उक्यांग नागवा

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उक्यांग नागवा, भारत के सन 2001 के डाक टिकट पर

उक्यांग नागवा (U Kiang Nangbah ; -- १८६२ ) मेघालय के एक स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्हें 30 दिसंबर 1862 को पश्चिमी जयंतिया हिल्स जिले के जोवाई शहर के इवामुसियांग में सार्वजनिक रूप से अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। 2001 में उनकी स्मृति में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट जारी किया गया था। उनके सम्मान में 1967 में जोवाई में एक सरकारी कॉलेज भी खोला गया था। [1]

18वीं शताब्दी में मेघालय की पहाड़ियों पर अंग्रेजों का शासन नहीं था। वहां खासी और जयन्तिया जनजातियां स्वतन्त्र रूप से रहती थीं। इस क्षेत्र में 30 छोटे-छोटे राज्य थे। इनमें से एक जयन्तियापुर था। अंग्रेजों ने जब यहां हमला किया, तो उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्तर्गत जयन्तियापुर को पहाड़ी और मैदानी भागों में बांट दिया। इसी के साथ उन्होंने निर्धन वनवासियों को धर्मान्तरित करना भी प्रारम्भ किया। राज्य के शासक ने भयवश इस विभाजन को मान लिया, पर जनता और मंत्रिपरिषद ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने राजा के बदले उ कियांग नांगवा को अपना नेता चुन लिया। उ कियांग ने जनजातीय वीरों की सेना बनाकर जोनोई की ओर बढ़ रहे अंग्रेजों का मुकाबला किया और उन्हें पराजित कर दिया।

पर, अंग्रेजों की शक्ति अपेक्षाकृत बहुत अधिक थी। अंग्रेजों ने वर्ष 1860 में सारे क्षेत्र पर दो रुपये गृहकर लगा दिया। जयन्तिया समाज ने इस कर का विरोध किया। उ कियांग नांगवा एक श्रेष्ठ बांसुरी वादक भी थे। वह वंशी की धुन के साथ लोकगीत गाते थे। इस प्रकार वह अपने समाज को तीर और तलवार उठाने का आह्वान करते थे। अंग्रेज इसे नहीं समझ पाते थे, पर स्थानीय लोग संगठित हो गये और वे हर स्थान पर अंग्रेजों को चुनौती देने लगे। इसके बाद अंग्रेजों ने कर वसूली के लिए कठोर उपाय अपनाने प्रारम्भ किये, पर उ कियांग के आह्वान पर किसी ने कर नहीं दिया। इस पर अंग्रेजों ने उन भोले वनवासियों को जेलों में ठूंस दिया। इतने पर भी उ कियांग नांगवा उनके हाथ नहीं लगे। वह गांवों और पर्वतों में घूमकर देश के लिए मर मिटने को समर्पित युवकों को संगठित कर रहे थे। धीरे-धीरे उनके पास अच्छी सेना हो गयी।

उ कियांग ने योजना बनाकर एक साथ सात स्थानों पर अंग्रेज टुकड़ियों पर हमला बोला। सभी जगह उन्हें अच्छी सफलता मिली। यद्यपि वनवासी वीरों के पास उनके परम्परागत शस्त्र ही थे, पर गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के कारण वे लाभ में रहे। वे अचानक आकर हमला करते और फिर पर्वतों में जाकर छिप जाते थे। इस प्रकार 20 माह तक लगातार युद्ध चलता रहा। अंग्रेज इन हमलों और पराजयों से परेशान हो गये। वे किसी भी कीमत पर उ कियांग को जीवित या मृत पकड़ना चाहते थे। उन्होंने पैसे का लालच देकर उसके साथी उदोलोई तेरकर को अपनी ओर मिला लिया। उन दिनों उ कियांग घायल थे और साथियों ने इलाज के लिए उन्हें मुंशी गांव में रखा हुआ था। उदोलोई ने अंग्रेजों को यह सूचना दे दी।

फिर क्या था ? सैनिकों ने साइमन के नेतृत्व में मुंशी गांव को चारों ओर से घेर लिया। उ कियांग की स्थिति लड़ने की बिल्कुल नहीं थी। इस कारण उसके साथी नेता के अभाव में टिक नहीं सके। फिर भी उन्होंने समर्पण नहीं किया और युद्ध जारी रखा। अंग्रेजों ने घायल उ कियांग को पकड़ लिया। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि यदि तुम्हारे सब सैनिक आत्मसमर्पण कर दें, तो हम तुम्हें छोड़ देंगे। पर वीर उ कियांग नांगवा नागवा ने इसे स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचार भी उनका मस्तक झुका नहीं पाये। अन्ततः 30 दिसम्बर, 1862 को अंग्रेजों ने मेघालय के वनवासी वीर को सार्वजनिक रूप से जोनोई में ही फांसी दे दी।[2]

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