चण्डीमङ्गल

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चण्डीमङ्गल ( बांग्ला: চণ্ডীমঙ্গল ) मध्यकालीन बांग्ला साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण शैली, मंगलकाव्य की एक महत्वपूर्ण उप-शैली है। इस धारा के दो अन्य उल्लेखनीय काव्य हैं- मनसामङ्गल और धर्ममङ्गल हैं। चण्डीमङ्गल ग्रंथों में चण्डी या अभया की स्तुति होती है। चण्डी मूलतः एक लोक देवी थीं, लेकिन बाद में पौराणिक देवी चंडी के साथ इनका सम्बन्ध जोड़ दिया गया। आरम्भिक चण्डीमङ्गल रचनाओं में जिन 'अभया' की स्तुति की गयी है वे महिषासुरमर्दिनी चण्डी नहीं थीं। अभया मुखयः वनदेवी या ऋग्वेद के दशम मण्डल के अरण्यानी स्तव के साथ जुड़ी थीं।

चण्ड़ीमङ्गल, देवी चण्डी के महिमा के गीत हैं।चण्डीमंगल शैली के अधिकांश ग्रंथों में दो परस्पर असंबंधित आख्यान होते हैं - (१) कालकेतु और उसकी पत्नी फुल्लारा की कथा आखेटिक खण्ड कहलाता है, तथा (२) धनपति और उनकी पत्नियों ( लहना और खुल्लना) की कथा को बणिक खण्ड कहा जाता है। इन दोनों आख्यानों का उल्लेख शायद बृहद्धर्म पुराण (बंगबासी संस्करण, उत्तराखंड, अध्याय १६) के एक श्लोक में भी किया गया था। मुकुन्दराम के ग्रन्थ एक अतिरिक्त खण्ड, देव खण्ड मिलता है। इस खण्ड में सती और पार्वती के आख्यान होते हैं और अधिकांशतः पुराणों की शैली का अनुसरण करते हैं।

आखेटिक खण्ड[संपादित करें]

आखेटिकखण्ड, शिकारी कालकेतु और उसकी पत्नी फुल्लरा के प्रति देवी के अनुग्रह की कथा है। देवी के अनुरोध पर भगवान शिव अपने भक्त नीलाम्बर को शाप देकर मर्त्यलोक में भेज देते हैं। नीलाम्वर, कालकेतु बनकर जन्मग्रहण करता है। कालकेतु जब जवान हो गया तब उसके पिता धर्मकेतु फुल्लरा के साथ उसका विवाह कर दिये। कालकेतु का परिवार अति दरिद्र किन्तु सुखी संसार था।

एक बार शिकार पर जाते हुए कालकेतु को एक सुनहरा सर्प मिला (जो वास्तव में भेष बदलकर चण्डी देवी ही थीं)। कालकेतु सर्प को (खाने के लिये) घर ले आया। कालकेतु के घर आकर चण्डी फुल्लरा के समक्ष एक सुन्दर युवती के रूप में आ गयीं। उनको देखकर जब फुल्लरा ने प्रश्न किया तो वे बोलीं-

इलावृत देशे घर जातिते व्राह्मणी
शिशुकाल हैते आमि भ्रमि एकाकिनी।
वन्द्यवंशे जन्म स्वामी वापेरा घोषाल
सता साथे गृहे वास विषम जञ्जाल।
तुमि गो फुल्लरा यदि देह अनुमति
एइ स्थाने कथ दिन करिव वसति।
हेन वाक्य हैल यदि अभयार तुन्डे
पर्वत भाड़िया पड़়े फुल्लरार मुन्डे
हृदे विष मुखे मधु जिज्ञासे फुल्लरा
क्षुधा तृष्णा दूरे गेल रन्धनेर त्वरा।

जब चण्डी ने उनके परिवार का अत्यन्त दयनीय स्थिति देखी तो उन्होंने उन्हें सुखी होने का वर दिया। कालकेतु और फुल्लरा रातोंरात धनवान बन गये। प्राप्त धन से उन दोनों ने 'गुजरात' नामक एक नया नगर बसाया। जो लोग उस नगर में बसने आये उसमें भाण्डुदत्त नामक एक भ्रष्ट व्यक्ति भी था। भाण्डुदत्त, कालकेतु का अत्यन्त निकट मित्र बन गया। पहले तो कालकेतु, भाण्डु पर विश्वास करता था किन्तु बाद में जब कालकेतु को पता चला कि भाण्डु अपनी प्रजा पर अत्याचार करता है, तब कालकेतु ने भाण्डु से सम्बन्ध तोड़ लिया। भाण्डु, कलिंग चला गया जहाँ वह वहाँ के राजा को कालकेतु पर आक्रमण करने के लिये प्रेरित किया। कालकेतु पराजित हो गया और कारा में बन्द कर दिया गया। किन्तु अन्त में चण्डी की कृपा से कालकेतु सारी समस्याओं पर विजय पाते हुए मृत्यु के बाद स्वर्ग गया।

चण्डीमङ्गल के भाँडदत्त का चरित्र खूब निखरा है। बह धूर्तता की एक जीवित मूर्ति है, दाव-पेंच में शकुनि का समकोटिक।

वणिक खण्ड[संपादित करें]

धनपति की कथा

उज्जयिनी के धनपति नामक वणिक की पत्नी पत्नी का नाम लहना था। वह निस्सन्तान थी। धनपति ने खुल्लना से अपना दूसरा विवाह कर लिया। वह रतनमाला अप्सरा थी, जो शाप से नारी बन गई थी। लहना ने सौत को अपार कष्ट दिये। वणिक एक बार जब बाहर गया, खुल्लना की सौत ने बड़ी दुर्गत की। धनपति ने लौटकर फिर सँभाला। खुल्लना गर्भवती थी कि धनपति को सिंहल जाना पड़ा। मार्ग में समुद्र में उसने एक विचित्र घटना देखी। कमल पर एक सुन्दरी बैठी है ओर बार-बार एक हाथी को निगलती-उगलती है।

घटना धनपति ने सिंहल के राजा से कही। सिंहल के राजा ने उसे झूठ कहकर खिल्ली उड़ाई। धनपति ने आँखों दिखाने की प्रतिज्ञा की जो वह पूरी न कर सका और वहाँ कैद में डाल दिया गया।

इधर खुल्लना के सुन्दर लड़का हुआ - श्रीमन्त। बड़े होने पर उसे खोये पिता को लौटा लाने की धुन सवार हुई। उसने भी सिंहल की यात्रा की और रास्ते में वही घटना देखी। वह भी सिंहल-नरेश को यह घटना प्रत्यक्ष नहीं दिखा सका। उसे प्राण-दण्ड को आज्ञा हुई। अब चण्डी देवी को दया आ गयी। उनने राजा से सबको छोड़ देने को कहा, पर राजा ने एक न सुनी।

फिर क्या था, भूत-प्रेतों की सेना सिंहल पर चढ़ दौड़ी। राजा हार गए और उसने सबको छोड़ दिया। श्रीमन्त से उसने अपनी बेटी का ब्याह कर दिया। सब लोग लोटे और सुख से रहने लगे।

चण्डीमङ्गलकाव्य के कवि[संपादित करें]

चण्डीमंगल के सबसे प्रसिद्ध कवि कवि मुकुन्दराम चक्रवर्ती ही हुए। माधवाचार्य का 'चण्डीमङ्गल' उनसे पहले का है और सम्भवतः १५८०में लिखा गया। किन्तु भाषा, कवित्व-शक्ति और चरित्र-वर्णन में कवि कंकण के आगे कोई नहीं लगता | बाद में भी इस विषय के जितने काव्य लिखे गए, फीके रहे। कवि कंक्रण की शेली यथार्थवादी है और उनके काव्य में १६वीं सदी के बंगाल का जीता-जागता चित्र मिलता है। डॉ० ग्रियर्सन ने तो उनकी कविता के लिए लिखा है- 'वह हृदय से निकलती है, मस्तिष्क से नहीं।' तत्कालीन जातीय जीवन की स्थिति, दुःख-दर्द आदि सभी इनके वर्णन से जीवन्त हो उठे हैं।

चण्डीमङ्गलकाव्य में सामाजिक जीवन[संपादित करें]

चण्डीमङ्गलकाव्य में तत्कालीन समाज (मध्ययुगीन बंगाल) का जीवन्त चित्र है। इस युग में धनी और निर्धन दोनों वर्गों में बहुविवाह प्रचलित था। मुगल शासन के आरम्भिक काल में, मध्यस्तर के तथा निम्नस्तर के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार व्याप्त था। मुकुन्दराम ने अपने ग्रन्थ में समुद्री यात्राओं का वर्णन किया है, नगरों के विकास का वर्णन है, तथा विविध प्रकार की ग्राम्य एवं नगरीय समुदायों के जीवनशैली पर प्रकाश डाला है। इतना ही नहीं, वनों को काटकर नयी बस्तियाँ बसाने का वर्णन भी है।

मुसलमानी शासन का उत्पीड़न

मुसलमानी राज्यकाल में हिन्दुओं पर बहुत से अत्याचार-उत्पीड़न हुए, जिससे समाज एक आतंक से त्रस्त था। कर की अदायगी में बढ़ी कड़ाई बरती-जाती थी। कानून में काफ़िरों पर मुस्लिम दीवान को जुल्म ढाने का साफ अधिकार दिया गया था। कर न चुकाने पर हिन्दुओं को मुँह खोलकर मुसलमान से उसमें थुकवा लेने की तम्बीह थी। ऐसे ही एक जुल्मी महमूद शरीफ़ का जिक्र कवि कंकण ने किया है। उन्होने लिखा है कि,

"आज के राजा मानसिंह धन्य हैं कि उन्होंने गौड़, बंग और उत्कल की प्रजा को सुख से रखा है। विधर्मी मुसलमान राजा ( सम्भवतः हुसेन कुली खाँ या मुजफ़्फ़र खाँ ) के समय प्रजा पर महमूद शरीफ ने तो बेहद जुल्म ढाये।"

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]