ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। महर्षि ने वेद और वेदार्थ के प्रति अपने मन्तव्य को स्पष्टरूप से प्रतिपादित करने के लिये इस ग्रन्थ का का प्रणयन किया है। महर्षि ने सत्यार्थ-प्रकाश को जहाँ मूलतः हिन्दी में लिखा है, वहीं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को संस्कृत में। यद्यपि महर्षि ने हिन्दी में भी प्रकरणगतभाव को व्यक्त करने का प्रयास किया है, परन्तु अनेकशः उनमें संगति का अभाव दृष्टिगोचर होता है। महर्षि कतिपय स्थलों पर ऐसा अनुभव करते हैं कि जो वचनीय था वह संस्कृत में कह दिया है, अतः उक्त विषय को पुनः हिन्दी में कहने की कोई आवश्यकता नहीं है।[1]

यह वेदों के अर्थ-बोध के लिए एक अनुपम ग्रन्थ है। महर्षि ने अपने वेद-भाष्य को ठीक-ठीक समझने और समझाने के लिए ही इस की रचना की। स्वयं महर्षि भूमिका का प्रयोजन बताते हुए वेद-भाष्य के विज्ञापन में लिखते हैं

( १ ) ' जब भूमिका छप के सज्जनों के दृष्टिगोचर होगी , तब वेद - शास्त्र का महत्त्व जो बड़प्पन तथा सत्यपना भी सब मनुष्यों को यथावत् विदित हो जायेगा । ' ( पत्र और विज्ञापन , पृ० ३९ पर )
( २ ) ' जो कोई भूमिका के विना केवल वेद ही लिया चाहे , सो नहीं मिल सकते । ( पत्र और विज्ञापन , पृ० १३८ पर )
( ३ ) ' और यह भी जानना चाहिए कि चारों वेद की भूमिका एक ही है । ' ( पत्रविज्ञापन , पृ०८७ )
( ४ ) ' भूमिका चारों वेदों की एक ही है । ( पत्रविज्ञापन , पृ० ८६ )

उपर्युक्त उद्धरणों से जहां भूमिका का प्रयोजन स्पष्ट होता है , वहां इस भ्रम का भी स्वामी जी के लेख से ही निराकरण हो जाता है कि यह भूमिका वेदादि सब शास्त्रों की है। इस विस्तृत भूमिका के बनाने का महर्षि का यह भी प्रयोजन था कि वेद-विषयक जो भी पौराणिक मिथ्या मान्यताएं फैली हुई हैं , जिनके कारण पाश्चात्य विद्वानों को ही नहीं , अपितु कतिपय भारतीय विद्वानों को भी वेदों के विषय में मिथ्या-भ्रम हो गया है। जिस से वेदों का गौरव ही कम नहीं हुआ , किन्तु ' वेद सत्य विद्याओं का पुस्तक हैं , अथवा ईश्वरप्रोक्त हैं , इस में भी लोगों को भ्रान्ति हो गई ।

यद्यपि सायण आदि वेद-भाष्यकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाएं बनाई हैं , परन्तु उन में प्रथम तो आवश्यक मान्यताओं का वर्णन ही नहीं मिलता है और जिन का मिलता है उन में अनेक गलत हैं और जो ठीक हैं उन का उन्होंने स्वयं वेद-भाष्य में पालन नहीं किया है। महर्षि दयानन्द ने अपने वेदभाष्य में उस प्राचीन ऋषियों की मन्त्रार्थ शैली को अपनाया है जिस से मिथ्यामतों का खण्डन स्वतः ही हो जाता है । महर्षि अपने वेद-भाष्य की शैली का स्पष्टीकरण करते हुए भूमिका के अन्त में लिखते हैं

मन्त्रार्थभूमिका ह्यत्र मन्त्रस्तस्य पदानि च ।
पदार्थान्वयभावार्थाः क्रमाद बोध्या विचक्षणशैः।
(अर्थात् इस मन्त्र-भाष्य में इस प्रकार का क्रम रहेगा कि मन्त्रार्थभूमिका - प्रथम तो मन्त्र में परमेश्वर ने जिस बात का प्रकाश किया है । फिर मूलमन्त्र । उस का पदच्छेद । क्रम से प्रमाण सहित मन्त्र के पदों का अर्थ । अन्वय अर्थात् पदों की सम्बन्धपूर्वक योजना और छठा भावार्थ अर्थात् मन्त्र का जो मुख्य प्रयोजन है । इस क्रम से मन्त्र-भाष्य बनाया जाता है ।

वेद-भाष्य की इस शैली से कोई भी विद्वान् वेदों में इतिहासादि मिथ्यामतों की सिद्धि नहीं कर सकता । यह महर्षि की स्पष्ट घोषणा तथा प्राचीन ऋषियों की परम्परा है । भाष्य का लक्षण भी यही है -

नामूल लिख्यते किङिचत् । नानपेक्षितमुच्यते ।

अर्थात् जो मूल में नहीं है और जिस की आवश्यकता भी नहीं है , उस बात को भाष्य में नहीं रखना चाहिए । महर्षि ने इस बात का विशेष ध्यान रक्खा है परन्तु सायणादि ने इस प्राचीन शैली को न अपना कर , स्थान-स्थान पर कल्पनाओं का आश्रय करके मिथ्या-पौराणिक मान्यताओं को जन्म दिया है। यदि वे मन्त्र के देवतार्थ पर विचार करके प्रकरणानुसार मन्त्रों के पदों का ही अर्थ करके भाष्य करते तो वे कदापि मिथ्यामतों को अपने भाष्य में नहीं दिखला सकते थे ।

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