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जाॅर्ज सिमेल[1] (१ मार्च, १८५८- २८ सितंबर, १९१८) एक समाजशास्त्री थे जो जर्मनी के प्रथम युग के समाज्शास्त्रियों में से एक होने के साथ- साथ एक दार्शनिक और आलोचक भी थे। सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों, प्रश्नों एवं घटनाओं पर उनके लिखने और भाषण मश्हूर हैं। वे मश्हूर समाजशास्त्री मैक्स वेबेर से परिचित थे और शैक्षिक मापदंडों को नहीं मानते हुए नवकांटवाद दर्शण के माध्यम से समाज का अर्थ, समाज में लोगों के व्यक्तित्व, प्रेम और भावनाओं पर प्रश्नों के जवाब ढूंढते थे। वे समाजशास्त्र के चार महान चरित्रों में से एक माने जाते हैं और उनके योगदान शहरी समाजशास्त्र, प्रतीकात्मक पारस्परिक विचार- विमर्श से समाज्शास्त्र का अध्ययन, सामाजिक जाल जैसे विषयों की ओर उनका योगदान काफ़ी सराहनीप है।

जाॅर्ज सिमेल

प्रारंभिक जीवन[संपादित करें]

जाॅर्ज सिमेल का जन्म प्रशिया राज्य के बर्लिन शहर में हुआ था, जो अब जर्मनी में है। वे समाज में अवशोषित एक यहूदी परिवार के सात बच्चों में सबसे छोटे थे। उनके पिता, एडुअर्ड सिमेल, ने यहूदी धर्म को छोड़ कैथोलिक धर्म को अपनाया । वे एक सफल और समृद्ध व्यवसायिक थे जिन्होने फीलिक्स अंड सारोट्टी नामक प्रतिष्ठित चॉकलेट कारखाने की स्थापना की। उनकी माँ एक यहूदी परिवार से थीं जिन्होने लूथर धर्म को अपनाया। सन् १८७४ में, जब सिमेल १६ साल के थे, उनके पिता का देहांत हो गया और अंतर्राष्ट्रीय संगीत प्रकाशन पीटर्स वेरलैग के स्थापक जूलियस फ्रीडलैंडर ने उनको गोद ले लिया एवं बड़ी संपत्ति दी जिसके बल पे सिमेल एक बड़े विद्वान बन पाए। उन्होंने हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्लिन में इतिहास और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की एवं सन् १८८१ में कांट के पदार्थ पर आधारित दर्शन पर प्रबंध लिखने पर, डॉक्टरेट प्रदान की गई।

कार्यक्षेत्र और परवर्ती जीवन[संपादित करें]

१८८५ में, सिमेल हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्लिन के एक प्रिवाटडोज़ेंट प्राध्यापक बने। अर्थात, उन्हें वहाँ से नियमित रूप से कोई तनख्वाह नहीं मिलती थी। उन्हें छात्र अपनी तरफ से फीस् देते थे। वहाँ, वे आधिकारिक तौर पर दर्शन पढ़ाते थे, पर वे समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, कला, तर्कशास्त्र, दार्शनिक निराशावाद और नीतिशास्त्र भी पढ़ाते थे। सन् १८९० में, गरट्रूड किनेल नामक दार्शनिक से उनका विवाह हुआ और बाद में, उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम था हैन्स् आॅएगन सिमेल और जो आगे जाकर एक डॉक्टर बना।

मैक्स वेबर, रेनर मारिया रिलक, स्टीफन जॉर्ज और एडमंड हसर्ल जैसे परिचित और मश्हूर विद्दों के समर्थन के बावजूद, सिमेल को शैक्षिक संप्रदाय में स्वीकृत होने में बहुत- सी कठिनाइयों सहना पड़ा। ऐसा इसलिये था क्योंकि उन्हें उस समय में यहूदी के रूप में जाना जाता था जब जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध प्रचार होने लगा था। इसके अलावा, वे अपने लेख शैक्षिक समाजशास्त्रियों को नज़र में नहीं रखते हुए आम श्रोता के लिये लिखते थे। इसके कारण, पेशेवर उनके विचारों और रचनाओं के प्रति नकारात्मक रवैया। साथ- ही- साथ, वे कई बार अन्य विश्वविद्यालयों के खाली पद में स्थान पाने में असफल रहे। तथापि, उनके व्याख्यान विश्वविद्यालय एवं बर्लिन के बुद्धिजीवियों में बहुत लोकप्रिय होने लगे, वे सन् १९०१ में एक्स्ट्राॅडिनरी प्रोफेसर, यानी पद से रहित असाधारण प्राधायपक बने, फर्डिनैंड टोंनीज़ और मैक्स वेबर के साथ जर्मन समाजशास्त्रीक संगठन की स्थापना की एवं पूरे यूरोप और अमेरिका में भी बहुत लोकप्रिय हुए।

सन् १९१४ में, वे स्ट्रॉसबर्ग विश्वविद्यालय में पद के साथ एक साधारण प्राध्यापक बने, पर प्रथम विश्व युद्ध के कारण, सारे विश्वविद्यालयों में पढ़ाई पर रुकाव हुआ और उनके कमरे सैनिक अस्पताल बनने लगे। इसके बाद, सिमेल अपनी नयी किताब ख़त्म करने के लिए ब्लैक फारेस्ट गए। बीच में, वे प्रथम विश्व युद्ध की घटनाओं के प्रति दिलच्स्पी दिखाने लगे और युद्ध में अपने देश जर्मनी के प्रति देश- भक्ति के बयान बनाने लगे, पर अंत में, वे इसपर सोचने से थक गये थे। सन् १९१८ में, जिगर के कर्कट रोग के कारण, उनकी मृत्यु हो गयी।

सिद्धांत और विचार[संपादित करें]

सिमेल[2] के समाजशास्त्रीय सिद्धांत में चार मुख्य अंग हैं। पहला अंग है सामाजिक जीवन में मनोवैज्ञानिक चीज़ों के काम करने का ढंग, लोगों के पारस्परिक रिश्तों में उनकी रूची, ज़ाईतगाईस्त यानी सामाजिक और सांस्कृतिक भावों के आकर और उसमे बदलाव एवं मनुष्यता के चरित्र और भविष्य में सिमेल की रूचि। दूसरा है द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति जहाँ सिमेल यह समझते थे की लोगों के पारस्परिक विचार- विमर्श में, सारी चीज़ें किसी- न- किसी तरह के एक- दुसरे के साथ विचार- विमर्श करते हैं। तीसरा है रचनात्मक व्यक्तिगत चेतना और सुजनता, जहाँ वे यह सोचते थे कि सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के खुद की ज़िंदगी होती है एवं लोग सद्भाव सौहार्द और आत्मीयता से मिलनसार होने लगते हैं। चौथे, वे सामाजिक रेखागणित में युग्मों और त्रय में लोगों कि स्थिति एवं विचार- विमर्श करने में अंतर पर ध्यान देते थे। इन सब से, उनके सबसे मश्हूर विचार महानगरीय क्षेत्र के जीवन पर मानसिक प्रभाव, मुद्रा के दर्शन, अजनबी की सामाजिक स्थिति, भूषाचार और चोंचलों पर है। इनमे से, उनके पहले दो विचार सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित करने वाले और प्रभावशाली रहे हैं।

महानगरीय क्षेत्र के जीवन पर मानसिक प्रभाव पर, उन्होंने सन् १९०३ में अपनी सबसे बहुचर्चित कृति लिखी, जो है 'द मेट्रोपोलिस एंड मेंटल लाइफ', यानी 'महानगर और मानसिक जीवन'। इस निबंध में, वे यह कहते हैं कि महानगर में श्रम का विभाजन, लोगों और समाज के ऐतिहासिक मूल, आधुनिकता और प्रौद्योगिकी एक शहरी निवासी के मन पर अच्छे और बुरे प्रभाव डालते हैं। सन् १९०० के 'फिलॉसोफी ऑफ़ मनी' यानी मुद्रा के दर्शन, जो उनकी सबसे बड़ी और मूल्यवान कृति है, मुद्रा की दृष्टि से जीवन की समग्रता का अध्ययन करती है, जो यह बताती है कि लोग चीज़ें बनाकर मूल्य बनाते हैं पर साथ- ही- साथ, उनसे बिछड़ते हैं एवं उन्हें पाने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश में, वे उनके खुद और चीज़ों के बीच की दूरी के आधार पर नहीं, बल्कि समय, चीज़ों की दुर्लभता, त्याग करने एवं चीज़ों को पाने में कठिनाइयों के आधार पर उन्हें मूल्य देते हैं।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Georg_Simmel
  2. http://highered.mheducation.com/sites/0072824301/student_view0/chapter8/chapter_summary.html