ऐम्नीओट

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ऐम्नीओट (उल्बीय प्राणी)
Amniote
सामयिक शृंखला:

PennsylvanianPresent, 312–0 मिलियन वर्ष
नवजात स्थलीय कछुआ अपने अंडे से निकलता हुआ
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: जंतु
संघ: रज्जुकी (Chordata)
अधिवर्ग: चौपाये (Tetrapoda)
अश्रेणीत: रेप्टिलियोमोर्फ़ा (Reptiliomorpha)
अश्रेणीत: ऐम्नीओटा (Amniota)
क्लेड

उल्बीय प्राणी या ऐम्नीओट (Amniotes) ऐसे कशेरुकी (रीढ़-वाले) चौपाये प्राणियों का क्लेड (समूह) है जो या तो अपने अंडे धरती पर देते हैं या जन्म तक अपने शिशु का आरम्भिक पोषण मादा के गर्भ के अंदर ही करते हैं। सरीसृप (रेप्टाइल), स्तनधारी (मैमल) और पक्षी तीनों ऐम्नीओटों की श्रेणी में आते हैं। इसके विपरीत उभयचर (ऐम्फ़िबियन) और मछलियाँ ग़ैर-ऐम्नीओट या अनैम्निओट (anamniotes) होते हैं जो अधिकतर अपने अंडे जल में देते हैं।[1]

ऐम्नीओट चौपाये होते हैं (चार-पाँव और रीढ़ वाले प्राणियों के वंशज) और इनके अंडों में उल्ब (amniotic fluid, द्रव) भरा होता है - चाहे वे किसी छिलके में मादा से बाहर हो या फिर मादा के गर्भ के भीतर पनप रहें हो। इस उल्ब के कारण ऐम्नीओटों को बच्चे जनने के लिये किसी भी समुद्री या अन्य जलीय स्थान जाने की कोई आवश्यकता नहीं। इसके विपरीत ग़ैर-ऐम्नीओटों को अपने अंडे किसी जल-युक्त स्थान पर या सीधा समुद्र में ही देने की ज़रूरत होती है। यह अंतर क्रम-विकास (इवोल्यूशन) में एक बड़ा पड़ाव था जिस कारण से चौपाये समुद्र से निकलकर पृथ्वी के ज़मीनी क्षेत्रों पर फैल पाये।[2]

ऐम्नीओटों की उत्पत्ति[संपादित करें]

चौपायों में सबसे प्रथम ऐम्नियोट छिपकली जैसे दिखते थे और जीववैज्ञानिकों को उनके ३१.२ करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म (फ़ोसिल) मिले हैं, जो ऐम्नीओटों की सर्वप्रथम उत्पत्ति की तिथि भी मानी जाती है। इनके अंडे पानी से बाहर जीवित रहने में सक्षम थे और खुली वायु में "श्वास" ले सकते थे। आगे चलकर यह ऐम्नीओट दो शाखाओं में बंट गये। एक तो पक्षिओं, सरीसृपों और डायनासोरों वाली सौरोपसिड (sauropsid) थी और दूसरी स्तनधारी व उनके विलुप्त सम्बन्धियों वाली सानैपसिड (synapsid) थी।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Benton M.J. and Donoghue P.C.J. 2006. Palaeontological evidence to date the tree of life. Molecular biology and evolution. 24(1): 26–53. [1]
  2. Benton, Michael J. (1997). Vertebrate Palaeontology. London: Chapman & Hall. pp. 105–109. ISBN 0-412-73810-4.