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भूता (दैव) का मुखौटा

भारत एक संस्कृतिक विविधतापूर्ण देश हैं। २००१ कि भारत की जनगणना के अनुसार भारत में १२२ मुख्य भाषायऍ और १५९९ अन्य भाषाऍ हैं, जो अलग-अलग नगरों में; अलग-अलग राज्याओं में बोली जाती हैं। इन भाषाओं में कर्नाटक राज्य कि मैंगलुरु तालुक (अथवा दक्षिन कन्नडा जिल्ला और उसके आस-पास वाली उडुपी और कासरगोंड जिल्ला) में बोंली जानें वाली भाषा तुलु हैं। तुलु भाषा बोलने वाली इस प्रदेश का अपना ही एक विशेष परंपरा हैं - भुता कोला अथवा दैव आराधना।

परिचय[संपादित करें]

भूता कोला/ दैव आराधना- की आचरन।

'तुलुनाडु' कि अपनी ही एक विशिष्ट संस्कृतिक परंपरा हैं। 'भूता कोला ' इन विशिष्ट संस्कृतिक परंपराओं में से एक हैं। इसे 'नेमा' भी केह सकते हैं। यह परंपरा बहुत लोक प्रिय हैं, बहुत प्रचलित हैं। भूता कोला अर्ताथ दैंव कि आराधना हैं। यह एक वार्षिक अनुष्टान प्रदर्शन हैं जो तुलुनाडु में रेहने वालें हर लोग, हर कुटुंब मानता है और उसका आचरन भी करता हैं। इनका विचार यह हैं की भूता कोला कि आचरन से सब लोग दैव कि कृपा कि पात्र बन जाते हैं और हमार पाप सब मिट जाएगा और गॉव कि सनकष्टी सब कुछ दूर हों जाएगा।

इतिहास[संपादित करें]

नृवंशविद व्यक्ति पीटर क्लॉज़ के अनुसार, तुलु पैंडदान एक ब्रह्माण्डविज्ञान प्रकट करते हैं, जो द्रविड़ द्रव्य है और पुराणिक हिंदू ब्रह्मांड विज्ञान से अलग है। भूता कोला का इतिहास बहुत पुराने युगों में देखा जा सकता है। लोग अपने फसल को जंगली जानवरों से बचाने और घातक रोगों से मुक्त होने के लिए इस अनुष्ठान का अभ्यास करते थे। लोगों का मानना ​​था कि दैवों की पूजा करना उनकी सभी समस्याओं का हल होगा। अब यह अनुष्ठान तुलुनाडु के लोगों द्वारा पालन किया जा रहा है।

आचरन[संपादित करें]

भूता कोला को शमानिज्म के एक रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। 'भूता कोला' इस परंपरा कि आचरन में नृत्य - संगीत और डोल, तबला, तुरही जैसी वाद्योपकरनों का इस्तमाल भी किय जाता हैं। दैव / भूता का पात्र पेहने वाले पर रंग - बिरंगी वेश-भूश का इस्तमाल किय जाता हैं। संगीत का गायन तुलु भाषा में ही किया जाता हैं। माना जाता हैं कि भूता कोला कि आचरन से सब पाप मिट जाता हैं।भूता कि अलंकार में भरी गहना, रंग-बिरंगी कपडे, नारियल पेड कि पत्तियों का भी इस्तमाल किया जाता हैं।

भूता (दैव) के प्रकार[संपादित करें]

कोडमणितया, जुमडी, पंचा जुमडी, पिलिचामुंडी, रक्तेश्वरी, पंजुर्ली, गुलिगा, कल्लुर्टी, दुग्गलया, महिशादाया आदी दैवों के नाम हैं जिनकी आराधना की जाती हैं। माना जाता हैं कि भूत अथवा दैव अलग जातियों से हैं, उदाहरण के लिए ओकुबालाला और देवनजिरी जैन जाती हैं, कोडमाणितया और कुकिनाताया बंट जाती हैं, कालकुआ एक स्मिथ जाती से है, बॉबड़िया एक माप्पिला है, और निकला को कोरगा हैं, यह लोगों कि मानना हैं। उनमें से कुछ पैतृक आत्माएं भी हैं जैसे बॉबारीया, कालकुडा, कालुर्टी; कुछ आत्माएं जैसे कोटी और चेन्नेय, सिरी और कुमार। भूता/ दैव कि मुख जानवर जैसी दिखाया जाता हैं जैसे पिलिचामुंडी दैव का सर बाघ होता हैं।

विशेषताएँ[संपादित करें]

ज्यादातर भूता कोला कि आचरन गुत्तु (गॉव का मुख्य घर) के लोग करते हैं। तुलुनाडु के हर गॉव में एक दैव स्थान होता हैं। लोगों कि मानना हैं की भूता / दैव कि उपेक्षा से उनका जीवन में दुख भर जाएगा। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आरही हैं। इस आधूनिक युग में इस परंपरा को बचाना जारूरी हैं। भूता कोल अथवा नेमा में विद्युत दीप क इस्तमाल कम की जाती हैं और इसके बद्लें में दीप जला कर दैवस्थान को अलंकृत किय जाता हैं। भूता कोल/ नेमा का प्रदर्शन रात में की जाती हैं। रात में जलया हुआ दीप से अलंकृत दैवस्थन और अती-आकर्शक महान दैव को देखने के लिये और दैव कि कृपा की पात्र होने के लिए देश-विदेश से लोग जमा हो जाते हैं। कुछ लोग अपने मन कि कामना पूरी हेतु दैव को गहना, फूल कि माला आदी चाडाते हैं ताकी वे अपनी काम में सफल रहें।

जबकी ज्यादातर जगहों पे सिर्फ भगवान कि पूजा की जाती हैं, तुलुनाडु में भगवान के सात-सात भूता/दैव का भी आराधना किया जाता हैं जों अपने-आप में ही गर्व कि बात हैं। इस रूडीं परंपरा को प्रोतसाह करने के लिए और इस परंपरा को आगें की पीडिंयों के लिए बचाने के लिए सरकार ने भी भूता कोला/भूता-आराधना/नेमा के आचरन के लिए अनुदान दे रहा हैं। यह परंपरा कर्नाटक के अलावा केरला, महाराष्ट्र (मुंबाई) राज्य के हिस्सों में भी फैला हुआ हैं। भूता कोला कि आचारन अत्यंत श्रद्दा और भक्ति के सात किया जाता हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

https://en.wikipedia.org/wiki/Buta_Kola

https://en.wikipedia.org/wiki/Tulu_Nadu