परा विद्या

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भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में, परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या परम सत्य को जानने से है। उपनिषदों में इसे उच्चतर स्थान दिया गया है। दूसरी विद्या अपरा विद्या है। वेदान्त कहता है कि जो आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें कैवल्य की प्राप्ति होती है, वे मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं।

शौनक ने जब अंगिरस से पूछा, – "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" (महोदय, वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?), तो उन्होने उत्तर दिया-

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिग्म्यते ॥ - (मुण्डकोपनिषद्)
( दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों ने बताया है, परा विद्या और अपरा विद्या। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्द, ज्योतिष - ये अपरा विद्या हैं। और परा विद्या वह है जिसके द्वारा वह 'अक्षर' (नष्ट न होने वाला) जाना जाता है।)

इन्हें भी देखें[संपादित करें]