प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त

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जीन प्याज़े

जीन प्याज़े द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (theory of cognitive development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद (स्वच्छ,निर्मल या उज्जवल) सिद्धान्त है। प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। प्याज़े का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।

व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं।

जीन प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे अवस्था सिद्धान्त (STAGE THEORY ) भी कहा जाता है।

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ[संपादित करें]

जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-

  • (१) संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म से लेकर 2 वर्ष तक
  • (२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2-7 वर्ष
  • (३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से12 वर्ष
  • (४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 12से 15 वर्ष

संवेदी पेशीय अवस्था[संपादित करें]

जन्म से लेकर 2 वर्ष तक

इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसों एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।

उन्होंने इस अवस्था को छः उपवस्थाओं मे बांटा है :

1- सहज क्रियाओं की अवस्था (जन्म से 30 दिन तक)
2- प्रमुख वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 1 माह से 3माह)
3- गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 4 माह से 6 माह)
4- गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था ( 7 माह से 10 माह )
5- तृतीय वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 11 माह से 18 माह )
6- मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था ( 18 माह से 24 माह )

पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था[संपादित करें]

2-7 वर्ष की अवस्था

इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है। अब वह खेल, अनुकरण, चित्र-निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है। धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। इस अवस्था में अनुकरणशीलता पायी जाती है। इस अवस्था मे बालक के अनुकरणों मे परिपक्वता आ जाती है। इस अवस्था मे प्रकट होने वाले लक्षण दो प्रकार के होने से इसे दो भागों में बांटा गया है।

  • (क) पूर्व सम्प्रत्यात्मक काल (Pre–conceptional या Symbolic function substage ; 2-4 वर्ष) : पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। बालक संकेत तथा चिह्न को मस्तिष्क में ग्रहण करते हैं। बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझते हैं।आत्मकेंद्रित हो जाता है बालक। संकेतों एवं भाषा का विकास तेज होने लगता है। इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है अर्थात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, शब्द आदि का प्रयोग कर लेता है। छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है। बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं। इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है। दो वर्ष का बालक एक या दो शब्दों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस शब्दों के वाक्य बोल लेता है।
  • (ख) अंतःप्रज्ञक काल (Intuitive thought substage ; 4-7 वर्ष) : बालक छोटी छोटी गणनाओं जैसे जोड़-घटाना आदि सीख लेता है। संख्या प्रयोग करने लगता है। इसमें क्रमबद्ध तर्क नही होता है।

मूर्त संक्रियात्मक अवस्था[संपादित करें]

(7-12)वर्ष इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारम्भ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है। इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था, किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है। संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है|

औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था[संपादित करें]

यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :-

  • तार्किक चिन्तन की क्षमता का विकास
  • समस्या समाधान की क्षमता का विकास
  • वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास
  • वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास
  • परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास
  • विसंगतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास
  • जीन पियाजे ने इस अवस्था को अन्तर्

संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं संरचना[संपादित करें]

जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रकिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है। पहला संगठन दूसरा अनुकूलन। संगठन से तात्पर्य बुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति , चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है। उदा. एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नहीं करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है। वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है। संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]