कुलकर

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जैन कालचक्र- तीसरे भाग, सुखमा-दुखमा में १४ कुलकर हुए थे।

जैन धर्म में कुलकर उन बुद्धिमान पुरुषों को कहते हैं जिन्होंने लोगों को जीवन निर्वाह के श्रमसाध्य गतिविधियों को करना सिखाया।[1]  जैन काल चक्र के अनुसार जब अवसर्पिणी काल के तीसरे भाग का अंत होने वाला था तब दस प्रकार के कल्पवृक्ष (ऐसे वृक्ष जो इच्छाएँ पूर्ण करते है) कम होने शुरू हो गए थे,[2] तब १४ महापुरुषों का क्रम क्रम से अंतराल के बाद जन्म हुआ। ये १४ महापुरुष ही १४ कुलकर कहलाये। अंतिम १४ वे कुलकर नाभिराज थे, जो इस हुण्डा अवसर्पिणी काल के प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता थे।

चौदह कुलकर[संपादित करें]

1.प्रतिश्रुति 2.सन्मति 3.क्षेमंकर 4.क्षेमंधर 5.सीमंकर 6.सीमन्धर 7.विमलवाहन 8.चक्षुमान 9.यशस्वान् 10.अभिचन्द्र 11.चन्द्राभ 12.मरुद्धव 13. प्रसेनजित 14. नाभिराय

अंतिम कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी का मूर्तिकला में चित्रण।

प्रतिश्रुति[संपादित करें]

प्रतिश्रुति पहले कुलकर थे। जब प्रकाश देने वाले कल्पवृक्षों की आभा कम हो रही थी तब सूर्य और चंद्रमा दिखाई देने लगे थे। जिन्हें पहली बार देख कर लोग चिंतित होने लगे थे। कुलकर प्रतिश्रुति ने अपने अवधिज्ञान से इसका कारण समझ लोगों को समझाया के रोशनी प्रदान करने वाले वृक्षों का प्रकाश इतना अधिक था कि सूर्य और चंद्रमा दिखाई नहीं देते थे, लेकिन अब इन वृक्षों की आभा कम हो रही है। प्रतिश्रुति कुलकर के समय से दिन और रात का भेद माना जाता है।

सन्मति[संपादित करें]

असंख्यत करोडों वर्ष बीतने के बाद दूसरे कुलकर सन्मति हुए थे। उनके समय में प्रकाश प्रदान करने वाले वृक्षों की आभा प्रभावहीन हो गयी थी, जिसके कारण सितारे आकाश में दिखाई देने लगे थे। इस बात का ज्ञान उन्होंने जनता को कराया क्यूँकि वह अवधि ज्ञान के धारी थे।

क्षेमंकर[संपादित करें]

असंख्यात करोड़ों वर्ष बीतने के पश्चात क्षेमंकर कुलकर का जन्म हुआ था। इनके समय में जानवरों ने उपद्रव मचाना शुरू कर दिया था। अब तक कल्पवृक्षों ने पुरुषों और जानवरों की आपूर्ति के लिए पर्याप्त भोजन प्रदान किया था लेकिन अब स्थिति बदल रही थी और हर एक को खुद के लिए व्यवस्था करनी थी। घरेलू और जंगली जानवरों का अंतर क्षेमंकर कुलकर के समय से माना जाता है।

क्षेमंधर[संपादित करें]

क्षेमंधर चौथे कुलकर थे। इन्होंने जंगली जानवरों को दूर भगाने के लिए लकड़ी और पत्थर के हथियारों का प्रयोग करना सिखाया।[3] 

सीमंकर[संपादित करें]

सीमंकर पाँचवे कुलकर थे। इनके समय में कल्पवृक्षों को ले कर झगड़े शुरू हो गए थे।[4] इन्हें सीमंकर इसलिए कहा जाता है क्यूँकि उन्होंने सीमाओं का स्वामित्व तय किया था।

सीमन्धर[संपादित करें]

सीमन्धर छठे कुलकर थे। इनके समय में कल्पवृक्षों को लेकर झगड़ा अधिक तीव्र हो गया था। उन्होंने प्रति व्यक्ति पेड़ों के स्वामित्व की नींव रखी और निशान भी लगाए।

विमलवाहन[संपादित करें]

विमलवाहन सातवें कुलकर थे। इन्होंने घरेलू पशुओं की सेवाएँ कैसे ली जाए यह बताया। इन्होंने हाथी आदि सवारी योग्य पशुओं को कैसे नियंत्रण में कर उनकी सवारी की जाए, यह सिखाया।

चक्षुमान[संपादित करें]

असंख्यात करोड़ों वर्ष बीत जाने पर चक्षुमान कुलकर का जन्म हुआ। इनके समय में भोगभूमि की व्यवस्था बदल गयी था अर्थात अब माता पिता अपने संतान का जन्म देख सकते थे। कुछ लोगों ने चकित हो कर इसका कारण चक्षुमान कुलकर से पूछा, तो उन्होंने उचित रूप से समझाया।

यशस्वान्[संपादित करें]

जैन ग्रंथों के अनुसार यशस्वान् नौवें कुलकर थे। [5]

अभिचन्द्र[संपादित करें]

अभिचन्द्र दसवें कुलकर थे। इनके समय में पुरानी व्यवस्था में बहुत अधिक परिवर्तन आ गया था। अब लोग अपने बच्चों के साथ खेलने लगे थे। सर्वप्रथम अभिचन्द्र ने चाँदनी में अपने बच्चों के साथ खेल खेला था जिसके कारण उनका यह नाम पड़ा। [5]

चन्द्राभ[संपादित करें]

चन्द्राभ ग्यारहवें कुलकर थे जिनके समय में माता पिता बच्चों को आशीर्वाद दे कर बहुत प्रसन्न होते थे।

मरुद्धव[संपादित करें]

मरुद्धव बारहवें कुलकर थे। [5]

प्रसेनजित[संपादित करें]

प्रसेनजित तेरहवें कुलकर थे। जैन ग्रंथों के अनुसार इनके समय में बच्चे प्रसेन (भ्रूणावरण या झिल्ली जिसमें एक बच्चे का जन्म होता है) के साथ पैदा होने लगे थे। [6] इनके समय पहले बच्चे  झिल्ली में नहीं लिपटे होते थे। [5]

नाभिराय[संपादित करें]

नाभिराय अंतिम १४वे कुलकर थे। वह प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पिता थे। कुलकर नाभिराय ने लोगों को नाभि काटना सिखाया।[5] जैन ग्रंथों के अनुसार इनके समय में घने बादल स्वतंत्र रूप से आकाश में इकट्ठा होने लगे थे।[7]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Jain 2008, पृ॰ 36-37.
  2. Jain 2015, पृ॰ 7-8.
  3. Jain 2008, पृ॰ 38.
  4. Lal 1991, पृ॰ 14.
  5. Jain 2008, पृ॰ 39.
  6. Lal 1991, पृ॰ 15.
  7. Jain 2008, पृ॰ 40.

सन्दर्भ सूची[संपादित करें]

  • जैन, चम्पत राय (2008), Risabha Deva - The Founder of Jainism, Bhagwan Rishabhdeo Granth Mala, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8177720228