गुरु बालकदास

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गुरु बालकदास

गुरु बालकदास
जन्म [भादो अष्टमी ]], 1805
गिरौदपुरी छत्तीसगढ़, भारत
मौत 28 मार्च 1860(1860-03-28) (उम्र 54)
औराबाँधा मुंगेली, छत्तीसगढ़
मौत की वजह जातिवादी सामंतियो द्वारा छुपकर प्राण घातक हमला
समाधि

संघर्ष स्थल - औराबाँधा, जिला - मुंगेली

शहादत स्थल भंडारपुरी धाम जिला रायपुर ,कोसा (मुलमुला)
समाधि स्थल भंडारपुरी धाम , नवलपुर (ढारा), जिला - बेमेतरा
पदवी राजा गुरु, सतनामी आंदोलन के महानायक व प्रमुख सेनापति
प्रसिद्धि का कारण लोक-समाज के भूमि -संपत्ति, स्वाभिमान और मानव अधिकार की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे।
जीवनसाथी नीरा माता, राधा माता
बच्चे गुरु साहेबदास
माता-पिता गुरु घासीदास, सफुरा माता
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

उनके शरीर को औराबंधा से भंडारपुरी लाते समय कुछ देर वह रुके थे नवलपुर ढारा और कोसा (मुलमुला) में इस लिए वहा को भी समाधि स्थल बोलते हैं लोग वास्तव में भंडारपुरी मुक्ति धाम में समाधि है

गुरु बालकदास (18 अगस्त 1805 ई. - मृत्यु 28 मार्च 1860 ई.) महान क्रांतिकारी, समाज सुधारक , युग पुरुष और मानवाधिकार के लिए सतनामी आंदोलन के प्रणेता व सतनाम धर्म के संस्थापक गुरु घासीदास[1] जी के द्वितीय पुत्र तथा उत्तराधिकारी थे।

परीचय[संपादित करें]

गुरु बालकदास जी का जन्म 18 अगस्त सन् 1805 ईं. को दक्षिण एशिया मे भारत के मध्यप्रांत के छत्तीसगढ मे स्थित सोनाखान रियासत के गिरौद गांव मे गुरु घासीदास जी और सफूरा माता के पुत्र के रूप मे हुआ। अपनी कम उम्र मे ही इन्होने सन 1820 ई. से चले सतनामी आंदोलन मे बढ़-चढ़कर हिस्सा लिए और नेत्रृत्वकारी भूमिका निभाई। इनका सोनाखान के राजा रामराय के पुत्र वीर नारायण सिंह और आदिवासियों से मित्रतापुर्ण संबंध था।

गुरु बालकदास जी का विवाह ढारा नवलपुर (बेमेतरा) के निवासी सुनहरदास चतुर्वेदी की सुपुत्री नीरा माता के साथ हुआ । नीरामाता, साहेब भुजबल महंत जी के बहन थी । बाद में गुरुजी ने चितेर सिलवट के बेटी राधा संग भी विवाह किये । गुरुबालकदास और राधा माता से उनके पुत्र साहेबदास जी का जन्म हुआ। और नीरा माता से गंगा व गलारा नाम की दो पुत्री का जन्म हुआ। [2]

इनके ऊपर गुरु घासीदास जी के विचारों का प्रभाव बचपन से ही पड़ा था। इसलिए जब सन 1820 ईस्वी मे सतनामी आंदोलन प्रारंभ हुआ, तो बालकदास जी ने उसमे बढ़ चढ़कर अपना योगदान दिया। उनके महत्त्वपूर्ण भूमिका के कारण गुरु घासीदास जी के बाद सन 1850 मे सतनामियों का प्रमुख गुरु बनाया गया। गुरु बालकदास जी ने नेतृत्व संभालने के बाद आंदोलन को पूर्व की भांति पुरे गति से आगे बढ़ाया।

सन 1857 मे भारत मे ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सैन्य विद्रोह हुआ. जिसे इस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने पुरी तरह विफल कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन कंपनी के हांथ से अपने अधीन कर लिया। सुव्यवस्थित रूप से शासन करने के लिए मालिक मकबूजा कानून लागू किया गया। जिसके तहत ऐसे काश्तकार जो अपने जमीनों पर सन 1840 से काश्तकारी कर रहे हो, उनको सर्वे के बाद मालिकाना हक देने का फैसला किया गया था.सतनामी आंदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ के लोगों ने पेशवाशाही मराठों के द्वारा अपने छिने हुए भूमि संपत्तियों पर दोबारा अधिकार कर लिया था। मैदानी क्षेत्र के लगभग आधे भूभाग पर अपने जनसंख्या [सतनामियों का जनसंख्या छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों मे आधा था] के अनुपात मे कब्जा था। नये कानून से उन सभी भूमि संपत्तियों पर सतनामियों का कानून अधिकार होता.कानून मे यह भी प्रावधान था, कि अगर कोई विवाद होता है। तो उस क्षेत्र के मान्य मुखिया के राय को महत्व देते हुए निर्णय लिया जाएगा। गुरु बालकदास को मैदानी इलाकों के आधी आबादी के लोग अपने गुरु और मुखिया मानती थी। नये कानूनी प्रावधान से उनका हैसियत किसी न्यायाधीश या राजा का तरह हो चुका था। इसलिए आमजन उन्हें राजा गुरु कहते थे। इसके अलावा उनका प्रभाव आदीवासियों के ऊपर भी था। सोनाखान के आदिवासी नेता वीर नारायण सिंह से काफी मित्रतापूर्ण संबंध था।[3]

मालिक मकबूजा कानून से जातिवादी सामंती ताकतों मे खलबली मच गया। क्योंकि वे जानते थे कि एक बार अगर सरकारी दस्तावेजों मे जमीनों के वास्तविक मालिकों का नाम दर्ज हो गया तो उनको बेदखल नहीं कर सकते। वे गुरु बालकदास जी के रहते सतनामियों के विरुद्ध कुछ भी कार्यवाही नहीं कर सकते थे। छत्तीसगढ़ मे किसी का साहस नही था, की कोई उनको टेढ़ी नजर से भी देख सके। इसलिए सामंती तत्वों ने गुरु बालकदास जी के हत्या करने का राष्ट्रव्यापी षड़यंत्र किया। छत्तीसगढ़ से बाहर के अपराधी किस्म के लोगों को कहा गया कि छत्तीसगढ़ मे एक आदमी का हत्या करना है, और यहां के हजारों हजार एकड़ जमीन पर कब्जा करना है। बाहरी अपराधियों को छत्तीसगढ़ बुलाया गया उनको सैन्य प्रशिक्षण दिया गया।[3]

गुरु बालकदास जी बोड़सरा बाड़ा- बिलासपुर के देखरेख का जिम्मा अपने एक अंगरक्षक को सौंपकर रामत [दौरा] के लिए निकले। कुछ दिनों के बाद औराबांधा- मुंगेली मे रावटी [मीटिंग] का आयोजन किया गया। जिसमें गुरु बालकदास जी गये। गुरु बालकदास जी 16 मार्च 1860 को रात मे जब विश्राम कर रहे थे, तो दुश्मनों ने योजनाबद्ध तरीके से उनको लक्ष्य बनाकर अचानक प्राणघातक हमला कर दिया। प्रारंभिक अफरातफरी के बाद उनके सूरक्षा दस्ते ने संभलते हुए आक्रमण का मुकाबला किया। हमलावर मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। इस संघर्ष मे गुरु बालकदास जी गंभीर रूप से घायल हो गए थे। सुरक्षा दस्ता उनको भंडारपुर -बलौदाबाजार जो सतनामियों का तत्कालिन मुख्यालय था। वहां ले जाना चाहते थे, लेकिन अचानक रास्ता बदलकर नवलपुर ले जाने लगे। रास्ते में कोसा नामक गांव मे 17 मार्च 1860 ईस्वी को उन्होंने अंतिम सांस लिया। उनके पार्थिव देह को नवलपुर- बेमेतरा मे दफ़न किया गया। बोड़सरा से निकल कर बोड़सरा या भंडारपुर फिर कभी वापस नही आए। इस प्रकार सतनामी आंदोलन के महानायक राजा-गुरु बालकदास जी ने हमारे भूमि संपत्ति और सम्मान का रक्षा करते हुए शहीद हो गए।[4]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. रामकुमार लहरे. सतनाम, सतनामी धर्म व सतनामी आंदोलन और ब्रिटिशकालीन अभिलेख. Booksclinic Publishing. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5535-065-7.
  2. कुमार [रामकुमार लहरे] (17 मार्च 2018). गुरु बालकदास शहादत दिवस. बिलासपुर,छत्तीसगढ़: सतनामी पुनर्जागरण मिशन [SPM].
  3. साहेबश्री लखन सुबोध. गुरुबालकदास बलिदान गाथा.
  4. महेश दत्त शर्मा (2022). "गुरु बालकदास". छत्तीसगढ़ की महान विभूतियाँ (हिंदी में) (First संस्करण). प्रभात प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-87968-74-5.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

मानवाधिकार स्वाभिमान दिवस

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]