समावेशी शिक्षा

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समावेशी शिक्षा (अंग्रेज़ी: Inclusive education) से आशय उस शिक्षा प्रणाली से है जिसमें एक सामान्य छात्र एक दिव्यांग छात्र के साथ विद्यालय में अधिकतर समय बिताता है। दूसरे शब्दों में, समावेशी शिक्षा विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को सामान्य बालकों से अलग शिक्षा देने की विरोधी है।

शिक्षा का समावेशीकरण यह बताता है कि विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक सामान्य छात्र और एक दिव्यांग को समान शिक्षा प्राप्ति के अवसर मिलने चाहिए। पहले समावेशी शिक्षा की परिकल्पना सिर्फ विशेष छात्रों के लिए की गई थी लेकिन आधुनिक काल में हर शिक्षक को इस सिद्धांत को विस्तृत दृष्टिकोण में अपनी कक्षा में व्यवहार में लाना चाहिए।[1]

समावेशी शिक्षा या एकीकरण के सिद्धांत की ऐतिहासिक जड़ें कनाडा और अमेरिका से जुड़ीं हैं। प्राचीन शिक्षा पद्धति की जगह नई शिक्षा नीति का प्रयोग आधुनिक समय में होने लगा है। समावेशी शिक्षा विशेष विद्यालय या कक्षा को स्वीकार नहीं करता। अशक्त बच्चों को सामान्य बच्चों से अलग करना अब मान्य नहीं है। विकलांग बच्चों को भी सामान्य बच्चों की तरह ही शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है।

समावेशी शिक्षा की विशेषताएँ[संपादित करें]

समावेशी शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • 1. समावेशी शिक्षा ऐसी शिक्षा है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक तथा सामान्य बालक साथ-साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं। अपंग बालकों को कुछ अधिक सहायता प्रदान की जाती है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा अपंग बालकों के पृथक्कीकरण के विरोधी व्यावहारिक समाधान है।
  • 2. समावेशी शिक्षा विशिष्ट का विकल्प नहीं है। समावेशी शिक्षा तो विशिष्ट शिक्षा का पूरक है। कभी-कभी बहुत कम शारीरिक रूप से बाधित बालकों को समावेशी शिक्षा संस्थान में प्रवेश कराया जा सकता है। गम्भीर रूप से अपंग बालक को जो विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं, सम्प्रेषण व अन्य प्रतिभा ग्रहण करने के पश्चात् वे समन्वित विद्यालयों में भी प्रवेश पा सकते हैं।
  • 3. इस शिक्षा का ऐसा प्रारूप दिया गया है जिससे अपंग बालक को समान शिक्षा के अवसरं प्राप्त हों तथा वे समाज में अन्य लोगों की भाँति आत्मनिर्भर होकर अपना जीवनयापन कर सकें।
  • 4. यह अपंग बालकों को कम प्रतिबन्धित तथा अधिक प्रभावी वातावरण उपलब्ध कराती है जिससे वे सामान्य बालकों के समान जीवनयापन कर सकें।
  • 5. यह समाज में अपंग तथा सामान्य बालकों के मध्य स्वस्थ सामाजिक वातावरण तथा सम्बन्ध बनाने में समाज के प्रत्येक सतर पर सहायक है। समाज में एक-दूसरे के मध्य दूरी कम तथा आपसी सहयोग की भावना को प्रदान करती है।
  • 6. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक भी सामान्य बालकों के समान महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं।

समावेशी शिक्षा का महत्व[संपादित करें]

समावेशी शिक्षा, निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है-

1. शारीरिक दोषमुक्त विभिन्न बालकों की विशेष आवश्यकताओं की सर्वप्रथम पहचान करना तथा निर्धारण करना।

2. शारीरिक दोष की दशा को बढ़ाने से पहले कि वे गम्भीर स्थिति को प्राप्त हो, उनके रोकथाम के लिये सर्वप्रथम उपाय किया जाना। बालकों के सीखने की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करने की विभिन्न नवीन विधियों द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करना।

3. शारीरिक रूप से विकृतियुक्त बालकों का पुनर्वास कराया जाना।

4. शारीरिक रूप से विकृतियुक्त बालकों की शिक्षण समस्याओं की जानकारी प्रदान करना।

5. शारीरिक रूप से विकृतियुक्त बालकों की शिक्षण समस्याओं की जानकारी प्रदान करना तथा सुधार हेतु सामूहिक संगठन की तैयारी किया जाना।

6. बालकों की असमर्थताओं का पता लगाकर उनके निवारण का प्रयास करना।

समावेशी शिक्षा की प्रक्रिया[संपादित करें]

समावेशी शिक्षा में चार प्रकियाएं होती है-

1.मानकीकरण- सामान्यीकरण वह प्रक्रिया है जो प्रतिभाशाली बालकों तथा युवकों को जहाँ तक संभव हो कार्य सीखने के लिए सामन्य सामाजिक वातावरण पैदा करें।

2. संस्थारहित शिक्षा- संस्थारहित शिक्षा ऎसी प्रक्रिया है जिसमे अधिक से अधिक प्रतिभाशाली बालकों तथा युवक छात्राओं की सीमाओं को समाप्त कर देती है जो आवासीय विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं एवं उन्हें जनसाधारण के मध्य शिक्षा ग्रहण करने का अवसर प्रदान करते हैं।

3.शिक्षा की मुख्य धारा- शिक्षा की मुख्य धारा वह प्रक्रिया है जिनमे प्रतिभाशाली बालकों को समान्य बालकों के साथ दिन प्रतिदिन शिक्षा के माध्यम से आपस मे संबंध रखते हैं।

4.समावेश- समावेश वह प्रक्रिया है जो प्रतिभाशाली बालकों को प्रत्येक दशा में सामान्य शिक्षा कक्ष में उनकी शिक्षा के लिये लाती है । समन्वित पृथक्करण के विपरीत है । पृथक्करण वह प्रक्रिया है जिसमें समाज का विशिष्ट समुह अलग से पहचाना जाता है तथा धीरे धीरे सामाजिक तथा व्यक्तिगत दूरी उस समूह की तथा समाज की बढ़ती जाती है। [2]

=== पूर्णत: समावेशी विद्यालय तथा सामान्य/विशेष शैक्षिकनीतिया

छात्रों तथा शिक्षा नीतियों का वर्गीकरण[संपादित करें]

वैकल्पिक समावेशी कार्यक्रम, विद्यालयी प्रक्रिया और सामाजिक विकास[संपादित करें]

कानूनी मुद्दे –शैक्षिक कानून और विकलांगता कानून[संपादित करें]

संसार में समावेशी शिक्षा का मूल्यांकन[संपादित करें]

समावेशी शिक्षा और आवश्यक संसाधन के सिद्धांत[संपादित करें]

समावेशी कक्षाओं की सामान्य प्रथाएँ[संपादित करें]

साधारणतः छात्र एक कक्षा में अपनी आयु के हिसाब से रखे जाते हैं चाहे उनका अकादमिक स्तर ऊँचा या नीचा ही क्यों न हो। शिक्षक सामान्य और विकलांग सभी बच्चों से एक जैसा बर्ताव करते हैं। अशक्त बच्चों की मित्रता अक्सर सामान्य बच्चों के साथ करवाई जाती है ताकि ऐसे ही समूह समुदाय बनता है। यह दिखाया जाता है कि एक समूह दूसरे समूह से श्रेष्ठ नहीं है। ऐसे बर्ताव से सहयोग की भावना बढती है।

शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीकों का उपयोग करते हैं[3]:

  • समुदाय भावना को बढ़ाने के लिए खेलों का आयोजन
  • विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना
  • किताबों और गीतों का आदान-प्रदान
  • सम्बंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान
  • छात्रों में समुदाय की भावना बढ़ाने के लिए कार्यक्रम तैयार करना
  • छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना
  • विभिन्न क्रियाकलापों के लिए छात्रों का दल बनाना
  • प्रिय वातावरण का निर्माण करना
  • बच्चों के लिए लक्ष्य-निर्धारण
  • अभिभावकों का सहयोग लेना
  • विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना
  • कक्षा-कक्ष में सामूहिक प्रतियोगिताओं का आयोजन करना

दल शिक्षण पद्धति द्वारा सामान्यतः व्यवहार में आने वाली समावेशी प्रथाएँ[संपादित करें]

एक शिक्षा, एक सहयोग—इस मॉडल में एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है।

  • एक शिक्षा एक निरीक्षण – एक शिक्षा देता है दूसरा छात्रों का निरीक्षण करता है।
  • स्थिर और घूर्णन शिक्षा — इसमें कक्षा को अनेक भागों में बाँटा जाता है। मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलों पर इसी की जाँच करता है।
  • समान्तर शिक्षा – इसमें आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक तथा आधी को विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता है। दोनों समूहों को एक जैसा पाठ पढ़ाया जाता है।
  • वैकल्पिक शिक्षा – मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है।
  • समूह शिक्षा – यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति है। दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं। यह काफ़ी सफल शिक्षण पद्धति है।[4]

बच्चे जिन्हें अत्यधिक सहायता की आवश्यकता है[संपादित करें]

ऐसे बच्चों को अधिक देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता होती है जिनके साथ उनकी देखरेख करने वाला कोई नहीं होता है अथवा जिनके परिवारों ने गरीबी अन्य किसी कारण से उन्हें त्याग दिया हो। किशोर न्याय (बच्चों की देख रेख और संरक्षण अधिनियम) 2000 उनकी देखभाल, संरक्षण और पुनर्वास का प्रावधान करता है जिसमें दत्तक ग्रहण, पोषण देख – रेख, प्रायोजन  भी शामिल है।

कुछ बच्चे विभिन्न कारणों से अपने माता – पिता को खो देते हैं जैसे – गरीबी, विकलांगता, बीमारी, माता – पिता की मृत्यु अथवा कारावास, प्रवास अथवा सशस्त्र विवाद के कारण उनसे अलगाव। ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत अधिक है जिनके माता – पिता में से एक अथवा दोनों जीवित नहीं हैं। अभिभावकीय देखरेख के अभाव वाले ऐसे बच्चे उत्पीड़न,शोषण और उपेक्षा के उच्च जोखिम में जीते हैं। कभी – कभी जीवन में आई कठिनाइयों और जीवित रहने के लिए उनके द्वारा किया जाने वाला संघर्ष उन्हें अपराध करने पर विवश कर देता है जिसके उन्हें कानूनी परिणाम झेलने पड़ते हैं। कभी – कभी एचआईवी/एड्स से पीड़ित बच्चे अथवा ऐसे बच्चे जिन्होंने स्वयं कानून का उल्लंघन किया है या जिनके माता – पिता ने अपराध किया है, गाँव में कलंक माने जाते हैं और सामाजिक बहिष्कार के शिकार बन जाते हैं। इससे उनका जीवन अत्यंत कष्टकर हो जाता है। शारीरिक अथवा मानसिक विकलांगता से पीड़ित बच्चों को भी प्राय: परिवार और समुदाय द्वारा बोझ समझा जाता है। लोग इन बच्चों को कोसते हैं तथा ऐसे बच्चे भी उत्पीड़न, उपेक्षा और हिंसा के शिकार बनते हैं।

कर्नाटक के बागलकोट जिले के दिगम्बेश्वर मंदिर में मनाए जाने वाले महोत्सव के दौरान, छोटे बच्चों को 30 फूट ऊँचे मंदिर की छत से नीचे फेंका जाता है। छत से फेंके जाने वाले बच्चे दो वर्ष से कम की आयु के होते हैं। स्थानीय लोगों का विश्वास है की यह अनुष्ठान बच्चे के लिए स्वश्त्य और भाग्य लेकर आता है।

भारत में चली आ कुछ परंपरागत और अंधविश्वासी प्रथाएँ बच्चों की संवृद्धि, विकास और कुशलता के लिए बहुत हानिकारक हैं।

  • पुत्रियों को परिवार में एक बोझ तथा परिवार का अवांछनीय सदस्य समझा जाता है  अनेक परिवारों में उन्हें जन्म लेने से पूर्व ही माता के गर्भ में अथवा जन्म के तत्काल पश्चात् मार दिया जाता है। ऐसे प्रथाओं के फलस्वरूप भारत में पुरूषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या में काफी कम हो गई है।
  • देवदासी (अर्थात मंदिर की सेविका) के नाम पर बालिकाओं को वेश्यावृति के लिए विवश करना दक्षिण भारत के कुछ भागों में एक प्राचीन प्रथा है जिसके फलस्वरूप छोटी बालिकाओं को 10 वर्ष के आयु से भी पूर्व वेश्यावृति में झोंक दिया जाता है।
  • अनके समुदायों में, यह अंधविश्वास व्याप्त है कि प्रसव के तुरंत पश्चात माता का दूध शिशु के स्वास्थय के लिए अच्छा नहीं होता है। अत: दाई/प्रसव परिचारिका/परिवार के सदस्य उस दूध को प्रसव के तत्काल पश्चात शरीर से निकाल कर फेंक देते हैं, जो वास्तव में बच्चे की प्रतिरक्षण प्रणाली के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
  • जब बच्चे पीलिया जैसे रोगों से पीड़ित होते हैं, तो उन्हें परिवार द्वारा इलाज के लिए नीम हकीमों के पास ले जाया जाता है। गलत धारणाओं के कारण शिशु के टीकाकरण को या तो आरंभ नहीं किया जाता या टीकाकरण पूरा नहीं किया जाता।
  • बच्चों के साथ यौन–क्रिया को यौन–संचारित रोगों के लिए उपचार माना जाता है, जिसके फलस्वरूप बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न की घटनाओं में वृद्धि होती है।
  • भारत के अनेक भागों में बच्चों के अंगों को ईश्वर के प्रति समर्पित करने के लिए अथवा  काटने तथा अंधविश्वासपूर्ण आस्थाओं के कारण बच्चों की बलि देने की प्रथा प्रचलित हैं।

अन्य व्यवसायों के साथ सहयोग[संपादित करें]

विद्यालयों में समावेशी कार्यक्रमों के लिए छात्रों का चुनाव[संपादित करें]

आस-पास के विद्यालयों में पूर्ण समावेशी शिक्षा पर विभिन्न विचार[संपादित करें]

विस्तृत दृष्टिकोण[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  2. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  3. [PhDinSpecialEducation.com "How to Support Special Needs Students"] जाँचें |url= मान (मदद).
  4. Zelkowitz, Alyssa. "Strategies for Special Education & Inclusion Classrooms". मूल से 23 अगस्त 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 सितंबर 2015.