१९४७ का भारत-पाक युद्ध

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भारत-पाकिस्तान युद्ध १९४७-१९४८
भारत पाकिस्तान युद्ध का भाग
Indian soldiers fighting in 1947 war.jpg
१९४७-१९४८ के युध्द दौरान भारतीय सैनिक.
तिथि २२ अक्टूबर १९४७ – १ जनवरी १९४९
(१ वर्ष, २ मास, १ सप्ताह और ३ दिन)
स्थान कश्मीर
परिणाम युद्धविराम समझौता
  • जम्मू और कश्मीर की रियासत भारत के साथ एकीकृत
  • 1949 की संयुक्त राष्ट्र संघर्षविराम रेखा
  • युद्ध का परिणाम अनिर्णायक था। हालांकि, सबसे तटस्थ आकलन इस बात से सहमत हैं कि भारत युद्ध का विजेता था क्योंकि यह कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख सहित कश्मीर के दो-तिहाई हिस्से का सफलतापूर्वक बचाव करने में सक्षम था।
क्षेत्रीय
बदलाव
भारत लगभग दो तिहाई को नियंत्रित करता है (कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख़) जबकि पाकिस्तान बाकी को नियंत्रित करता है (आज़ाद कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान)[1]
योद्धा
भारत भारतीय अधिराज्य पाकिस्तान पाकिस्तान अधिराज्य
सेनानायक
गवर्नर जनरल लुईस माउंटबेटन
भारत प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू
ब्रिटिश राज जनरल रॉबर्ट लॉकहार्ट[9]
ब्रिटिश राज जनरल रॉय बुचर[9]
ब्रिटिश राज एयर मार्शल थॉमस एल्महर्स्ट[9]
ब्रिटिश राज लेफ्टिनेंट जनरल डुडले रसेल[9]
भारत लेफ्टिनेंट जनरल के एम करिअप्पा[9]
भारत लेफ्टिनेंट जनरल एस एम श्रीनागेश[10][11]
भारत मेजर जनरल के.एस. थिमय्या[9]
भारत मेजर जनरल कलवंत सिंह
[9]
महाराज हरि सिंह
प्रधान मंत्री मेहरचंद महाजन
अंतरिम प्रमुख शेख़ अब्दुल्ला
ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह
लेफ्टिनेंट कर्नल कश्मीर सिंह कटोच[12]
महाराज्यपाल मोहम्मद अली जिन्ना
प्रधानमंत्री लियाकत अली खान
ब्रिटिश राज Gen. Frank Messervy[9]
ब्रिटिश राज Gen. Douglas Gracey[9]
पाकिस्तान Col. Akbar Khan[13]
पाकिस्तान Col. Sher Khan[13]
पाकिस्तान Maj. Khurshid Anwar[14]
साँचा:देश आँकड़े Azad Hind Maj. Gen. Zaman Kiani[14]
Sardar Ibrahim[13]
Mirza Mahmood Ahmad[6][15]
पाकिस्तान Major William Brown[7]
पाकिस्तानMajor Mohammad Aslam[7][8]
मृत्यु एवं हानि
१,१०४ मृत्यु[16][17][18][19]
३,१५४ जखमी[16][20]
६,००० मृत्यु[20][21][22]
~१४,००० जखमी[20]

भारत और पाकिस्तान के बीच प्रथम युद्ध सन् १९४७ में हुआ था।[23] यह कश्मीर को लेकर हुआ था जो १९४७-४८ के दौरान चला।

जम्मू और कश्मीर के महाराज हरि सिंह, पुंछ में अपने मुस्लिम सैनिकों द्वारा विद्रोह का सामना कर रहे थे, और अपने राज्य के पश्चिमी जिलों पर नियंत्रण खो दिया था। 22 अक्टूबर 1947 को, पाकिस्तान की क़बायली लड़ाकों ने राज्य की सीमा पार कर ली।[24][25] ये स्थानीय क़बायली लड़ाकों और अनियमित पाकिस्तानी सेना राजधानी श्रीनगर ले जाने के लिए चले गए, लेकिन बारामूला पहुंचने पर, वे लूट के लिए रुक गए।[26] महाराज हरि सिंह ने सहायता के लिए भारत से गुहार लगाई,[27] और मदद की पेशकश की गई, लेकिन यह उनके भारत में विलय (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) पर हस्ताक्षर करने के अधीन था।[28]

युद्ध शुरू में जम्मू-कश्मीर राज्य बलों और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत से सटे फ्रंटियर ट्राइबल एरिया के मिलिशिया द्वारा लड़ा गया था।[29] 26 अक्टूबर 1947 को राज्य के भारत में विलय के बाद, भारतीय सैनिकों को राज्य की राजधानी श्रीनगर में भेज दिया गया।

युद्ध में भारतीय नुकसान 1,104 मारे गए और 3,154 घायल हुए; पाकिस्तानी, लगभग 6,000 लोग मारे गए और 14,000 घायल हुए। भारत ने कश्मीर का लगभग दो-तिहाई नियंत्रण प्राप्त कर लिया; पाकिस्तान, शेष एक तिहाई।[30][31][32][33] अधिकांश तटस्थ आकलन इस बात से सहमत हैं कि भारत युद्ध में विजयी हुआ, क्योंकि इसने कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख़ सहित अधिकांश लड़े हुए क्षेत्र का सफलतापूर्वक बचाव किया।[34][35]

पृष्ठभूमि[संपादित करें]

ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रसार किया। बाद में कनिष्क ने इसकी जड़ें और गहरी कीं। छठी शताब्दी के आरंभ में कश्मीर पर हूणों का अधिकार हो गया। यद्यपि सन् 530 में घाटी फिर स्वतंत्र हो गई लेकिन इसके तुरंत बाद इस पर उज्जैनसाम्राज्य का नियंत्रण हो गया। विक्रमादित्य राजवंश के पतन के पश्चात कश्मीर पर स्थानीय शासक राज करने लगे। वहां हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का मिश्रित रूप विकसित हुआ। कश्मीर के हिन्दू राजाओं में ललितादित्य (सन 697 से सन् 738) सबसे प्रसिद्ध राजा हुए जिनका राज्य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण, उत्तर-पश्चिम में तुर्किस्तान, और उत्तर-पूर्व में तिब्बत तक फैला था। ललितादित्य ने अनेक भव्य भवनों का निर्माण किया।भारतीय जम्मू और कश्मीर के तीन मुख्य अंचल हैं : जम्मू (हिन्दू बहुल), कश्मीर (मुस्लिम बहुल) औरलद्दाख़ (बौद्ध बहुल)। ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर है और शीतकालीन राजधानी जम्मू-तवी। कश्मीर प्रदेश को ‘दुनिया का स्वर्ग’ माना गया है। अधिकांश राज्य हिमालय पर्वत से ढका हुआ है। मुख्य नदियाँ हैं सिन्धु, झेलम और चेनाब। यहाँ कई ख़ूबसूरत झीलें हैं: डल, वुलर और नागिन।

जम्मू का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। हाल में अखनूर से प्राप्त हड़प्पा कालीन अवशेषों तथा मौर्य, कुषाण और गुप्त काल की कलाकृतियों से जम्मू के प्राचीन स्वरूप पर नया प्रकाश पड़ा है। जम्मू 22 पहाड़ी रियासतों में बंटा हुआ था। डोगरा शासक राजा मालदेव ने कई क्षेत्रों को जीतकर अपने विशाल राज्य की स्थापना की। सन् 1733 से 1782 तक राजा रंजीत देव ने जम्मू पर शासन किया किंतु उनके उत्तराधिकारी दुर्बल थे, इसलिए महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू कोपंजाब में मिला लिया। बाद में उन्होंने डोगरा शाही ख़ानदान के वंशज राजा गुलाब सिंह को जम्मू राज्य सौंप दिया। 1819 में यह पंजाब के सिक्ख शासन के अंतर्गत आया और 1846 में डोगरा राजवंश के अधीन हो गया। गुलाब सिंह रणजीत सिंह के गवर्नरों में सबसे शक्तिशाली बन गए और लगभग समूचे जम्मू क्षेत्र को उन्होंने अपने राज्य में मिला लिया।

कश्मीर में इस्लाम[संपादित करें]

कश्मीर में इस्लाम का आगमन 13 वीं और 14वीं शताब्दी में हुआ। मुस्लिम शासकों में जैन-उल-आबदीन (1420-70) सबसे प्रसिद्ध शासक हुए, जो कश्मीर में उस समय सत्ता में आए, जब तातरों के हमले के बाद हिन्दू राजा सिंहदेव भाग गए। बाद में चक शासकों ने जैन-उल-आवदीन के पुत्र हैदरशाह की सेना को खदेड़ दिया और सन् 1586 तक कश्मीर पर राज किया। सन् 1586 में अकबर ने कश्मीर को जीत लिया। सन् 1752 में कश्मीर तत्कालीन कमज़ोर मुग़ल शासक के हाथ से निकलकर अफ़ग़ानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली के हाथों में चला गया। 67 साल तक पठानों ने कश्मीर घाटी पर शासन किया।

भारत का बटवारा[संपादित करें]

१९४७ में अंग्रेजो के भारत छोड़ने के पहले और बाद में जम्मू एवं कश्मीर की रियासत पर नये बने दोनो राष्ट्रों में से एक में विलय का भारी दबाव था। भारत के बटवारे पर हुए समझौते के दस्तावेज के अनुसार रियासतो के राजाओं को दोनो में से एक राष्ट्र को चुनने का अधिकार था परंतु कश्मीर के महाराज हरि सिंह अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे और उन्होने किसी भी राष्ट्र से जुड़ने से बचना चाहा। अंग्रेजो के भारत छोड़ने के बाद रियासत पर रियासत पर पाकिस्तानी सैनिको और पश्तूनो के कबीलाई लड़ाको (जो कि उत्तर पश्चिमी सीमांत राज्य के थे) ने हमला कर दिया।

इस भय से कि रियासत की फ़ौज इनका सामना नहीं कर पायेगी महाराजा ने भारत से सैनिक सहायता मांगी। भारत ने सैनिक सहायता के एवज में कशमीर के भारत में विलय की शर्त रख दी। महाराजा के हामी भरने पर भारत ने इस विलय को मान्यता दे दी और रियासत को जम्मु कश्मीर के नाम से नया राज्य बना दिया। भारतीय सेना की टुकड़ियां तुरंत राज्य की रक्षा के लिये तैनात कर दी गयी। किंतु इस विलय की वैधता पर पाकिस्तान असहमत था। चूंकि जाति आधारित आंकड़े उपलब्ध नहीं थे इसलिये महाराज के भारत से विलय के पीछे क्या कारण थे यह तय पाना कठिन था।

पाकिस्तान की यह दलील थी कि महाराजा को भारतीय सेना बुलाने का अधिकार नहीं था क्योंकि अंग्रेजो के आने के पहले कशमीर के महाराजा का कोई पद नहीं था और यह पद केवल अंग्रेजो की नियुक्ती थी। इसलिये पाकिस्तान ने युद्ध करने का निर्णय लिया पर उसके सेना प्रमुख डगलस ग्रेसी ने इस आशय के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का आदेश मानने से इंकार कर दिया। उनका तर्क यह था कि कश्मीर पर कब्जा कर रही भारतीय सेनाएं ब्रिटिश राजसत्ता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं अतः वह उससे युद्ध नहीं कर सकते। हालांकि बाद में पाकिस्तान ने सेनाएं भेज दी पर तब तक भारत करीब करीब दो तिहायी कश्मीर पर कब्जा कर चुका था

युद्ध का सारांश[संपादित करें]

यह युद्ध पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सीमाओं के भीतर भारतीय सेना अर्धसैनिक बल और पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सेनाओं और पाकिस्तानी सेना अर्धसैनिक बल और पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमांत राज्य के कबीलाई लड़ाको जो खुद को आजाद कश्मीर की सेना के नाम से पुकारते थे के बीच लड़ा गया था। प्रारंभ में पूर्व जम्मू और कश्मीर रियासत की सेना आजाद कश्मीर के कबीलाई लड़ाको के शुरुवाती हमलो के लिये तैयार नहीं थी उसे केवल सीमा की रखवाली के लिये बहुत कम संख्या में तैनात किया गया था इसलिये उनकी रक्षा प्रणाली आक्रमण के सामने तुरंत ढह गयी और उनकी कुछ टुकड़िया दुश्मनो से जा मिली।

आजाद कश्मीर के कबीलाई लड़ाके शुरूवाती आसान सफ़लताओं के बाद लूटपाट में व्यस्त हॊ गये और उन्होने आगे बढ़ आसानी से कब्जे में आ सकने वाले नये इलाको पर हमला करने में देर कर दी और महाराजा कए भारत में विलय में सहमती देते ही भारतीय सेना को विमानो की मदद से सैनिक पहुचाने का मौका दे दिया। १९४७ के अंत तक कश्मीर में कब्जा करने के पकिस्तानी अभियान की हवा निकल गयी। केवल हिमालय के उपरी हिस्सो में आजाद कश्मीर नाम की पाकिस्तानी सेना को कुछ सफ़लतायें मिली पर आखिर में उन्हे लेह के बाहरी हिस्से से जून उन्नीस सौ अड़तालीस में वापस खदेड़ दिया गया। पूरे १९४८ के दौरान दोनो पक्षो के बीच अनेक छोटी लड़ाइयां हुई पर किसी को भी कोई मह्त्वपूर्ण सामरिक सफ़लता नहीं मिली और धीरे धीरे एक सीमा जिसे आज नियंत्रण रेखा के नाम से जाना जाता है स्थापित हो गई। ३१ दिसम्बर १९४८ में औपचारिक युद्ध विराम की घोषणा हो गयी।

युद्ध के भाग[संपादित करें]

इस युद्ध को दस भागो में बाटा जा सकता है। यह भाग इस प्रकार से हैं।

ऑपरेशन गुलमर्ग (शुरूवाती हमला)[संपादित करें]

शुरूवाती हमले का मुख्य उद्देश्य कश्मीर घाटी और इसके प्रमुख शहर श्रीनगर के नियंत्रण को अपने हाथ में लेना था। जम्मू और कश्मीर रियासत (अब राज्य) की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर और शीतकालीन राजधानी जम्मू थी। मुज्जफ़राबाद और डोमेल में तैनात रियासत की सेना तुरंत ही आजाद कश्मीर सेना नाम की पाकिस्तानी सेना से हार गयी (रियासत की सेना का एक धड़ा आजाद कश्मीर सेना से जा मिला था) और श्रीनगर का रास्ता खुल गया था। रियासत की सेना के पुनः संगठित होने के पहले श्रीनगर पर कब्जा करने के बजाय आजाद कश्मीर सेना सीमांत शहरो पर कब्जा करने और उसके निवासियों (गैर मुस्लिम) से लूटपाट एवं अन्य अत्याचार करने में जुट गयी। पुंछ की घाटी में रियासत की सेना पीछे हट कर शहरो में केंद्रित हो गयीं और उनको कई महिनो के बाद भारतीय सेना घेरा बंदी से मुक्त कराया।

कश्मीर घाटी का भारतीय सुरक्षातंत्र[संपादित करें]

Indian soldiers fighting in 1947 war

जम्मू और कश्मीर रियासत के भारत से विलय के बाद भारत ने विमान के द्वारा सैनिक और उपकरण श्रीनगर पहुंचाये। वहां पहुंच कर उन्होने रियासत की सेना को मजबूत किया और श्रीनगर के चारो ओर र्क सुरक्षा घेरा बनाया और आजाद कश्मीर सेना को हरा दिया। इस सुरक्षा घेरे में भारतीय सेना के बख्तरबंद वाहनो के द्वारा विरोधियो को पीछे से घेरना भी शामिल था। हारकर पीछे हटती हुई पाकिस्तानी सेना का बारामुला और उरी तक पीछा करके इन दोनो शहरो को मुक्त करा लिया गया हालांकि पुंछ घाटी में पाकिस्तानी सेना के द्वारा शहरो की घेरा बंदी जारी रही।

गिलगित में आजाद कश्मीर की कबीलाई सेना में गिलगित राज्य के अर्ध सैनिक बल शामिल हो गये और चित्राल के मेहतर जागीरदार की सेना भी अपने जागीरदार के पकिस्तान में विलय की घोषणा के बाद उसमे शामिल हो गयी

पुंछ मे फसी सेनाओं तक पहुचने का प्रयास्[संपादित करें]

भारतीय सेना ने आजाद कश्मीर की सेना का उरी और बारामुला पर कब्जे के बाद पीछा करना बंद कर दिया और एक सहायता टुकड़ी को दक्षिण दिशा में पुंछ की घेरा बंदी तोड़ने के प्रयास में भेजा। हालांकि सहायता टुकड़ी पुंछ पहुच गयी पर वह घेराबंदी नहीं तोड़ पायी और वह भी फंस गयी। एक दूसरी सहायता टुकड़ी कोटली तक पहुच गयी पर उसे अपना कोटली की मोर्चाबंदी को छोड़कर पीछे हटना पड़ा इसी बीच मीरपुर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा हो गया।

झांगेर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा होना और नौशेरा और उरी पर हमला25 November 1947 - 6 February 1948

झांगेर पर आजाद कश्मीर की सेना का कब्जा होना और नौशेरा और उरी पर हमला[संपादित करें]

पाकिस्तान/आजाद कश्मीर की सेना ने झांगेर पर कब्जा कर लिया तत्पश्चात उसने नौशेरा पर नकाम हमला किया। पाकिस्तान/आजाद कश्मीर की सेना की दूसरी टुकड़ीयों ने लगातार उरी पर नाकाम हमले किये। दूसरी ओर भारत ने एक छोटे से आक्रमण से छ्म्ब पर कब्जा बना लिया। इस समय तक भारतीय सेना के पास अतिरिक्त सैन्य बल उपलब्ध हो गये ऐसे में नियंत्रण रेखा पर स्थितियां स्थिर होने लगी।

अभियान विजय -- झांगेर पर प्रतिआक्रमण7 फरवरी 1948 - 1 मई 1948

अभियान विजय -- झांगेर पर प्रतिआक्रमण[संपादित करें]

भारतीय सेना बलों ने झांगेर और रजौरी पर प्रतिआक्रमण कर के उन्हे कब्जे में ले लिया। कश्मीर घाटी में आजाद कश्मीर सेना ने उरी के सुरक्षा तंत्र पर आक्रमण जारी रखा। आजाद कश्मीर सेना ने उत्तर में स्कार्दू की घेरा बंदी कर दी।

भारतीय सेना का बसंत अभियान 1 मई 1948 - 19 मई 1948

भारतीय सेना का बसंत अभियान[संपादित करें]

आजाद कश्मीर की सेना के अनेक प्रतिआक्रमणो के बावजूद भारतीयो ने झांगेर पर नियंत्रण बनाये रखा हालांकि अब आजाद कश्मीर की सेना को नियमित पाकिस्तानी सैनिको की मदद अधिकाधिक मिलने लगी थी। कश्मीर घाटी में भारतीयो ने आक्रमण कर तिथवाल पर कब्जा कर लिया। उंचे हिमालय के क्षेत्रों में आजाद कश्मीर की सेना को अच्छी बढत मिल रही थी। उन्होने टुकड़ियो की घुसपैठ कर के कारगिल पर घेराबंदी कर दी तथा स्कार्दू की मदद के लिये जा रहे भारतीय सैन्य दस्तों को हरा दिया।

भारतीय सेना का बसंत अभियान1 मई 1948 - 19 मई 1948

अभियान गुलाब एवं इरेस (मिटाना)[संपादित करें]

भारतीय सेना बलो ने कश्मीर घाटी में हमला जारी रखा और उत्तर की ओर आगे बढ कर केरान और गुराऐस पर कब्जा कर लिया। उन्होने तिथवाल पर किये गये एक प्रतिआकर्मण को वापस खदेड़ दिया। पुंछ घाटी में पुंछ में फसी भारतीय टुकड़ी घेराबंदी तोड़कर कुछ समय के लिये बाहरी दुनिया से वापस जुड़ गयी। लंबे समय से फसी कश्मीर रियासत की टुकड़ी गिलगित स्काउट (पाकिस्तान) से स्कार्दू की रक्षा करने में अब तक सफल थी इस लिये पाकिस्तानी सेना लेह की ओर नहीं बढ पा रही थी। अगस्त में चित्राल (पाकिस्तान) की सेना ने माता-उल-मुल्क के नेत्रुत्व में स्कार्दू पर हमला कर दिया और तोपखाने की मदद से स्कार्दू पर कब्जा कर लिया। इससे गिलगित स्काउट लद्दाख की ओर आगे जाने का मौका मिल गया।

अभियान डक (बत्तख) 15 अगस्त 1948 - 1 नवम्बर् 1948

अभियान डक (बत्तख)[संपादित करें]

इस समय के दौरान नियंत्रण रेखा स्थापित होने लगी थी और दोनो पक्षो में अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों की रक्षा का ज्यादा महत्व था बनिस्बत की हमला करने के। इस दौरान केवल एक महत्वपूर्ण अभियान चलाया गया यह था अभियान डक जो कि भारतीय बलो द्वारा द्रास के कब्जे के लिये था इस दौरान पुंछ पर घेराबंदी जारी रही।

अभियान ईजी (आसान) पुंछ तक पहुचना 1 November 1948 - 26 November 1948

अभियान ईजी (आसान) पुंछ तक पहुचना[संपादित करें]

अब भारतीय सेना सभी क्षेत्रों पर पाकिस्तानी सेना और उससे समर्थित आजाद कश्मीर सेना पर भारी होने लगी थी। पुंछ को एक साल लंबी घेराबंदी से आजाद करा लिया गया था और गिलगित स्काउट जो कि अब तक अच्छी कामयाबी हासिल कर रही थी उसे उसे आखिरकार हराकर उसका पीछा करते हुए भारतीय सेना ने कारगिल को आजाद करा लिया पर आगे हमला करने के लिये भारतीय सेना को रसद की आपूर्ती की समस्या आ सकती थी अतः उन्हे रुकना पड़ा जोजिला दर्रे को टैंक की मदद से (इससे पहले इतनी उंचाई पर पूरे विश्व में कभी भी टैंक का इस्तेमाल नहीं हुआ था) कब्जे में ले लिया गया पाकिस्तानी सेना टैंक की अपेक्षा नहीं कर रही थी और उनके तुरंत पांव उखड़ गये। टैंक का इस्तेमाल बर्मा युद्ध से मिले अनुभव के कारण ही संभव हो पाया था। इस दर्रे पर कब्जे के बाद द्रास पर आसानी से कब्जा हो गया।

युद्ध विराम की ओर कदम 27 November 1948 - 31 December 1948

युद्ध विराम की ओर कदम[संपादित करें]

लड़ाई के इस दौर में पहुंचने पर भारतीय प्रधानमंत्री ने मामले को संयुक्त राष्ट्र महासभा में ले जा कर उनके द्वारा मामले का समाधान करवाने का मन बना लिया। 31 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा की गई। युद्ध विराम होने से कुछ दिनों पहले पाकिस्तानी सेना ने एक प्रतिआक्रमण करके उरी और पुंछ के बीच के रास्ते पर कब्जा करके दोनो के बीच सड़क संपर्क तोड़ दिया। एक लंबे मोलभाव के बाद दोनो पक्ष युद्धविराम पर राजी हो गये। इस युद्धविराम की शर्तें[36] अगस्त 13, 1948 को संयुक्त राष्ट्र ने अपनाया। इसमे पाकिस्तान को अपने नियमित और अनियमित सनिको को पूरी तरह से हटाने और भारत को राज्य में कानून व्यवस्था लागू करने के लिये आवश्यक सैनिक रखने का प्रस्ताव था। इस शर्त के पूरा होने पर जनमत संग्रह करके राज्य के भविष्य और मालिकाना हक तय करने का निर्धारण होता। इस युद्ध में दोनो पक्षो के लगभग १५-१५ सौ सैनिक मारे जाने का अनुमान है। [37] और इस युद्ध के बाद भारत का रियासत के साठ प्रतिशत और पाकिस्तान का ४० प्रतिशत भूभाग पर कब्जा रहा।

इस युद्ध से सीखी गयी सैन्य नीतियां[संपादित करें]

बख्तरबंद वाहन का प्रयोग[संपादित करें]

इस युद्ध के दो चरणो में बख्तरबंद वाहन और हल्के टैंको का प्रयोग अत्यंत महत्वपूर्ण था इन दोनो में ही बहुत ही कम संख्या में इनका प्रयोग हुआ था। ये चरण थे

  • श्रीनगर पर प्रारंभिक हमले को नाकाम करना जिसमे भारत के २ बख्तरबंद वाहनो ने पाकिस्तान के अनियमित सैनिको के दस्ते पर पीछे से हमला किया
  • जोजिला दर्रे पर ११ हल्के टैंको की मदद से भारतीय सेना का कब्जा

यह घटनाएं यह बताती हैं कि असंभावित जगहो पर बख्तरबंद वाहनो के हमले का दुश्मन पर मानसिक दबाव पड़ता है। ऐसा भी हो सकता है कि हमलावरों ने टैकरोधी हथियारो का प्रयोग नहीं किया शायद उन्होने आवश्यक न जानकर उन्हे पीछे ही छोड़ दिया। बख्तरबंद वाहनो के प्रयोग की सफलता ने भारत की युद्ध नीति पर गहरी छाप छोड़ी चीन के साथ युद्ध के वक्त भारतीयो ने बड़ी मेहनत से दुर्गम इलाको में बख्तरबंद वाहनो का प्रयोग किया किंतु उस युद्ध में बख्तर बंद वाहनो को अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

सीमा रेखा मे आये बदलाव[संपादित करें]

सीमा रेखा में आये परिवर्तनो का यदि अध्ययन किया जाय तो काफी रोचक तथ्य उभर कर आते हैं। एक बार सेनाओं का जमावड़ा पूरा होने के बाद नियंत्रण रेखा में बदलाव बेहद धीमा हो गया और विजय केवल उन इलाकों तक सीमित हो गयी जिनमे सैनिक घनत्व कम था जैसे की उत्तरी हिमालय के उंचे इलाके जिनमे शुरुवात में आजाद कश्मीर की सेना को सफलताएं मिली थी। १९४८ में पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण करके, उसके एक तिहाई भाग पर अधिकार कर लिया। अभी तक यह एक तिहाई भाग पाकिस्तान के पास है।

सेनांओ की तैनाती[संपादित करें]

जम्मू और कश्मीर रियासत की सेनाएं इस युद्ध के प्रारंभ में फैली हुईं और छोटी संख्या में केवल आतंकवादी हमलो से निपटने के लिये तैनात थीं। जिससे वे पारंपरिक सैनिक हमले के सामने निष्फल साबित हुई। इस रणनीति को भारत ने पूर्वी पाकिस्तान (आज का बंग्लादेश) में भारत पाकिस्तान के बीच तीसरे युद्ध में सफलता पूर्वक प्रयोग किया।[उद्धरण चाहिए]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

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Bibliography[संपादित करें]

Major sources
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