अस्पृश्यता

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सन १९४२ में नागपुर में हुए अखिल भारतीय अस्पृश्य नारी सम्मेलन में बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर

अस्पृश्यता का शाब्दिक अर्थ है - न छूना। इसे सामान्य भाषा में 'छूआ-छूत' की समस्या भी कहते हैं। अस्पृश्यता का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह के सभी लोगों के शरीर को सीधे छूने से बचना या रोकना। ये मान्यता है कि अस्पृश्य लोगों से छूने, यहाँ तक कि उनकी परछाई भी पड़ने से उच्च जाति के लोग 'अशुद्ध' हो जाते हैं और अपनी शुद्धता वापस पाने के लिये उन्हें पवित्र गंगा-जल से स्नान करना पड़ता है। भारत में अस्पृश्यता की प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 17 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया है। अनुच्छेद 17 निम्नलिखित है-

'अस्पृश्यता' का अन्त किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। 'अस्पृश्यता' से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।

संवैधानिक प्रावधानों के अतिरिक्त अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिये कुछ विधिक प्रावधान भी किये गए हैं –

  • (१) सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम- संसद ने अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिये अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 पारित किया तथा 1976 में इसका संशोधन कर इसका नाम ‘सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम’ कर दिया गया। यह अधिनियम अस्पृश्यता को एक दण्डनीय अपराध के रूप में संबोधित करता है। यह अस्पृश्यता से उत्पन्न होने वाली किसी भी प्रकार की अक्षमता को लागू करने के लिए दण्ड का भी आदेश देता है।
  • (२) अनुसूचित जाति एवं जनजाति (उत्पीड़न निवारण) अधिनियम,1989 के तहत प्रथम बार ‘उत्पीड़न’ शब्द की व्यापक व्याख्या की गई है। केन्द्र सरकार ने इस अधिनियम से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए 1995 में एक नियमावली का निर्माण भी किया है।
  • (३) 2015 में उपर्युक्त अधिनियम में संशोधन के माध्यम से पुराने प्रावधानों को और अधिक सख्त कर दिया गया है। इसमें उत्पीड़न की परिभाषा में कई और कृत्यों, जैसे- सिर व मूंछ मूँड़ना, चप्पलों की माला पहनाना, जनजातीय महिलाओं को देवदासी बनाना आदि को भी शामिल किया गया है। इसमें मामलों के त्वरित निवारण के लिये विशेष अदालतों के गठन का भी प्रावधान किया गया है।

अस्पृश्यता की उत्पत्ति और उसकी ऐतिहासिकता पर अब भी बहस होती है। मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं हैं जिसे भीमराव अम्बेडकर ने भी स्वीकार किया है।[1] भीमराव आम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता कम से कम 400 ई. से है[2] आज संसार के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो अथवा आर्थिक, धार्मिक हो या सामाजिक, सर्वत्र अस्पृश्यता के दर्शन किए जा सकते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान आदि यद्यपि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित और संपन्न देश हैं किन्तु अस्पृश्यता के रोग में वे भी ग्रस्त हैं।[उद्धरण चाहिए] अमेरिका जैसे महान राष्ट्र में काले एवं गोरे लोगों का भेदभाव आज भी बना हुआ है।

कारण[संपादित करें]

राजनैतिक इतिहास - अछूत जिन्हे सरकारी तौर पर आनुसूचित जनजाति के नाम से भी जाना जाता है मध्यकालीन इतिहास से मिलता ये ऐसे वर्ण है जिनका विवरण प्राचीन भारतीय वर्ण व्यवस्था में भी नहीं मिलता ।

जहां प्राचीन सामाजिक ग्रंथों में भी इस वर्ण को जगह नहीं मिली न ही इस का कोई उल्लेख ही मिलता है ।

मगर इन्हे उन प्राचीन सामाजिक समूहों से जरूर जोड़ा जा सकता है जिन का इतिहास कोई सभ्यता नहीं लिखती ।

वैसे प्रथम प्राचीन भारतीय बागियों का इतिहास प्रथम प्राचीन उपनिवेशवादी व्यवस्था से शुरू माना जा सकता है । प्रथम भारतीय उपनिवेशिक व्यवस्था का प्रथम उद्धारण हमे परब्रह्मा व्यवस्था से मिलता है जहां कुछ ताकतवर कबीलों ने मिल कर आस पास के अन्य कबीलों को जीता और उन्हे अपना गुलाम बनाया।

गुलाम बनाए गए लोगों को दूसरे दर्जे की नागरिकता दी गई जब की पहले दर्जे की नागरिकता जीतने वाले कबीले के लोगों को मिली ।

पहले दर्जे की नागरिकता पाने वाले नागरिक अपनी बुद्धि शौर्य कार्यकौशल और मेहनत के आधार पर चार में से किसी भी वर्ण में अपनी जगह बना सकते थे ।

वही दूसरी ओर हारे हुए लोगों के दूसरे दर्जे के नागरिक अधिकार थे । पर उपनिवेशिक शक्तीयो के हाथों गुलाम बने लोग वो थे, जिन की जमीन जायदाद सब उपनिवेशिक ताकतों ने हतिया ली थी, जो परिवार उपनिवेशिक ताकतों के सामने झुक गए उन्होंने दूसरे दर्जे की नागरिकता प्राप्त की और जिन लोगों ने नई उपनिवेशिक ताकतों का समर्थन नहीं किया और जंगलों के जा कर छुप गए और छापामार युद्ध के माध्यम से ताकतवर उपनिवेशिक सत्ता को कमजोर करते रहे ताकि मौका मिलते ही उपनिवेशिक सत्ता दहाई जा सके ,ये लोग बागी कहलाए । ये ब्राहमण (राज्य भक्त) थे जो राज्य के अंत के बाद भी अपने पूर्वजों की आदर्श व्यवस्था के लिए लड़ रहे थे ।

बागी(राज्य विरोधी ) उपनिवेशिक राज्य के विरोधी थे जो जंगलों में छुप कर उपनिवेशिक सत्ता को चोट पहुचाने के लिए उन के समर्थक व्यापारियों को और उपनिवेशिक भाड़े के कातिलों को मौका मिलते ही मार देते और लूट लेते ।

पर बागी होना कोई आसान नहीं था राज्य में रहते हुए राज्य से दुश्मनी सिर्फ बागियों को ही नहीं झेलनी पड़ती थी बल्कि उन का पूरा परिवार और कई बार पूरा खानदान राज्य द्वारा तिरस्कृत कर दिया जाता था। 

बागियों के परिवारों को कोई भी व्यापारी काम पर नहीं रखता था व्यापारी डरते थे कही ये लोग बागियों से मिल कर उन पर डाका न डलवा दे।

राज्य वैसे ही बागियों के परिवार शक की दृष्टि से देखता, कोई भी डाका पड़ने पर इस समुदाय के सभी इंसानों को राज्य गिरफ्त में लेता

इन की स्त्रिया और बड़े बूड़ों को राज्य द्वारा उठा लिया जाता और बागियों को राज्य के सामने हतियार डालने पर मजबूर किया जाता । वही बागी अन्य बागियों के साथ मिल जनक्रांतियों की रचना करते और हर सत्ता पलट के बाद वे पुनः मुख्य धार का हिस्सा बनते ।

वही प्राचीन कल्याणकारी गणतांत्रिक व्यवस्थाओ में अगर वे किसी आक्रमणकारी को हराते भी तो उस के कबीले में हिरण्यगर्भ अनुष्ठान करवाते जहां उस राज्य के नागरिक अपने नेतृत्वकर्ता का चुनाव करते और इस के साथ ही जीते गए राज्य में कल्याणकारी गणतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना करते ऐसे राजा हिरण्यकाश्यप राजा के नाम से जाने जाते ये नया राज्य गणतांत्रिक व्यवस्था अपनाते ही गणतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो जाता था ।

इस लिए प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था(शैविक दर्शन) में जहां जनसभा राज करती थी व जल जंगल जमीन पूरे समाज की सामुहिक संपत्ति थी वहाँ लोगों के पास कोई वजह नहीं थी बागी होने के लिए इस लिए गणतांत्रिक कल्याणकारी व्यवस्था में बागी समाज नहीं पनपे वही अन्य कल्याणकारी राज्य व्यवस्थाओ ने भी युद्ध व अन्य आपदा से ग्रस्थ निवासियों को मूल धार में लाने के लिए हमेशा प्रयतनसर रहे ।

प्राचीन भारतीय गणतांत्रिक व्यवस्था के इलावा अन्य कल्याणकारी सामाजिक व्यवस्था भी राज्य द्वारा तरस्कृत व बागी समाज को जमीन व न्याय के माध्यम से पुनः मुख्य धार में आने में मदद करते

पर भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर भारतीय राष्ट्रो में 16 वी शताब्दी की शुरुवात मुग़ल सल्तनत के नाम से एक नई  उपनिवेशिक ताकत आगमन हुआ जिस की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप में नए बागी समाजों का उदय हुआ । मुगल साम्राज्य ने उत्तर भारत में अनेकों विवाहों के माध्यम से अपनी जड़ों को मजबूत बनाया ।

पर दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में मुगल साम्राज्य स्थाई रूप से कभी स्थापित नहीं हो सका इस लिए बागी समाज स्थाई रूप से न ही बागी रहा, न ही स्थाई रूप से राज्य विरोधी ।

महाराष्ट्र में बागियों के एक सफल आंदोलन ने मराठा के उदय से भी मध्य भारत में बागियों को वापस मुख्य धार से जुडने का मौका मिला

वही दूसरी तरफ मुगल शासित क्षेत्रों में भी जहां लोग जो मुगल शासन से सहमत नहीं थे बागियों की एक बड़ी तादात उत्पन्न हुई जिस के एक हिस्से ने प्रकृतिवादि सिख गुरुओ का अनुसरण किया और बागियों ने उत्तर भारत में एक नए समुदाय का उदय हुआ जिसने आगे चल कर सिख साम्राज्य की नीव रखी ।

काफी बागी हार के बाद शिवालिक के शैविक प्रदेशों में चले गए जहां उन्हे शरण मिली ।

मगर उत्तर भारत के मुगल शासित क्षेत्रों में बागियों की स्थिति बहुत खराब थी। बागी आत्मसम्मानी लोग थे जो किसी भी दुश्मन के आगे झुकना पसंद नहीं करते थे । इसलिए ताकतवर दुश्मन इन को बंदी बना इन से इंसानी मैला उठवाने जैसे जलील कामों पर मजबूर किया ताकि उन के आत्मसमान पर ठेस लगे । उन पर नई राज्य व्यवस्था (आस्था) अपनाने का भी दबाव डाला जाता

मुगल के अंत होने पर ही अछूत मूल समुदाय का हिस्सा बन सकते थे पर उत्तर भारतीय बागी समाज की किस्मत कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी रेनेस्सा के साथ आई जहां आस्था के हाथ से वो सारी सत्ता की शक्तीय छिन चुके थे और आस्था सिर्फ पैदायशी रीलिजन और जाति का ठप्पा बन कर रह गई थी इस लिए नई ब्रिटिश व्यवस्था के आने से बागियों पर अछूत का लगा ठप्पा बरकरार बना रहा ।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में नई व्यवस्था ले कर आई फ्रेंच क्रांति के बाद जैसे लॉर्ड्स से जमीन छीनी नहीं गई थी बल्कि जमीन को पैसे के माध्यम से खरीद फ़ीरोकतः की वस्तु ने तब्दील कर दिया गया था । वैसे ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय जमीदार या लोगों से सारी जमीन न छीन सिर्फ उन के जंगलों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा किया और उन पर भारी कर लगाए जिस से सत्ताधारी जिन के पास जमीने थी या तो उन्होंने जमीन बचाने के लिए आम लोगों पर अधिक कर लगा अपनी ही जनता को अपना दुश्मन बना लिया या फिर जमीन बेच सब कुछ अय्याशी में उड़ा दिया ।

ब्रिटिश पूर्वी इंडिया कंपनी जो खुद एक उपनिवेशिक ताकत के रूप में आई,अन्य उपनिवेशिक ताकतों की तरह उस ने भी प्राकृतिक संसाधनों की लूट शुरू कर दी इस के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने अन्य उपनिवेशिक ताकतों की तरह लोगों की जमीनों पर कब्जा किया जिस से  उस ने एक नए बागी वर्ण का निर्माण किया जो आगे चल कर ठग के तौर पर प्रसिद्ध हुए ।

क्यों की ठगों पर पहले ही 1782 ऐक्ट के तहत पैदायशी हिन्दू और मुस्लिम के ठप्पे लग चुके थे इस लिए नए अछूत वर्ण को ठग या क्रिमिनल ट्राइब के नाम से नया ठप्पा प्रदान किया गया ।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

प्राचीन भारतीय शासकों की तरह मुगल ने भी अलग अलग भारतीय कबीलों के साथ अलग अलग संधि कर रखी थी जिस से मुगलों को एक तरफ स्थानीय बागियों से सुरक्षा मिलती थी वही दूसरी तरफ ये संधिया मुगल साम्राज्य को शक्ति भी प्रदान करती थी ।

पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने इन छोटे कबीलों का पूरी तरह दमन कर दिया इन की जमीने व जायजाद अपने समर्थक जमीदारों को बेच दी या बाट दी गई । पूरी तरह उपनिवेशिक ताकतों द्वारा बर्बाद ये कबीले आर्थिक व सामाजिक रूप से बर्बाद कर दिए गए ।

ताकतवर उपनिवेशिक ताकतों द्वारा बर्बाद का दिए गए ये विस्थापित परिवार टुकड़ों में फैल गए ताकि दुश्मन की सीधा नज़र से बच सके और छोटी संख्या में होने के बावजूद ये लोग काफी छापामार युद्ध के माध्यम से काफी प्रभावी साबित हुए इन लोगों ने मुगलों के हारने के बाद ब्रिटिश समर्थक व्यवसाई व ब्रिटिश सैनिकों को अपना मुख्य निशाना बनाया ।

नए ब्रिटिश कालीन बागियों की मुख्य खासियत ये थी कि मुगल साम्राज्य में जहां भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी ही बागी बने थे पर ब्रिटिश राज के बागियों में सिर्फ पैदायशी हिन्दू का ठप्पा लगे लोग ही नहीं पैदायशी मुस्लिम का ठप्पा लगे लोग भी बराबर रूप से शामिल थे ।

बागियों में पैदायशी रीलिजन और जाति के ठप्पे के आधार पर कोई बटवारा नहीं था यह इस बात को सीधा दर्शाते है कि भारतीय बागी सिर्फ अपने सम्मान ,अधिकारों,और स्वतंत्रता के लिए लड़े न की ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लगाए गए पैदायशी रीलिजन और कास्ट ठप्पे के आधार पर लड़े ।

जब की हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे गुट ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लगाए गए पैदायशी रीलिजन और कास्ट के ठप्पे के अनुसार लोगों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे और यही वो कारण था की हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसी पैदायशी रीलिजन और कास्ट का ठप्पा मानने वाली ये फासिस्ट पार्टीय कभी आम जनता का समर्थन पाने में उस समय तक असफल रही ।

जैसा की हम आज भी देखते है कि ब्रिटिश सिवलाइज़्ड सिस्टम जो लोगों पर पहले कॉमन वेल्थ और आज के समय में ग्लोबल ईकानमी सिस्टम के तौर पर लागु है वहाँ लोग ग्लोबल सिस्टम द्वारा लगाए पैदायशी रीलिजन और कास्ट के आधार पर बटे एक दूसरे के खून के प्यासे है।

ऐसे आधुनिक समाज को civilized कहा जाता है, जहां लोग सिस्टम द्वारा लगाए गए पैदायशी रीलिजन और जाति के आधार पर बटे है जहां पैदायशी रीलिजन और जाति के सरकारी ठप्पे के आधार पर लोगों को नागरिकता दी जाति है ।

जब तक पैदायशी रीलिजन और जाति का ठप्पा लगाने वाला और थापे के आधार पर नागरिकता देने वाला civilized सिस्टम लागु है आम जनता आपस में लड़ती रहेगी पैदायशी रीलिजन और जाति के नाम पर और जनता को जनता का खौफ दिखा पैसे वाले दुनीया पर राज करंगे ।

और बागी तब तक अछूत ही बने रहेंगे क्यों की आजादी सिस्टम से मिलती है लोगों से नही ।  

मगर ये स्थिति 20 वी शताब्दी के बुद्धिजीवी समृद्ध परिवारों के बागियों के साथ वो व्यवहार नहीं हुआ जो आदिवासियों व कबीलों के साथ घटित हुआ ।

समाजशास्त्रियों के अनुसार 'अस्पृश्यता की जननी ऊँच-नीच की भावना है'। अस्पृश्यता के तीन कारण है:

प्रजातीय भावना[संपादित करें]

अस्पृश्यता का सर्वप्रथम कारण प्रजातीय भावना का विकास है। कुछ प्रजातियाँ अपने को दूसरे प्रजातियों से श्रेष्ठ मानती हैं। अमेरिकी गोरे, नीग्रो जाति के लोग को हेय मानते हैं, इसके अतिरिक्त विजेता प्रजातियाँ पराजित जातियों को हीन मानती है।

धार्मिक भावना[संपादित करें]

धर्म में पवित्रता एवं शुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है, अतः निम्न व्यवसाय वालों को हीन दृष्टि से देखा जाता है। भारतीय समाज में इन्हीं कारणों से सफाई का काम करने वालों तथा कर्मचारों आदि को अस्पृश्य समझा जाता था।

सामाजिक कारण[संपादित करें]

प्रजातीय एवं धार्मिक कारणों के अतिरिक्त अस्पृश्यता के सामाजिक कारण भी हैं। समाज में प्रचलित रूढियों और् कुप्रथाओं के कारण भी समाज में वर्गभेद उत्पन्न होते हैं। यह वर्गभेद अस्पृश्यता के विकास में सहायक सिध्द होते हैं।

समय के परिवर्तन के साथ मनुष्यों के विचारों में भी परिवर्तन हुआ। जैसे-जैसे विज्ञान की प्रगति होती गई, समाज आर्थिक रूप से विकसित होता गया। समाज में सर्वत्र पैसे का बोलबाला हो गया। आज मानव की सामाजिक स्थिति पैसे से आँकी जाती है। आज वही श्रेष्ठ है, जो धनी है। अतः सामाजिक स्थिति जन्मजात न होकर अर्जित हो गई। सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के साथ साथ अस्पृश्यता का भयानक वृक्ष डगमगाने लगा है।

अस्पृश्यता के खिलाफ आवाज

निवारण के उपाय[संपादित करें]

शिक्षा[संपादित करें]

शिक्षा का उद्देश्य है-समाज में प्रचलित रूढियों, धर्मांधता, संकीर्णता की भावना को दूर करना, जिससे अस्पृश्यता स्वयं ही दूर होगी। जब मानव के दृष्टिकोण में परिवर्तन होकर उसमें विश्वबंधुत्व की भावना का विकास होगा तो उच्च एवं निम्न वर्गों के मध्य का अंतर स्वयं ही समाप्त हो जाएगा।

जाति-प्रथा का उन्मूलन[संपादित करें]

हिंदू समाज में विद्यमान जाति-उपजाति प्रथा को समाप्त करके एक भारतीय जाति का विकास करने पर अस्पृश्यता के इस कलंक से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

राजकीय पदों पर नियुक्ति[संपादित करें]

सरकार इस विषय में विशेष जागरूक है। विभिन्न राजकीय पदों पर अनुसूचित जाति के पढे-लिखे युवकों की नियुक्ति का प्रतिशत निश्चित कर दिया गया है। इससे उसमें आत्मगौरव तथा नवीन चेतना का संचार हुआ है।

आर्थिक विकास[संपादित करें]

हरिजनों को कृषि तथा गृह-उद्योग के लिए जमीन, हल, बैल आदि तथा अन्य आर्थिक मदद राज्य की ओर से मिलनी चाहिए। हरिजनों की आर्थिक दशा में सुधार के लिए सूदखोरी की रोकथाम के लिए कानून बनाने चाहिए, जिससे हरिजनों की रक्षा हो सके। समाज में अस्पृश्यता के दोषों को प्रचार द्वारा दूर करना चाहिये जिससे अस्पृश्यों को मानवीय अधिकार प्राप्त करने में सहायता मिल सके।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं (डॉ सुरेन्द्र कुमार)
  2. Ambedkar, Bhimrao Ramji; Moon, Vasant (1990). Dr. Babasaheb Ambedkar, Writings and Speeches, Volume 7.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]