प्रयागराज का इतिहास

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प्रयागराज का अशोक स्तम्भ (सन १८७० का छायाचित्र)

प्रयाग का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। जान पड़ता है जिस प्रकार सरस्वती नदी के तट पर प्राचीन काल में बहुत से यज्ञादि होते थे उसी प्रकार आगे चलकर गंगा-यमुना के संगम पर भी हुए थे। इसी लिये 'प्रयाग' नाम पड़ा। यह तीर्थ बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है और यहाँ के जल से प्राचीन राजाओं का अभिषेक होता था। इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। वन जाते समय श्री राम प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर होते हुए गए थे।

प्रयाग बहुत दिनों तक कोशल राज्य के अंतर्गत था। अशोक आदि बौद्ध राजाओं के समय यहाँ बौद्धों के अनेक मठ और विहार थे। अशोक का स्तंभ अबतक किले के भीतर खड़ा है जिसमें समुद्रगुप्त की प्रशस्ति खुदी हुई है। फाहियान नामक चीनी यात्री सन् ४१४ ई० में आया था। उस समय प्रयाग कोशल राज्य में ही लगता था। प्रयाग के उस पार ही प्रतिष्ठान नामक प्रसिद्ध दुर्ग था जिसे समुद्रगुप्त ने बहुत द्दढ़ किया था। प्रयाग का अक्षयवट बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध चला आता है। चीनी यात्री हुएन्सांग ईसा की सातवीं शताब्दी में भारतवर्ष में आया था। उसने अक्षयवट को देखा था। आज भी लाखों यात्री प्रयाग आकर इस वट का दर्शन करते है जो सृष्टि के आदि से माना जाता है।

वर्तमान रूप में जो पुराण में मिलते हैं उनमें मत्स्यपुराण बहुत प्राचीन और प्रामाणिक माना जाता है। इस पुराण के १०२ अध्याय से लेकर १०७ अध्याय तक में इस तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन है। उसमें लिखा है कि प्रयाग प्रजापति का क्षेत्र है जहाँ गंगा और यमुना बहती हैं। साठ सहस्त्र वीर गंगा की और स्वयं सूर्य जमुना की रक्षा करते हैं। यहाँ जो वट है उसकी रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं। पाँच कुंड हैं जिनमें से होकर जाह्नवी बहती है। माघ महीने में यहाँ सब तीर्थ आकर वास करते हैं। इससे उस महीने में इस तीर्थवास का बहुत फल है। संगम पर जो लोग अग्नि द्वारा देह विसर्जित करेत हैं वे जितने रोम हैं उतने सहस्र वर्ष स्वर्ग लोक में वास करते हैं। मत्स्य पुराण के उक्त वर्णन में ध्यान देने की बात यह है कि उसमें सरस्वती का कहीं उल्लेख नहीं है जिसे पीछे से लोगों ने 'त्रिवेणी' के भ्रम में मिलाया है। वास्तव में गंगा और जमुना की दो ओर से आई हुई धाराओं और एक दोनों की संमिलित धारा से ही त्रिवेणी हो जाती है।

इतिहास[संपादित करें]

प्राचीन समय[संपादित करें]

शहर को मूल रूप से 'प्रयाग' (संगम के स्थान) के नाम से जाना जाता था, एक ऐसा नाम जो अभी भी अक्सर इस्तेमाल होता है। इलाहाबाद में उत्खनन से उत्तरी काली पॉलिश वेयर की लौह आयु की जानकारी प्राप्त है। यह एक प्राचीन शहर भी है (सबसे प्राचीन हिंदू पवित्र ग्रंथों में) प्रयाग के लिए कई संदर्भ दिये गये हैं। यह ऐसा स्थान माना जाता है जहां ब्रह्मा (ब्रह्मांड के निर्माता) एक बलिदान के अनुष्ठान में भाग लिया था।

वर्तमान में पुरातत्व स्थलों जैसे कौशाम्बी (प्राचीन नगर) और झूसी के पास 1800-1200 ईसा पूर्व में लोहे के औजारों को दिखाता है। जोकि इलाहाबाद क्षेत्र में है।

जब आर्य पहले भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में बसा, तब प्रयाग उनके क्षेत्र का हिस्सा था हालांकि, इसका निपटान नहीं हुआ था और उस समय दोआब में से अधिकांश घने जंगलों के होते थे ।

उस समय की कार्रवाई का केंद्र पंजाब में था, जहां वेदों को लिखा गया था। उस समय के दौरान लिखी गई ऋगवेद, प्रयाग का एक पवित्र स्थान के रूप में विशेष उल्लेख करती है। वत्स या, वंश को कुरु की एक शाखा कहा जाता है। कुरु ने दोआब और कुरुक्षेत्र क्षेत्र पर हस्तिनापुर (वर्तमान में दिल्ली के पास) से शासन किया । बाद में वैदिक काल में, जब हस्तिनापुर बाढ़ से नष्ट हो गया था, कुरु राजा निचक्षु ने अपनी पूरी पूंजी को अपने नागरिकों के साथ [[प्रयाग] के आगे एक स्थान पर स्थानांतरित कर दिया, जिसे उन्होंने कौशाम्बी (प्राचीन नगर) (इलाहाबाद से 56 किमी दूर गांव कोसाम) के नाम से रखा ।

वत्स या वामसा देश उत्तर प्रदेश में आधुनिक इलाहाबाद के क्षेत्र के साथ जुड़ा हुआ है। कौशाम्बी (प्राचीन नगर) में इसकी राजधानी के साथ सरकार का एक राजशाही रूप था, जो अब इलाहाबाद मंडल का हिस्सा है। उदयिन 6वीं ईसा पूर्व (बुद्ध का समय) में वत्स का शासक था, वह बहुत शक्तिशाली, युद्धक और शिकार का शौक था प्रारंभ में राजा उदयिन बौद्ध धर्म के विरोध में था लेकिन बाद में बुद्ध का अनुयायी बन गया और बौद्ध धर्म को राज्य धर्म बनाया।

वैदिक काल के बाद, गतिविधि के केंद्र को पंजाब से हटाकर दोआब में आर्यवर्त के रूप में स्थानांतरित किया गया, जिससे कौशाम्बी (प्राचीन नगर) और प्रयाग दोनों का महत्व काफी बढ़ गया। दरअसल, प्रयाग वैदिक संस्कृति और आधुनिक हिंदू धर्म के उदय का केंद्र बन गया, जैसा कि आज हम जानते हैं आने वाली शताब्दियों में, कौशाम्बी (प्राचीन नगर) भी बौद्ध धर्म की एक महत्वपूर्ण जगह बन गई थी।

बाद में कुरु को (कुरु और वत्स) में अलग-अलग विभाजित किया गया तब कुरु ने ऊपरी दोआब और कुरुक्षेत्र क्षेत्र को नियंत्रित करते हुए, और जबकि वत्स मध्य और निचले दोआब को नियंत्रित करने लगा, लेकिन बाद में वत्स को भी दो समूहों में बांटा गया, जिसमें मथुरा में एक समूह का शासन था, और कौशाम्बी (प्राचीन नगर) में दूसरे समूह का शासन था।

रामायण महाकाव्य युग के दौरान, पवित्र नदियों के संगम पर कुछ ऋषि झोपड़ियों से प्रयाग बनाया गया था, और बहुत से ग्रामीण इलाकों में जंगल निरंतर था। भगवान राम, रामायण में मुख्य नायक, ऋषि भारद्वाज के आश्रम में चित्रकूट जाने से पहले यहां कुछ समय बिताया।

15वीं शताब्दी[संपादित करें]

अकबरनामा और आईने अकबरी तथा अन्य मुगलकालीन ऐतिहासिक पुस्तकों से ज्ञात होता है कि अकबर ने सन्‌ 1574 ई. के लगभग यहाँ पर किले की नींव डाली तथा एक नया नगर बसाया जिसका नाम उसने इलाहाबाद रखा। इससे बरबस ही यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि यदि यहाँ अकबर द्वारा नए नगर की स्थापना हुई तो प्राचीन प्रयाग का क्या हुआ। कदाचित्‌ किले के निर्माण के पूर्व ही प्रयाग गंगा की बाढ़ के कारण नष्ट अथवा बहुत छोटा हो गया होगा। इस बात की पुष्टि वर्तमान भूमि के अध्ययन से भी होती है। वर्तमान प्रयाग रेलवे स्टेशन से भारद्वाज आश्रम, गवर्नमेंट हाउस, गवर्नमेंट कालेज तक का ऊँचा स्थल अवश्य ही गंगा का एक प्राचीन तट ज्ञात होता है, जिसके पूरब की नीची भूमि गंगा का पुराना कछार रही होगी जो सदैव नहीं तो बाढ़ के दिनों में अवश्य जलमग्न हो जाती रही होगी। संगम पर बने किले की रक्षा के हेतु बेनी तथा बख्सी नामक बाँधों को बनाना भी अकबर के लिए आवश्यक रहा होगा। इन बाँधो द्वारा कछार का अधिकांश भाग सुरक्षित हो गया। वर्तमान खुसरो बाग तथा उसमें स्थित मकबरे जहाँगीर के काल के बने बताए जाते हैं। मुसलमानी शासन के अंतिम काल में नगर की दशा कदाचित्‌ अच्छी नहीं थी और उसका विस्तार (ग्रैंड ट्रंक रोड के दोनों ओर) बाढ़ से रक्षित भूमि तक ही सीमित था। सन्‌ १८०१ ई. में नगर अंग्रेजों के हाथ आया, तब उन्होंने यमुनातट पर किले के पश्चिम अपनी छावनियाँ बनाई। फिर बाद में, वर्तमान ट्रिनिटी चर्च के आसपास भी इनके बँगले तथा छावनियाँ बनीं।

सन्‌ 1857 ई. के गदर में ये छावनियाँ नष्ट कर दी गई तथा नगर को बहुत क्षति पहुँची। गदर के पश्चात्‌ 1858 ई. में इलाहाबाद को उत्तरी पश्चिमी प्रांतों की राजधानी बनाया गया। वर्तमान सिविल लाइंस की योजना 1761 ई. में बनी और 1775 तक वह पर्याप्त बस गई। यद्यपि इलाहाबाद और कानपुर तक की रेलवे लाइन गदर के पूर्व बन चुकी थी, तो भी नगर का व्यापारिक महत्व 1865 ई. में यमुना पर पुल बनने के पश्चात्‌ बढ़ा। गत शताब्दी के अंत तक नगर में कई महत्वपूर्ण इमारतें तथा संस्थाएँ निर्मित हुइ जिनमें मेयो हाल, म्योर कालेज, गवर्नमेंट प्रेस तथा हाईकोर्ट मुख्य हैं। चौक के चुंगीघर तथा पास के बाजार का निर्माण भी इसी समय हुआ।

गत ५० वर्षो में नगर का विस्तार अधिक हुआ है। जार्ज टाउन, लूकरगंज तथा अन्य नए महल्ले बसाए गए। इलाहाबाद फैजाबाद रेलवे लाइन 1905 ई. में तथा झूसी से सिटी (रामबाग) स्टेशन तक की रेलवे लाइन 1912 में बनी। इलाहाबाद इंप्रूवमेंट ट्रस्ट द्वारा नगर के बहुत से भागों में कई छोटी छोटी बस्तियाँ भी बसाई गई तथा नई सड़कों का निर्माण हुआ। परंतु उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ चली जाने से इस नगर की उन्नति रुक गई। अब यहाँ यूनिवर्सिटी और हाईकोर्ट होने के कारण तथा इसके तीर्थस्थान होने के कारण ही नगर का महत्व है। युमना के उस पार नैनी में एक व्यावसायिक उपनगर बसाने का प्रयत्न हो रहा है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • तीर्थराज प्रयाग: इतिहास के आईने में
  • "History of Allahabad". AllahabadInfo.com. मूल से 19 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2017-05-09.</ref>
  • "Allahabad - Allahabad City - Allahabad Holy City - Prayag". Varanasicity.com. मूल से 26 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2017-05-09.</ref>
  • तीर्थराज प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान श्री माधव जी की प्राचीनतम परिक्रमा Oldest parikrama on earth