देशभूषण

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आचार्य श्री देशभूषण जी

आचार्य देशभूषण जी
नाम (आधिकारिक) आचार्य श्री देशभूषण जी
व्यक्तिगत जानकारी
जन्म नाम बाला गौड़ा
जन्म १९०५
कोथली, कर्नाटका
मानद संस्कृत
माता-पिता श्री सत्यागौड़ा, श्रीमती अक्का देवी
शुरूआत
सर्जक आचार्य श्री जयकीर्ति जी
दीक्षा के बाद
पूर्ववर्ती देशभूषण जी

आचार्य देशभूषण २०वीं सदी के एक विख्यात दिगम्बर जैन आचार्य हैं, जिन्होने कई प्राकृत, संस्कृत ओर कन्नड़ शास्त्रों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद एवम् व्याख्यान किया है।

उन्होने अपने प्रिय शिष्यों श्वेतपिच्छाचार्य श्री विद्यानंद [1] जी एवं गणिनी प्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमति माता जी को इस विषय में कार्य करने को प्रेरित किया।

प्रारम्भिक जीवन[संपादित करें]

उनका जन्म सन १९०५ में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन कर्नाटक के एक सर्व सम्पन्न जमीन्दार परिवार में हुआ। पिता का नाम सत्य गौड़ा और माता का अक्का देवी पाटिल था।

उनकी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और कन्नड़ माध्यम से सदलगा माध्यमिक विद्यालय तथा उच्या मध्मिक शिक्षा गिलगांची अर्ताल हाई स्कूल इटावा में उनके प्रिय मित्र डॉ. ए. एन. उपाध्याय के साथ हुई।

दोनों ही मित्रों को भाषा और संस्कृति पर शोध करने का प्रभाव इस कदर हावी था कि दोनों ने अपनी आगे कि पड़ाई साथ जारी रखने के लिए बंबई विश्वविद्यालय से संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में कला स्नातक और बाद में स्नातोत्तर करने के लिए पुणे के भंडारकर प्राच्य शोध संस्थान से पीएचडी अथवा डाक्ट्रेट की पढ़ाई करी।

एक ओर जहां अपने सामाजिक और वित्तीय दायित्वों को निभाने के लिए डॉ. ए. एन. उपाध्याय ने कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में प्राकृत भाषा पर अपना शोध जारी रखने के लिए प्राचार्य पद ग्रहण किया।

वहीं दूसरी ओर श्री बाला गौड़ा ने प्राकृत भाषा पर अपने शोध और अनुसंधान को जारी रखने के लिए मंदिरों ओर जिनालयों का रुख कर लिया। उनका मानना था कि प्राकृत को सही रूप में समझने के लिए उसे उसके मूल रूप में अधयन करने की आवश्यकता है। उन्हें इस बात का विशेष ज्ञान था कि प्राकृत की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं किसी दिव्य कलाकृति से कम नहीं हैं ओर वो अपने मूल स्वरूप में पांडुलिपियों और ताड़पत्रों पर अंकित किसी पूजनीय ग्रंथ से कम नहीं है।

इन में से कुछ कृतियां तो इतनी प्राचीन ओर दुर्लभ हैं कि उन्हें एक विशेष समय काल अंतराल ओर विशेषज्ञों की अनुमति निरक्षण ओर परामर्श के बिना उनका अवलोकन भी नहीं किया जा सकता। यह भी ज्ञात रहे कि इन में से कई काव्य कृतियां तो भित्ति लेखों के स्वरूप में हैं जो की इन प्राचीन मंदिरों और जिनालयों की दीवारों पर अंकित या गढ़ी गई हैं जिनके बारे में किताबे सिर्फ व्याख्यान ही उपलब्ध करवाएगी। अतः उनका यह निर्णय उन्हें प्राचीन मंदिरों ओर जिनालयों के समीप लेगाया जहां वे आचार्य श्री जयकीर्ति जी के संपर्क में आए जो कि एक सुविख्यात जैन आचार्य थे और उनके सरल व्याख्यान द्वारा गहराई से प्रभावित हो गए और उनके जैन श्रावक संघ में शामिल होने का मन बना लिया।

ऐलक दीक्षा[संपादित करें]

युवक बाला गौड़ा का साहित्यिक ओर सांस्कृतिक शोध कार्य देख कर आचार्य जयकीर्ति जी भी बड़े ही प्रभावित हुए ओर उन्हें सहज ओर सरल व्याख्यान कर समझाने लगे। बातों ही बातों में युवक बाला गौड़ा ने आचार्य श्री को अपना गुरु मान उनके संघ में शामिल होने कि प्रार्थना रखी। युवक बाला गौड़ा की कम उम्र और परिवार की पृष्ठभूमि देख आचार्य श्री जी ने उन्हें अध्ययन के पारंपरिक तरीके ओर जैन श्रावक संघ के कठोर तप अनुशासन और प्रतिमाओं के बारे में समझाया और उन्हें अपने परिवार से आज्ञा प्राप्त करने का निर्देश दिया।

युवक बाला गौड़ा भी अपना मन बना चुके थे ओर भाषा ओर संस्कृति पर अपने शोध ओर अनुसंधान को दृढ़ संकल्प पूर्ण पारंपरिक तरीके से जारी रखने के लिए अपने परिवार से अनुमति प्राप्त कर पुनः आचार्य श्री के समक्ष दीक्षा प्राप्ति के लिए उपस्थित हो गए। कुछ समय तक अपने जैन श्रावक संघ में रखने ओर अनुशासन ओर प्रतिमाओं का पालन करते देख आचार्य श्री ने उन्हें ब्रह्मचर्य और ऐलक धर्म की दीक्षा प्रदान करने का विचार कर लिया और उचित मुहुर्त तिथि ग्रह और नक्षत्र देख सन् १९३६ में रामटेक स्थित जैन मंदिर में पारंपरिक रूप से समारोह आयोजित कर ऐलक देशभूषण की पदवी प्रदान की ओर पारंपरिक तरीके से अपना शोध ओर अनुसंधान जारी रखने का आदेश दिया।

ऐलक् श्री देषभूषण जी अपनी प्राथमिक शिक्षा ओर अब पारंपरिक दीक्षा प्राप्त कर एक नए जोश उमंग और उत्साह के साथ अपने शोध ओर अनुसंधान कार्य को पूर्ण करने में जीजान से जुट गए। उनके अनुशासन अभ्यास ओर दृढ़शक्ती को देख आचार्य श्री जयकीर्ति जी बहुत प्रभावित हुए। उन्हें अपने निर्णय पर मन ही मन गर्व होने लगा और उन्होंने अपने शिष्य में एक जैन मुनि बनने के लक्षण साफ नज़र आने लगे।

क्षुल्लक दीक्षा[संपादित करें]

अतः आचार्य जी भी एक अच्छे गुरु की भांति ऐलक श्री देषभूषण जी पर विशेष ध्यान देने लगे ओर शिग्रह ही उन्हें "क्षुल्लक" दीक्षा भी प्रदान की जिस से उनके शोध ओर अनुसंधान को एक नई दिशा ओर सही मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।

क्षुल्लक की पदवी प्राप्त होने से अब देशभूषण जी घंटों तक एकल साहित्य शोध कर सकते थे ओर अपनी शंकाओं और खोजों को विस्तार पूर्वक आचार्य श्री से परामर्श प्राप्त कर सूक्ष्म रूप से समझ सकते थे। बैठकें लंबी होने लगी शोध और अनुसंधान का मार्ग ओर भी पुष्ठ ओर परिपक्व हो गया।

ऐसा ज्ञात होने लगा मानो आचार्य श्री अपने शिष्य को एक जैन मुनि के स्वरूप में एक प्रतिमा कि तरह गढ़ रहे हों। यह अब निश्चित हो गया था कि अब वे ज्यादा दिन क्षुल्लक नहीं रहगें ओर अग्रेशित हो मुनि की उपाधि प्राप्त कर लेंगे।

मुनि दीक्षा[संपादित करें]

अब यह साफ हो गया था कि अपने शोध ओर अनुसंधान को जारी रखने के लिए क्षुल्लक श्री देषभूषण जी को जैन मुनियों की भांति ही अपने जैन श्रावक संघ के अनुसार गुरु शिष्य की परंपरा का निर्वाह करते हुए ही आगे बढ़ना होगा। अतः आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने ६ वर्ष की कठोर तपस्या अध्यन और अनुशासन को देखते हुए अपने परम शिष्य को मुनि दीक्षा देने के लिए उचित समय स्थल ओर महुरत की प्रतीक्षा करने लगे।

अंततः ८ मार्च सन् १९३६ महाराष्ट्र स्थित प्रसिद्ध कुंथलगिरी जैन मंदिर तीर्थक्षेत्र में एक भव्य आयोजन कर आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने उन्हें मुनि श्री देशभुषण की पदवी प्रदान की ओर अपने शोध ओर अनुसंधान को आगे जारी रखने का आदेश दिया।

अपने गुरु की आज्ञा ओर आदेशों का अनुसरण प्राप्त कर अब मुनि श्री स्वतंत्र रूप से अपनी शोध ओर अनुसंधान या कहिए भाषा साहित्य ओर संस्कृति की खोज को जारी रख सकते थे। ओर उन्होंने एक सत्य साधक की भांति अपने इस कार्य पर कभी कोई बाधा नहीं आने दी और इस अन्वेषण में सर्वस्व त्याग कर जुट गए।

आचार्य पद[संपादित करें]

अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए ओर उनके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए मुनि श्री अपने शोध ओर अनुसंधान को आगे बढ़ाने में जुट गए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाते ही उन्होंने कई ग्रंथों का स्पष्ट ओर सरल अनुवाद प्रस्तुत किये। उन दिनों अधिकतर व्याख्यान मंदिरों ओर जनसभाओं में प्रवचन स्वरूप प्रस्तुत किए जाते थे इस से उनकी ख्याति ओर प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई।

फल स्वरूप आचार्य श्री पायसागर जी मुनिराज ने सन् १९४८ में सूरत, गुजरात में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम के दौरान उन्हें आचार्य श्री देशभूषण जी की पदवी प्रदान की। आचार्य पदवी पाकर मानो अपने उत्तरदायित्व का भारी प्रभाव छोड़ा ओर वो इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए अपने शोध पत्रों के प्रकाशन ओर प्रसारण में जुट गए।

आचार्यरत्न पद[संपादित करें]

आचार्य पद ग्रहण करने के साथ ही संघ ओर समाज के प्रति उनका उत्तरदायित्व कुछ ओर बढ गया। अब ना सिर्फ उन्हें अपने शोध को अपितु पूरे संघ के नायक की भूमिका में सामाजिक कल्याण ओर उत्थान के लिए अग्रसर होना पड़ा। यह कार्य भी उन्होने बखूबी निभाया ओर दिल्ली ओर आसपास के अनेक जीनशिर्न हो रहे मंदिरों ओर जिनालयों का संग्रहण जीर्णोद्धार ओर पुनरनिर्माण कार्य करवाया।

उनके इस कार्य से दिल्ली ओर आसपास के जैन धर्मावलंबी इतने प्रसन्न ओर उत्साहित हुए की उन्होंने संयुक्त जैन समाज दिल्ली के तत्वावधान में सन् १९६१ में एक भव्य आयोजन कर उन्हें आचार्यरत्न की उपाधि प्रदान की।

सम्यक्त्व चूड़ामणि पद[संपादित करें]

जैसे जैसे उनकी ख्यती बढ़ती जा रही थी वैसे वैसे ही उनके कार्यों का दायरा भी विकसित होता जा रहा था। समाज को मानो एक असाधारण व्यक्तित्व का सानिध्य प्राप्त हो गया था।

सन् ९८८१ में उनको एक ओर बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन की कमान सोंपदी गई। यह अवसर श्रवणबेलगोला स्थित ५७ फिट ऊंची बाहुबली की प्रतिमा का महामस्तकाभिशेक का था जो कि १२ वर्ष में १ बार आयोजित किया जाता है।

इस कार्यक्रम के सफल आयोजन से वे अब एक अंतरराष्ट्रीय संत के रूप में निखर के सामने आए ओर समस्त जैन समाज ने उन्हें सम्यक्त्व चूड़ामणि के पद से अलंकृत किया।

प्रकाशन[संपादित करें]

अंतरराष्ट्रय खायाती प्राप्त होने के बाद उनके शोध पत्रों लेखों और सरल हिंदी अंग्रेजी ओर संस्कृत अनुवादों की मांग बढ़ गई। इतने सालों के अपनी तपस्या का मानो उन्हें स्वयं भगवान ने आगे बढ़ के आशीर्वाद प्रदान किया हो। अनुयाई ना सिर्फ हिंदी अंग्रेजी ओर संस्कृति में यद्यपि क्षेत्रीय भाषाओं में भी उनके द्वारा रचित साहित्य की मांग करने लगे। मराठी कन्नड़ गुजराती हिंदी आदि भाषाओं में उनके एनुवादों को संग्रहित करने की साहित्य जगत में एक होड़ मच गई। उन्होंने भी अपने पाठकों को निराश नहीं किया ओर अपने द्वारा संग्रहित साहित्यिक खजाना निस्वार्थ भाव से लूटा दिया।

हिन्दी[संपादित करें]

  • भगवान महावीर और उनका तत्त्व-दर्शन
  • भरतेश वैभव, चार भाग
  • धर्मामृत, दो भाग
  • रत्नाकर शतक, दो भाग
  • अपराजितेश्वर शतक, दो भाग
  • मेरुमन्दर पुराण
  • णमोकार ग्रन्थ
  • णमोकार कल्प
  • शास्त्रसार समुच्चय
  • निर्वाण लहमीपति स्तुति
  • निरंजन स्तुति
  • भक्ति स्तोत्र संग्रह
  • भावना सार
  • चौदह गुणर्थान चर्चा
  • योगामृत
  • सिरिभूवलय
  • भूवलय के कुछ पठनीय श्लोक
  • उपदेशसार संग्रह 6 भाग
  • श्री भूवलयान्तर्गत जयभगवद गीता
  • भगवान महावीर की अहिंसा
  • भगवान महावीर और मानवता का विकास
  • दशलक्षण धर्म
  • जैन धर्म का मर्म अहिंसा
  • भगवान महावीर का दिव्य सन्देश
  • अहिंसा का शुभ सन्देश
  • अहिंसा और अनेकान्त
  • गुरु-शिष्य प्रश्नोत्तरी
  • गुरु-शिष्य-संवाद
  • मानव जीवन
  • शास्त्र गुच्छक
  • ध्यान सूत्राणि
  • गृहस्थ धर्म : प्राचीन-अर्वाचीन
  • जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, दो भाग * त्रेसठ शलाका पुरुष
  • त्रिकालवत महापुरुष
  • तत्व भावना
  • तत्त्व दर्शन
  • रयणसार
  • नियमसार
  • यशोधरचरित्र
  • भक्ति कुसुम संचय
  • अध्यात्मवाद की मर्यादा
  • श्री जिनस्तोत्र पूजादि संग्रह
  • विद्यानुवाद
  • मन्त्र-सामान्य-साधन-विधान
  • जीवाजीव विचार
  • श्रुतपंचमी माहात्म्य
  • सद्गुरुवाणी
  • अशा प्रवचन ध्यान
  • तत्त्वार्थसूत्र (अंग्रेजी)
  • व्यसंग्रह (अंग्रेजी)
  • पुरुषार्थ
  • आत्मानुशासन (अंग्रेजी)
  • ढाई हजार वर्षों में भगवान महावीर
  • स्वामी की विश्व को देन

मराठी[संपादित करें]

  • प्रवचनसार : प्रवचनसार
  • दशभक्त्यादि संग्रह
  • निरंजन स्तोत्र
  • समयसार
  • भगवान् महावीर
  • चिन्मय चिन्तामणि (कन्नड़ से मराठी)
  • सूक्ति सुधा

कन्नड[संपादित करें]

  • नर से नारायण
  • धर्म
  • धर्मामृतसार
  • प्रवचनसार
  • सर्वार्थसिद्धि वचनका
  • परमात्मप्रकाश
  • भरतेश वैभव सार
  • पंचस्तोत्र
  • महाश्रमण महावीर
  • निर्वाण लक्ष्मीपति
  • योगामृत
  • अनुभव प्रकाश
  • स्तोत्र सार संग्रह
  • श्रमण भगवान महावीर, दो भाग
  • अध्यात्म सुधासार
  • अध्यात्म रस मंजरी
  • भरतेश वैभव

बंगला[संपादित करें]

  • दिगम्बर मुनि 19, उपसर्ग :

गुजराती[संपादित करें]

  • भरतेश वैभव

दीक्षा व अलंकरण[संपादित करें]

आचार्य श्री द्वारा प्रदत्त प्रमुख दीक्षाएँ -

मुनिश्री[संपादित करें]

श्री शान्तिसागरजी, श्री सुबलसागरजी, श्री विद्यानन्दजी, श्री विमलसागरजी, श्री चन्दसागरजी, श्री सिद्धसेनजी, श्री भद्रबाहुजी, श्री ज्ञानभूषणजी, श्री बाहुबलीजी, श्री कुलभूषणजी, श्री वरागसागरजी, श्री आदिसागरजी, श्री गुणभूषणजी, श्री सीमंधरजी, श्री धर्मभूषणजी श्री सन्मतिभूषणजी।।

आर्यिकाश्री[संपादित करें]

सुव्रतमतीजी, शान्तमतीजी, विशालमतीजी, पुष्पदन्तमतीजी, चारित्रमतीजी, नेममतीजी, अजितमतीजी, शान्तिमतीजी।

ऐलकश्री[संपादित करें]

सुबलसागरजी, वीरभूषणजी।

क्षुल्लकाश्री[संपादित करें]

वृषभसेनजी, वासुपूज्यसागरजी, नंदिमित्रजी, ज्ञानभूषणजी, इन्द्रभूषणजी, जिनमूपणजी चन्द्रभूषणजी, वरांगसागरजी, वरदत्तसागरजी, शांतिभूषणजी, आदिसागरजी, सोमकीर्तिजी. ज्ञानसागरजी, गुणभूषणजी।

क्षुल्लिकाश्री[संपादित करें]

वीरमतीजी, राजमतीजी, जयश्रीजी, श्रेयांसमतीजी, जिनमतीजी, एलभूषणमतीजी, वृषभसेनाजी, गमतीजी, अजितमतीजी, कृष्णमतीजी, अनन्तमतीजी, शान्तिमतीजी, चन्द्रमतीजी, भद्रमतीजी, मरुदेवीजी, वृषभसेनाजी, रत्नभूषणमतीजी, शीतलमतीजी, कृष्णमतीजी ।

आचार्य पद[संपादित करें]

एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी।

बालाचार्य पद[संपादित करें]

मुनिश्री बाहुबलीजी।

आचार्यकल्प पद[संपादित करें]

मुनिश्री सुबलसागरजी, मुनिश्री ज्ञानभूषणजी।

एलाचार्य पद[संपादित करें]

उपाध्यायश्री विद्यानन्दजी।

उपाध्याय पद[संपादित करें]

मुनिश्री विद्यानन्द जी, मुनिश्री कुलभूषण जी ।

गणिनी पद[संपादित करें]

आर्यिकाश्री ज्ञानमतीजी।।

सप्तम प्रतिमा व्रत[संपादित करें]

  1. श्री विद्याधरजी। (वर्तमान आचार्यश्री विद्यासागर जी)
  2. माणिकबाई जी।
  3. पद्माबाई जी।
  4. निर्मला (वर्तमान आर्यिकाश्री सरस्वती माताजी)।

चातुर्मास[संपादित करें]

आचार्य श्री के पावन वर्षायोग :

  • 1936 मांगुर
  • 1937 मांगुर
  • 1938 श्रवणबेलगोला
  • 1939 नागपुर
  • 1940 कोल्हापुर
  • 1941 शमनेबड़ी
  • 1942 भोज
  • 1943 बरगांव
  • 1944 पट्टणगुड़ी
  • 1945 स्तवनिधि
  • 1946 गळतगा
  • 1947 वाराणसी
  • 1948 सूरत
  • 1949 आरा
  • 1950 आरा
  • 1951 लखनऊ
  • 1952 बाराबंकी
  • 1953 टिकैत नगर
  • 1954 जयपुर
  • 1955 दिल्ली
  • 1956 दिल्ली
  • 1957 दिल्ली
  • 1958 कलकत्ता
  • 1959 कोल्हापुर
  • 1960 मानगाँव
  • 1961 मानगाँव
  • 1962 अब्दुललाट
  • 1963 दिल्ली
  • 1964 जयपुर
  • 1965 दिल्ली
  • 1966 जयपुर
  • 1967 स्तवनिधि
  • 1968 बेलगाँव
  • 1969 कोल्हापुर
  • 1970 भोज
  • 1971 जयपुर
  • 1972 दिल्ली
  • 1973 दिल्ली
  • 1974 दिल्ली
  • 1975 कोथली
  • 1976 कोथली
  • 1977 कोथली
  • 1978 भोज
  • 1979 शमनेबड़ी
  • 1980 कोथली
  • 1981 कोथली
  • 1982 जयपुर
  • 1983 कोथली
  • 1984 कोथली
  • 1985 कोथली
  • 1986 सदलगा

उपलब्धियाँ[संपादित करें]

आचार्यश्री की प्रेरणा एवं उपदेश से निर्मित संस्थाएँ एवं सम्पन्न कार्य ओर रचनात्मकल्प शक्ति के प्रतीक :-

  • दिल्ली में श्री दिगम्बर जैन भट्टारक मन्दिर पुरानी सब्जी मण्डी का जीर्णोद्धार।
  • शक्ति नगर, कैलाश नगर, गांधी नगर, नवीन शाहदरा, दिल्ली कैण्ट आदि स्थानों पर मन्दिरों का नव निर्माण।
  • श्री ऋषभदेव मन्दिर, (अयोध्या)
  • श्री पाश्र्वनाथ चूलगिरि (जयपुर)
  • शान्तिगिरि (कोथली)
  • आचार्यरत्न देशभूषण ब्रह्मचर्य आश्रम (कोथली)
  • आचार्यरत्न देशभूषण अस्पताल (कोथली)
  • आचार्यरत्न देशभूषण हाईस्कूल (कोथली)।
  • जैनमठ कोल्हापुर में भगवान ऋषभदेव की 25 फुट उत्तंग खड्गासन प्रतिमा की स्थापना।
  • श्री आचार्य रत्न देशभूषण शिक्षण प्रसारण मण्डल कोल्हापुर का गठन, जिसके संरक्षण में एक कॉलेज, एक हाईस्कूल तथा अन्य शैक्षणिक गतिविधियाँ चल रही हैं।
  • सिद्ध क्षेत्र चौरासी (मथुरा) का विकास।
  • अतिशय क्षेत्र अक्कीबाट, विद्यासागर मांगुर, मछली, दतवाड, कुम्भोज बाहुबली, मानगाँव, जयसिंगपुर आदि स्थानों पर जीणोद्धार।
  • आचार्य देशभुषण आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज, शमनेबाडी, कर्नाटक पर 13 जून 1951 [2][3]

चित्रवीथी[संपादित करें]

नोट[संपादित करें]

  1. "Vidyananda". ipfs.io. मूल से 22 सितंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2019-09-22.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 16 जून 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2016.
  3. "संग्रहीत प्रति". मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अगस्त 2016.

सन्दर्भ[संपादित करें]