हिंदू पर्सनल लॉ

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हिंदू पर्सनल लॉ (हिंदू स्वीय विधि) का तात्पर्य है - हिंदुओं के मामलों में लागू होने वाले क़ानून।ये क़ानून भारत में औपनिवेशिक काल (ब्रिटिश राज) के दौरान लागू किए गए। ये क़ानून एंग्लो-हिंदू कानून से प्रारंभ होकर तब तक लागू रहे जब तक स्वतंत्रता के पश्चात् आधुनिक हिंदू विधि लागू नहीं हो गई। इस संबन्ध में अंग्रेज़ों को भारत के विविध समुदायों पर लागू वाला कोई एक समान सिद्धांत नहीं मिला और न ही ऐसा कोई पोप या शंकराचार्य मिला जिसके कानून या आदेश पूरे देश में लागू होते हों। एक ही मामले पर पंडितों की भिन्न-भिन्न राय होने के कारण, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सहायता के लिए पण्डितों को प्रशिक्षित करना प्रारंभ किया। फलस्वरूप बनारस और कलकत्ता में एक संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई ताकि अंग्रेज़ों को भारतीय कानूनों के संबन्ध में एक निश्चित अन्दाज़ा मिल सके। प्रणाली। यहीं से हिंदू पर्सनल लॉ की शुरुआत हुई। सही रूप से इसकि शुरुआत तब हुई जब 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने विवाह, तलाक, विरासत और उत्तराधिकार के चार मत्वपूर्ण दीवानी मामलों में हिंदू शास्त्रों में उल्लिखित विधि के एक डाइजेस्ट को संकलित करने के लिए बंगाल के दस ब्राह्मण विद्वानों को नियुक्त किया। हिंदू पर्सनल लॉ में समय के साथ महत्वपूर्ण सुधार हुए और साथ ही ये पूरे भारत में सामाजिक और राजनीतिक विवाद के कारण भी बने।

प्रभाव

एंग्लो-हिंदू कानून के निर्माण से शुरू होने हिंदू पर्सनल लॉ के कारण हिंदू समाज और मठों में प्रत्येक स्तर पर व्यापक परिवर्तन हुए और विवादों और दीवानी मुक़दमों की शुरुआत हो गई । 1860 और 1940 के बीच, एंग्लो-हिंदू कानून में उत्तराधिकार के मुद्दे ने सन्यासियों द्वारा संचालित संस्थानों में संपत्ति के स्वामित्व और विभाजन के कानूनी मुद्दों को जन्म दिया। बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्ष इस बात के साक्षी रहे हैं कि सन्यासियों द्वारा संचालित संस्थानों ने औपनिवेशिक अदालतों में लड़े गए संपत्ति सम्बंधी वादों के माध्यम से अपनी वंशावली को दुरुस्त करने की मांग की, जिसके फलस्वरूप ऐसे कुछ संस्थानों से महिलाओं और बच्चों को सफलतापूर्वक अलग कर दिया गया।