मंडन मिश्र (संस्कृत विद्वान)

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डॉ मंडन मिश्र (७ जून १९२९ - १५ नवम्बर, २००१) संस्कृत के प्रसिद्ध पण्डित थे जिन्होने श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की। सन् २००० में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

डॉ॰ मण्डन मिश्र का जन्म 7 जून 1929 ई. को जयपुर से 50 किलोमीटर दूर हणूतिया नामक गाँव में हुआ। आपके पिता पं॰ श्री कन्हैयालाल मिश्र कर्मकाण्ड के अच्छे विद्वान् थे। डॉ॰ मिश्र की प्रारम्भिक शिक्षा अमरसर और उच्च शिक्षा जयपुर में हुई। आपने मीमांसा और साहित्य में सर्वोत्तम श्रेणी में आचार्य, तथा संस्कृत में सर्वोत्तम श्रेणी से एम.ए. एवं मीमांसा दर्शन का समालोचनात्मक इतिहास विषय पर राजस्थान विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।

सामाजिक सेवायें[संपादित करें]

डॉ॰ मिश्र ने महाराजा संस्कृत कालेज जयपुर में अध्यापक के रूप में सेवा कार्य प्रारम्भ किया तथा वहीं व्याख्याता और प्राफेसर के रूप में पदोन्नत हुये। सन् 1947 ई. में बड़ी संख्या में पुरूषार्थियों के जयपुर में आने पर आपने उनको स्थानीय जनता और व्यवसाय में जमाने की दृष्टि से भारतीय साहित्य विद्यालय की स्थापना की, जिसके माध्यम से अनेक रात्रि शालायें चलाकर 20 हजार से अधिक सिन्धी भाई-बहिनों को हिन्दी सिखाने का कार्य किया। यह डॉ॰ मिश्र द्वारा समाज सेवा का श्रीगणेश था। दिल्ली जैसे महानगर में आवासीय गृह समूह के रूप में संस्कृत भवन सोसायटी का निर्माण आप ही के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ जो कि सामुदायिक समाज सेवा का प्रत्यक्ष निदर्शन है। राजस्थान भारत सेवक समाज के सचिव संयुक्त संयोजक के रूप में आपने प्रदेश के युवकों में नई जागृति पैदा की और उसी के माध्यम से भारत सेवक समाज के अध्यक्ष पं॰ जवाहर लाल नेहरू तथा प्रदेश के प्रतिष्ठित नेताओं के सम्पर्क में आये। भारत साधु समाज की स्थापना के उद्देष्य से श्री गुलजारी लाल नन्दा एवं श्री माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में सन् 1956 में नाथद्वारा में अखिल भारत साधु सम्मेलन तथा सन् 1959 ई. में भीलवाड़ा (राजस्थान) में अखिल भारत सेवक समाज का अधिवेशन पं॰ जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में आयोजित किया। इन दोनों आयोजनों से डॉ॰ मिश्र के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व उभर कर सामने आया जो संस्कृत में विद्वत्ता के साथ साथ समाज सेवा और महनीय नेताओं के योग से लेखन भाषण संघटन तथा प्रशासन कौशल के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी एक अत्यन्त सुदृढ़ आधार स्तम्भ लेकर विकसित हुआ। डॉ॰ मिश्र उस समय राजस्थान संस्कृत साहित्य सम्मेलन के भी मन्त्री थे उनके प्रयास और श्री लक्ष्मीलाल जोशी जैसे मनीषियों के सहयोग से यशस्वी नेता श्री मोहनलाल सुखाडिया के मुख्यमंत्रित्व में राजस्थान में संस्कृत के अलग निदेशालय की स्थापना हुई और राजस्थान विश्वविद्यालय में प्राच्य विद्या संकाय प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया। आप द्वारा स्थापित अनेक विद्यालय वर्तमान में उच्च स्तरीय राजकीय महाविद्यालयों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। पंजाब समस्या के प्रारम्भ में लोकनायक श्रीमती इन्दिरा गांधी के संकेत पर डॉ॰ मिश्र ने एक राष्ट्रीय बुद्धिजीवी सम्मेलन का आयोजन किया जिसका उद्घाटन श्रीमती गान्धी ने किया और वे सम्मेलन में 3 घण्टे उपस्थित रही।

राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृत की प्रतिष्ठा[संपादित करें]

महामना पं॰ मदन मोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित संस्कृत के प्रतिनिधि संगठन अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन के डॉ॰ मण्डन मिश्र सन् 1956 ई. में मन्त्री तथा सन् 1959 ई. में महामन्त्री पद के लिए चयनित हुए। अखिल भारतीय संस्कृत सम्मेलन को उस समय संगठन तथा साधन सुविधाओं की दृष्टि से एक युवा नेता की आवश्यकता थी। डॉ॰ मिश्र ने उसमें नव जीवन का संचार किया और सभी प्रदेशों में उसकी शाखायें स्थापित की। इनके निर्देशन में विश्व संस्कृत शताब्दी योजना का प्रवर्तन हुआ, जिसका उद्घाटन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद जी ने किया। इस सम्मेलन ने संस्कृत के विकास के क्षेत्र में आधार-शिला का कार्य किया और भारत की राजधानी दिल्ली में एक संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना का महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद की प्रेरणा से सम्मेलन के तत्कालीन पदाधिकारी पंजाब के राज्यपाल श्री नरहरि विष्णु गाडगिल और भारत के गृह राज्यमंत्री श्री बलवन्त नागेश दातार तथा प्रसिद्ध उद्योगपति श्री शान्ति प्रसाद जैन आदि महानुभावों ने डॉ॰ मिश्र की सेवायें राजस्थान सरकार से मांगी और उन्होंने 1962 ई. में दिल्ली आकर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की। उस समय दिल्ली प्रशासन में संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की। उस समय दिल्ली प्रशासन में संस्कृत की संस्थाओं की सहायता का कोई नियम नहीं था। अधिक से अधिक एक हजार रूपये वार्षिक की सहायता का कोई नियम नहीं था। अधिक से अधिक एक हजार रूपये वार्षिक की सहायता प्रत्येक संस्था को दी जाती थी। डॉ॰ मिश्र के प्रयासों से सभी संस्कृत विद्यालयों को प्रशासन द्वारा 85% (प्रतिशत) सहायता देने का निर्णय हुआ। इसके परिणाम स्वरूप अब प्रत्येक संस्था को लाखों रूपये की आर्थिक सहायता प्रशासन से मिलती है। डॉ॰ मिश्र सभी संस्थाओं को साथ लेकर चले। सौभाग्य से कुछ समय बाद प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार की और डॉ॰ मिश्र ने राजस्थान की 17 वर्षों की सेवा और राजस्थान में सामाजिक तथा सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठा के आधार पर प्रत्यक्ष दृष्यमान सत्ता की निकटता के मोह को छोड़कर संस्कृत के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। अचानक श्रीशास्त्री जीे के निधन के बाद डॉ॰ मिश्र के प्रयासों से श्रीमती इन्दिरा गांन्धी ने डॉ॰ सम्पूर्णानन्द जी के अनुरोध पर सम्मेलन तथा विद्यापीठ का सभापतित्व स्वीकार किया और 1967 ई. में श्री शास्त्रीजी का स्मृति में श्री लालबहादुर शास्त्री राष्टि्रय संस्कृत विद्यापीठ के रूप मे नाम परिवर्तित कर इसे भारत सरकार को संभला दिया। डॉ॰ मिश्र इसके संस्थापक निदेशक रहे। इनकी साधना से दिल्ली विद्यापीठ 1989 में मानित विश्वविद्यालय के रूप में समुन्नत हुआ। डॉ॰ मिश्र इसके प्रथम संस्थापक कुलपति नियुक्त किये गये। एक व्यक्ति के द्वारा रात्रि पाठशाला से प्रारम्भ कर जून, 1994 में इसके कुलपति पद से विश्राम ग्रहण करने के अनन्तर 1 जनवरी 1996 से उत्तरप्रदेश शासन ने डॉ॰ मिश्र को सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के कुलपति पद पर नियुक्त किया। उनका तीन वर्ष से अधिक का कार्यकाल इस विश्वविद्यालय के इतिहास में सदा उल्लेखनीय रहेगा। समय पर परीक्षायें कराना, सत्र नियमित करना, 115 ग्रंथों का प्रकाशन, सरस्वती मन्दिर की पूर्णता और उसकी प्राण प्रतिष्ठा राष्ट्रपति पं॰ शंकर दयाल शर्मा एवं श्री के.आर.नारायणन् के मुख्य आतिथित्व में दो दीक्षान्त समारोह किये दो-दो राष्ट्रपतियों का विश्वविद्यालय के इतिहास में एक अनुपम घटना है। अपने स्वनामधन्य गुरू आचार्य पट्टाभिराम शास्त्री के स्मृति में आपने वाराणसी में श्री पट्टाभिराम शास्त्री वेद मीमांसा अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की है जो वाराणसी में एक भव्य नवनिर्मित भवन में चल रहा है- आप इसके संस्थापक अध्यक्ष कांची शंकराचार्य द्वारा मनोनीत किये गये है।

अध्यापक एवं लेखक[संपादित करें]

एक उत्तम अध्यापक से लेकर लेखक के रूप में इनकी सेवायें विख्यात रही है। डेढ़ सौ से भी अधिक ग्रन्थों का संपादन और प्रकाशन आपके निर्देशन में हुआ है।

विदेशों में सम्मान[संपादित करें]

डॉ॰ मिश्र में 1984 में अमेरिका में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व किया और जुलाई 1993 ई. में न्यूयार्क में अथर्ववेद सम्मेलन में भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए। जनवरी 1994 ई. में आस्ट्रेलिया में विश्वसंस्कृत सम्मेलन में भाग लिया। आपने इटली में श्री लालबहादुर शास्त्री राष्टि्रय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय) नई दिल्ली के विशेष दीक्षान्त समारोह को संबोधित किया। इस समारोह में टोरिनों विश्वविद्यालय और टोरिनो नगर निगम ने आपको सम्मान पत्र स्मृति चिन्ह तथा पदक भेंट किये। इनके अतिरिक्त इंग्लैण्ड, फ्रान्स, बेल्जियम, सिंगापुर, थाइलेण्ड देशों की यात्रा कर आपने संस्कृत और भारतीय संस्कृति का संदेश प्रसारित किया। हांगकांग तथा लन्दन में आपने अन्तर्राष्ट्रीय गीता सम्मेलनों की अध्यक्षता की।

सम्मान एवं पुरस्कार[संपादित करें]

सामान्यवर्ग से लेकर देश के महान नेताओं और विद्वानों द्वारा डॉ॰ मिश्र को सम्मान प्राप्त हुए। दिल्ली साहित्य कला परिषद् ने सन् 1971 ई. में इनकी संस्कृत सेवाओं के लिए इन्हें सम्मानित किया। भारत सरकार ने सन् 1983 में उनको राष्ट्रपति सम्मान प्रमाण-पत्र से पुरस्कृत किया जो आजीवन 50 हजार रूपये के वार्षिक मानदेय के साथ चलता रहेगा। उत्तरप्रदेश संस्कृत अकादमी ने इनके ग्रन्थ पर 10 हजार रूपये का अखिल भारतीय शंकराचार्य पुरस्कार श्री राजीव गांधी के करकमलों से दिलाया। इनके मीमांसा दर्शन तथा संस्कृत सेवाओं से संबद्ध संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व के आधार पर सन् 1989 ई. में संसार का सर्वोत्कृष्ट एक लाख रूपये का विश्व संस्कृत भारत भारती पुरस्कार राष्ट्रपति डॉ॰ शंकर दयाल शर्मा ने प्रदान किया। श्रृंगेरी के वर्तमान शंकराचार्य श्री भारती तीर्थ स्वामी जी ने अभिनव विद्यातीर्थ महाराज ने उनको सन् 1966 में विद्या भारती की उपाधि से सम्मानित किया। उत्तर भारत के प्रथम विद्वान के रूप में राष्ट्रपति डॉ॰ शंकरदयाल जी के कर कमलों से स्वर्गीय राजीव गांधी की उपस्थिति में 1990 ई. में आपको पुरस्कृत करवाया। जगदगुरू रामानन्दाचार्य ने डॉ॰ मिश्र को ब्रहर्षि की उपाधि प्रदान की। दिल्ली संस्कृत अकादमी ने डॉ॰ मिश्र को 15 हजार रूपये के संस्कृत सेवा सम्मान से विभूषित किया। डॉ॰ मुरली मनोहर जोशी (पूर्व अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी) द्वारा अपनी माता चन्द्रावती जोशी की स्मृति में संस्थापित दस हजार रूपये का प्रथम संस्कृत सेवा पुरस्कार डॉ॰ मिश्र को दिया गया।

डॉ॰ मिश्र विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा नियुक्त संस्कृत, प्राकृत और पाली शास्त्रीय भाषाओं के पैनल के संयोजक (अध्यक्ष) रहे, जो देश के विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं में शोध तथा अध्ययन के विकास के क्षेत्र में आयोग को परामर्श देता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]