जिन्होंने सत्रहवें दिन के युद्ध में अर्जुन की युद्ध कला की प्रशंसा करके कर्ण का मनोबल गिरा दिया।

१०. युद्ध से कुछ दिन पूर्व जब कर्ण को यह ज्ञात होता है कि पाण्डव उसके भाई हैं तो उनके प्रति उसकी सारी दुर्भावना समाप्त हो गई, पर दुर्योधन के प्रति निष्ठ होने के कारण वह पाण्डवों (अर्थात अपने भाईयों) के विरुद्ध लड़ा। जबकि कर्ण की मृत्यु होने तक पाण्डवों को यह नहीं पता था की कर्ण उनका ज्येष्ठ भाई है

१२. द्रौपदी का अपमान करना। द्रौपदी को वैश्या कहाना

१३. श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को यह आदेश देना की वह कर्ण का वध करे जबकि वह अपने रथ के धँसे पहिए को निकाल रहा होता है।

१४. भीष्म पितामह, क्योंकि उन्होंने अपने सेनापतित्व में कर्ण को लड़ने की आज्ञा नहीं दी।  

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "मुरैना के कुंतलपुर में हुआ था दानवीर कर्ण का जन्म, यहीं हैं पांडवों का ननिहाल". punjabkesari. 2020-06-13. अभिगमन तिथि 2021-07-31.
  2. "कर्ण - महाभारत का एक उपेक्षित पात्र". मूल से 10 फ़रवरी 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जून 2009.
  3. "दानवीर 'कर्ण' का परिचय". Hindi Webduia. मूल से 27 जुलाई 2019 को पुरालेखित.
  4. "कर्ण का लालन-पालन सूत अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने किया". जागरण. मूल से 30 नवंबर 2018 को पुरालेखित.
  5. "महाभारत कथा : कर्ण के जन्म की कथा". Jagran.
  6. "The Mahabharata in Sanskrit: Book 1: Chapter 179". www.sacred-texts.com. अभिगमन तिथि 2021-07-31.
  7. "The Mahabharata in Sanskrit: Book 1: Chapter 179". www.sacred-texts.com. अभिगमन तिथि 2021-07-31.
  8. महाभारत, ८.८.१८-२०.
  9. "कर्ण-कुन्ती संवाद". मूल से 8 अगस्त 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जून 2009.
  10. "कर्ण और अर्जुनः समानताएँ". मूल से 9 जून 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जून 2009.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]