ब्रज का भूगोल

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किसी भी सांस्कृतिक भू-खंड के सास्कृतिक वैभव के अध्धयन के लिये उस भू-खंड का प्राकृतिक व भौगोलिक अध्ययन अति आवश्यक होता है। संस्कृत और ब्रज भाषा के ग्रन्थों में ब्रज के धार्मिक महत्व पर अधिक प्रकाश डाला गया है, किन्तु उनमें कुछ उल्लेख रूप में कुछ प्राकृतिक और भौगोलिक स्थित से भी सम्बधित वर्णन प्रस्तुत हैं। ये उल्लेख ब्रज के उन भक्त कवियों के कृतियों में प्रस्तुत है, जिन्होंने १६वीं शती के बाद यहां निवास कर अपनी रचनाएँ स्त्रजित की थी। उनमें से कुछ महानुभावों ने ब्रज के लुप्त स्थलों और भूले हुए उपकरणों का अनुवेषण कर उनके महत्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया था। ऐसे मनीषी लेखकों में सर्वश्री रुपगोस्वामी, नारायणभटट, गंगवाल और जगतनंद के नाम विशेष उल्लेखनीय है। रुपगोस्वामी कृत - 'मथुरा माहत्म्य', नारायणभटट कृत - 'ब्रजभक्ति विलास' और जगतनंद कृत - 'ब्रज वस्तु वर्णन' में इस विषय से सम्बधित कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ वर्णित हैं।

भू-संरचना[संपादित करें]

ब्रज प्रदेश यमुना नदी के मैदानी भाग में स्थित है साधारणतः यहां की भूमि का निर्माण यमुना नदी के द्वारा वहाकर लाई-गई मिटटी के जमाव से सम्पन्न हो सका है। यहां की भूमि प्रायः समतल है। यहां की भूसतह की समुद्रतल से ऊँचाई लगभग ६०० फीट है। ब्रज का उत्तरी भाग ६०० फीट से भी अधिक ऊँचा है जवकि दक्षिणी भाग ६०० फीट से कम है अत यहां की भूसतह का ढलाव उत्तर से दक्षिण की ओर है और इसके मध्य से होकर यमुना नदी की धारा उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर निरन्तर प्रवाहित है।

भू-संरचना की दृष्टि से ब्रज को तीन प्राकृतिक भागों में विभाजित किया जा सकता है - (१) मैदानी भाग (२) पथरीला या पहाड़ी भाग और (३) खादर का भाग। मैदानी भाग विस्तृत है जो यमुन नदी के दोनों ओर पूर्व और पश्चिम दिशाओं में फैला हुआ है। प्राचीन काल में इस भाग में यमुना के दोनों ओर बड़े-बड़े बन थे जो अत्यधिक सघन थे, जिनके कारण ब्रज प्रदेश में अतिसय बर्षा होती थी। उस समय यह भाग अत्यधिक रमणीक और उपजाऊ था। प्राचीन बनों के निरन्तर काटे जाने के कारण अव यहां वर्षा कम होने लगी है और राजिस्थानी सूखाग्रस्त रेगिस्तान का फैलाव इधर बढ़ने लगा है, जिससे इस क्षेत्र की जलवायु और उपज पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। फिर भी यमुना से पूर्व दिशा वाला मैदानी भाग अधिक उपजाऊ बना हुआ है क्योंकि यह दोमट मिटटी से निर्मित है। पश्चिम दिशा वाले मैदानी भाग की भूमि बालूदार और मटियार है, अतः यह पूर्वी भाग की दोमट भूमि की अपेक्षा कम उपजाऊ है।

पथरीला और पहाड़ी भाग ब्रज की उत्तरी-पश्चिमी दिशाओं में है। इस भाग में कई छोटी पहाड़िया स्थित हैं, जिनका धार्मिक महत्व अधिक है। हालांकि ये नाम-मात्र की पहाड़ियां हैं क्योंकि इनकी वास्तविक ऊँचाई १०० फीट के लगभग है। ब्रज का अधिकांश भाग यमुना नदी के मैदानी भाग मे होने के कारण यहां कोई पर्वत और पहाड़ नहीं हैं। जैसा पहिले अंकित है कि इसके पश्चिमी भाग में कुछ नीची पहाड़ियां है, जो अरावली पर्वत श्रखलाओं की टूटी हुई स्थिति में विधमान है। इन नीची और साधारण पहाड़ियों को इनके धार्मिक महत्व के कारण ही 'गिरी' या पर्वत कहा जाता है।

ब्रज में पर्वत[संपादित करें]

कवि जगतनंद के वर्णनानुसार ब्रज में ५ पर्वत या पहाड़िया हैं:

गोबर्धन पहाड़ी[संपादित करें]

मथुरा नगर के पश्चिम में लगभग मील की दूरी पर यह पहाड़ी स्थित है। इसकी वास्तविक ऊँचाई पहाड़ी समतुल्य नहीं है, किन्तु इसके अनुपम धार्मिक महत्व के कारण इसे धर्मसम्मत कवियों और लेखकों ने अपने विवरणों में 'गिरिराज' (पर्वतों के राजा) के रूप में वर्णित किया है। इसकी ऊँचाई लगभग १०० फीट और लम्बाई ५ मील के लगभग है। ऐसी अनुश्रुति है कि इसकी ऊँचाई पहिले बहुत अधिक थी, किन्तु वह धटते-धटते इतनी कम अधिशेष रह गई है। प्राचीन बृदावन का विस्तार थी प्राचीन काल में गोबर्धन तक विस्तत था तथा इसके समीप से यमुना नदी प्रवाहित होती थी। गर्गसंहिता में गोबर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे वृन्दावन में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है। २ पौराणिक उल्लेखों के अनुसार भगवान कृष्ण के काल में यह अत्यन्त हरा-भरा रमणीक पर्वत था। इसमें अनेक गुफा अथवा कदराएँ थी और उनसे शीतल जल के अनेक झरने झरा करते थे। उस काल के ब्रज-वासी गण उसके निकट अपनी गायें चराया करते थे, अत वे उक्त पर्वत को बड़ी श्रद्धा की द्रष्टि से देखते थे। भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोबर्धन की पूजा ब्रज में प्रचलित की थी, जो उसकी उपयोगिता के लिये उनकी श्रद्धांजलि थी।

ब्रज के भक्त महानुभावों ने, विशेषकर बल्लभ सम्प्रदायी कवियों ने गोबर्धन के प्रति अत्याधिक श्रद्धा व्यक्त की है। अष्टछाप के कवियों ने गिरिराज-गोवर्धन को राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ाओं का केन्द्र वतलाते हुए उसके प्राकृतिक सौदर्य का भी बड़ा ही भव्य वर्णन प्रस्तुत किया है। चतुर्भुज दास ने कहा है - वहां शीतल, मंद, सुगन्धित पवन प्रवाहित होती है, सुन्दर झरना झरते हैं, समस्त ॠतुओं में खिलने वाले सुन्दर पुष्प और फल विधमान रहते हैं। ३ अन्य कवियों ने भी इसके सुन्दर शिखरों पर विधमान नवीन वनस्पति, मनोरम दल, फूल-फल तथा पवित्र झरनों का वर्णन प्रस्तुत किया है। ४

भगवान श्री कृष्ण के काल में इन्द्र के प्रकोप से एक बार ब्रज में भयंकर वर्षा हुई थी। उस समय सम्पूर्ण ब्रज के जल मग्न हो जाने का आशंका उत्पन्न हो गई थी। भगवान श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन के द्वारा समस्त ब्रजवसियों की रक्षा की थी। भक्तों का विश्वास है, श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन को छाता के समान धारण कर उसके नीचे समस्त ब्रजवासियों को एकत्र कर लिया था, उस अलौकिक घटना का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही पुराणादि धार्मिक ग्रन्थों में और कलाकृतियों में होता रहा है। ५ ब्रज के भक्त कवियों ने उसका बड़ा उल्लासपूर्ण कथन किया है। ६ आजकल के वैज्ञानिक युग में उस आलौकिक घटना को उसी रूप में मानना संभव नहीं है। उसका बुद्धिगम्य अभिप्राय यह ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण के आदेश अनुसार उस समय ब्रजवासियों ने गोवर्धन की कंदराओं में आश्रय लेकर वर्षा से अपनी जीवन रक्षा की थी।

गोवर्धन के महत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना यह है कि यह भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र स्थिर रहने वाला चिन्ह है। उस काल का दूसरा चिन्ह यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह लगातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है। समस्त भारतवर्ष से लाखों नर-नारी प्रतिवर्ष गोवर्धन के दर्शन और उसकी परिक्रिमा करने के लिये आते हैं। ब्रज यात्रा के अवसर पर यहां यात्रीगण कई दिनों तक ठहरते हैं। उस समस यहां पर अनेक उत्सवों का आयोजन होता है। उपाषकों की मान्यतानुसार गोवर्धन भगवान श्रीकृष्ण का प्रतिरुप ही है। ७


नंदगाँव की पहाड़ी[संपादित करें]

इसे 'नदीश्वर' अथवा 'रुद्रगिरि' भी कहा जाता है। १ यह ब्रज के नन्दगाँव नामक ग्राम में स्थित है, जो कृष्ण काल में भगवान श्री कृष्ण के पालक-पिता नंद गोप की राजधानी थी। यह मथुरा शहर के पश्चिम में स्थित है इसकी लम्बाई लगभग आधी मील और ऊँचाई लगभग फीट है। इसके सवसे ऊँचे भाग पर नंदराय जी का मन्दिर है। पहाड़ी के चतुर्दिक ढलाव पर उसके नीचे नंदगाँव की बस्ती है। ब्रज के भक्त कवियों ने इस पहाड़ी की अपने वर्णनों में प्रशंसा वर्णित की है।

१. नंदीश्वर र्तृ नंद जसोदा गोपिन न्यौंत बुलाए। (कुंभनदास)

वरसाना की पहाड़ी[संपादित करें]

इसे ब्रम्हगिरि भी कहते हैं। यह ब्रज के वरसाना नामक ग्राम में स्थित है और इसकी स्थिति वर्तमान मथुरा शहर के पश्चिम में है और यह नंदगाँव से लगभग ४ मील दक्षिण में है। भगवान कृष्ण के काल में यह राधा जी के पिता बृषभानु गोप का निवास स्थान था। वरसाना की पहाड़ी नंदगाँव पहाड़ी से कुछ बड़ी है और इसमें कई धार्मिक स्थल हैं, जो प्राकृतिक दृष्टिसे भी बड़े रमणीक हैं।

इस पहाड़ी के ऊँचे स्थल पर भी लाडिली जी का सुन्दर मन्दिर है तथा दूसरे स्थलों पर अन्य मन्दिर निर्मित हैं। इसके चतुर्दिक बरसाना ग्राम की बस्ती है। ब्रज के भक्त कवियों ने वरसाना का भी वर्णन राधा-कृष्ण की लीलाओं के प्रसंग में किया है। १

१. बरसाने बृषभान गोप के लाल की भई सगैया। (परमानन्द दास) चले कुँवर लै बरसाने कों, प्रफुलित मन बृज राज। (कुंभनदास)

कामबन की पहाड़ी[संपादित करें]

यह पहाड़ी राजस्थान के कामबन नामक स्थान में स्थित है, जो ब्रज सीमान्तर्गत। इस पहाड़ी को कामगिरि भी कहा जाता है। यह लगभग ४०० गज में विस्तृत है।

चरण की पहाड़ी[संपादित करें]

यह छोटी पहाड़ी नंदगाँव और बरसाना की पहाड़ियों की भाँति मथुरा जिले की छाता तहसील में स्थित है। नंदगाँव से लगभग ६ मील उत्तर-पूर्व की ओर यह ब्रज के छोटी बठैंन नामक ग्राम में है। यह लगभग ४०० गज लंबा और लगभग १० फीट ऊँचा पत्थरों का एक ढेर मात्र है, किन्तु इसके धार्मिक महत्व के कारण 'चरण पहाड़ी' कहा जाता है। भक्तों की मान्यता है कि यहां पर भगवान श्री कृष्ण के चरण चिन्ह हैं। ब्रज में एक दूसरी चरण पहाड़ी भी है, जो कामबन के समीप स्थित है, वहां भी भगवान श्री कृष्ण के चरण चिन्ह होने का विश्वास किया जाता है।

उपर्युक्त पाँचों पहाड़ियों के अतिरिक्त बरसाने के निकटवर्ती ऊँचा गाँव में भी एक छोटी सी पहाड़ी है, जिसे सखीगिरि कहा जाता है। उसी के समीप रनकौली ग्राम में भी एक छोटी पहाड़ी है। ब्रज के भक्त कवियों की रचनाओं मे इन पहाड़ियों का वर्णन नहीं वर्णित है। परमानंद दास के एक पद में केवल चरण चरण पहाड़ी का वर्णन मिलता है। १

१. लुकि लुकि खेलत आँख मिचौंनी 'चरन पहाड़ी' ऊपर। (परमानंददास)

टीले[संपादित करें]

ब्रज में उपर्युक्त पक्की पहाड़ियों के अतिरिक्त कच्चे टीले भी बहुत सखया में हैं। मथुरा नगर का अधिकांश भाग इन टीलों पर बसा हुआ है और नगर के चारों ओर भी दूर-दूर तक अनेक टीले फैले हुए हैं। इनमें से अधिकांश टीलों के अन्दर मथुरा नगर के प्राचीन काल में बार-बार बसने और उजड़ने के पुरातात्विक अवशेष छुपे हुऐ हैं। इनमें कंकाली यीला, भूतेश्वर टीला, कटरा केशवदेव टीला, गोकर्णश्वर टीला, सप्तॠषि टीला, जेल टीला, चौबारा टीला आदि उल्लेखनीय हैं। इनकी खुदाई से वहुसख्यक पुरातात्विक महत्व के पुरावशेप पाये गये हैं जिनके सहयोग से ब्रज के वैभवपूर्ण सास्कृतिक इतिहास की रचना हो सकी है।

मथुरा शहर के अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रज मंडल में प्राचीन मानवीय बस्तियों से सम्वधित अनेकों टीले विखरे हुए हैं जिनके विषय में कहीं उल्लेख तक नहीं है जबकि कुछ भी प्राचीनता का सव्यापन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के द्वारा किया गया है जिनमें मुख्य है कंकाली टीला, भूतेश्वर टीला, सोंख टीला, सतोहा टीला, अड़ीग टीला, गनेशरा टीला और महोली के समतल किये गये टीले, छाता का टीला, भौगाँव का टीला, नगला सांकी का टीला, सुनरख के टीले, वृन्दावन के पुराने गोविन्द मन्दिर टीला, मदनमोहन मन्दिर टीला, गोंदा आटस का टीला, कीकी नगला का टीला, माँट का टीला, गौसना का टीला, भरतपुर का नोंह का टीला आदि-आदि टीलें ब्रज की प्राचीन संस्कृति को संरक्षित और सुरक्षित किये हुए हैं।