मानगढ़ हत्याकांड

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मानगढ़ स्मारक

मानगढ़ नरसंहार (Mangarh massacre) में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में १७ नवम्बर १९१३ को ब्रिटिश राज ने वर्तमान राजस्थान राज्य की मानगढ़ पहाड़ियों में गोविंदगुरु बंजारा के हज़ारों भील , बंजारा आदिवासी अनुयायीयों की गोली बरसाकर हत्या कर दी थी। यह जलियाँवाला बाग हत्याकांड के समरूप था।[1][2][3]

विवरण[संपादित करें]

मानगढ़ राजस्थान में बांसवाड़ा ज़िले का एक पहाड़ी क्षेत्र है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी लगती हैं। यह सारा क्षेत्र आदिवासी बहुल है। मुख्यतः यहां भील ,बंजारा आदिवासी रहते हैं। स्थानीय सामन्त, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकी अशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु बंजारा के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ जिसे 'भगत आन्दोलन' कहते हैं।

गोविन्द गुरु गोविंदगुरु बंजारा का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में एक बंजारा परिवार में हुआ। गोविंद गुरु बंजारा ने भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया था।[4] आंदोलन में अग्नि को प्रतीक माना गया था। अनुयायियों को अग्नि के समक्ष खड़े होकर धूनी करना होता था। 1883 में उन्होने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।[5]

कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।

17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु बंजारा ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित आदिवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से तक कही गयी है।

पुलिस ने गोविन्द गुरू बंजारा को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी। 1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "राजपूत जनसंहार: इतिहास में दफन सबसे बड़ी कुर्बानी". आजतक. 4 सितम्बर 2012. मूल से 2 फ़रवरी 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 3 फ़रवरी 2020.
  2. "Descendants of Mangad massacare seek recognition for past tragedy" (अंग्रेज़ी में). इंडिया टुडे. 10 सितम्बर 2012. मूल से 3 दिसंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 3 फ़रवरी 2020.
  3. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  4. पवार, डॉ. अशोकराव (2020). क्रांतिनायक :संत गोविंद गुरू बंजारा. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5578-848-1.
  5. अमर बलिदान का साक्षी मानगढ़ धाम