मण्डल (राजनैतिक मॉडल)

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दक्षिण-पूर्व एशिया के ऐतिहासिक मण्डल

दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में मण्डल एक अकेन्द्रित राज्ज्य व्यवस्था थी। मण्डल का शाब्दिक अर्थ 'वृत्त' (सर्कल) होता है। मण्डल सिद्धान्त वर्तमान युग के एकीकृत राजनीतिक शक्ति के विपरीत राजशक्ति का मॉडल है।

चाणक्य का मण्डल सिद्धान्त[संपादित करें]

कौटिल्य (चाणक्य) ने अपने मण्डल सिद्धांत में विभिन्न राज्यों द्वारा दूसरे राज्यों के प्रति अपनाई नीति का वर्णन किया है। प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था। शक्तिशाली राजा युद्ध द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। राज्य कई बार सुरक्षा की दृष्टि से अन्य राज्यों में समझौता भी करते थे। कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्रुओं की अपेक्षा मित्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्रुओं पर नियंत्रण रखा जा सके।

दूसरी ओर निर्बल राज्यों को शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शक्तिशाली राज्यों की विस्तार-नीति से बचने हेतु एक जुट या ‘मण्डल’ बनाना चाहिए। कौटिल्य का मंडल सिद्धांत भौगोलिक आधार पर यह दर्शाता है कि किस प्रकार विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के पड़ोसी देश (राज्य) उसके मित्र या शत्रु हो सकते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार मंडल के केन्द्र में एक ऐसा राजा होता है, जो अन्य राज्यों को जीतने का इच्छुक है, इसे ‘‘विजीगीषु’’ कहा जाता है। ‘‘विजीगीषु’’ के मार्ग में आने वाला सबसे पहला राज्य ‘‘अरि’’ (शत्रु) तथा शत्रु से लगा हुआ राज्य ‘‘शत्रु का शत्रु’’ होता है, अतः वह विजीगीषु का मित्र होता है। कौटिल्य ने ‘‘मध्यम’’ व ‘‘उदासीन’’ राज्यों का भी वर्णन किया है, जो सामर्थ्य होते हुए भी रणनीति में भाग नहीं लेते।

कौटिल्य का यह सिद्धांत यथार्थवाद पर आधारित है, जो युद्धों को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की वास्तविकता मानकर संधि व समझौते द्वारा शक्ति-सन्तुलन बनाने पर बल देता है।वास्तव में ये आज की विदेश नीति के लिए प्रेरणा स्रोत है।

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