पूर्वनिर्णय

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विधि के सन्दर्भ में पूर्व-निर्णय या नजीर (precedent) से आशय है -‘‘भूतकालीन निर्णयों को मार्गदर्शक के रूप में अपनाते हुए भावी निर्णय के प्रति लागू करना।’’ विधि के स्रोत के रूप में न्यायिक पूर्व-निर्णय का पर्याप्त महत्व है।

बेबीलोनिया में 2000 ई0 पू0 भी न्यायलयीन निर्णय को अभिलिखित किये जाने की परिपाटी प्रचलित थी ताकि कानूनी परामर्श के लिए इनकी सहायता ली जा सके। रोमन विधिशास्त्र के अन्तर्गत न्यायधीशों को यह निर्देश दिया गया था कि वे प्रकरणों में विख्यात न्यायवेत्ताओं द्वारा दिये गये पूर्व-निर्णयों का अनुसरण करें। उल्लेखनीय है कि महाद्वीपीय पद्धति में पूर्व-निर्णय को बन्धनकारी नहीं माना गया है तथा न्यायाधीशों को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वे अपने निर्णय को पूर्व-दृष्टान्त पर आधारित करें या न करें। परन्तु इंग्लिश विधि में कुछ दशाओं में पूर्व-निर्णय बन्धनकारी प्रभाव रखते है अर्थात न्यायधीशों को समान प्रकरणों वालों वादों में पूर्व-निर्णयों का अनुसरण करना अनिवार्य होता है।

परिचय[संपादित करें]

सामण्ड के अनुसार न्यायिक पूर्व-निर्णय न्यायालय द्वारा दिया गया ऐसा निर्णय है जिसमें विधि का कोई सिद्धान्त निहित होता है। पूर्व-निर्णय में निहित सिद्धान्त जो उसे प्राधिकारिक तत्व प्रदान करता है, विधिशास्त्रीय भाषा में ‘विनिश्चय-आधार’ कहलाता है। ऐसे ठोस निर्णय सम्बन्धित पक्षकारों पर बन्धकारी प्रभाव रखते हैं तथा इन निर्णयों के आधार को विधि के रूप में स्वीकार किया जाता है। दूसरे शब्दों में, न्यायिक पूर्व-निर्णय न्यायालय द्वारा निर्धारित ऐसे सिद्धान्त होते हैं जो भविष्य में न्यायालय के समक्ष निर्णय हेतु आने वाले समान वादों में लागू किये जाने हैं। उल्लेखनीय है कि सभी न्यायिक निर्णय पूर्व-निर्णय का रूप धारण नहीं करते बल्कि केवल ऐसे निर्णय ही पूर्वोक्ति का महत्व रखते हैं जो किसी नये नियम या विधि-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हों।

प्रोफेसर गुडहार्ट ने सामंड के निर्णयाधार के सिद्धान्त की आलोचना करते हुए लिखा है कि वस्तुतः न्यायालय द्वारा प्रतिपादित प्रत्येक सिद्धान्त विनिश्चय-आधार नहीं हो सकता है क्योंकि या तो वह बहुत अधिक विस्तृत होता है या अत्यधिक संकीर्ण। अतः निर्णय के किसी विशिष्ट भाग को उद्धृत करके उसे विनिश्चय-आधार कहना अनुचित होगा। गुडहार्ट के विचार से न्यायाधीशों द्वारा किसी मामले के तथ्यों के आधार पर निकाला गया निष्कर्ष ही उस वाद का विनिश्चय-आधार होता है। उनका कहना है कि किसी पूर्ववर्ती निर्णय का निर्णयाधार ही न्यायाधीशों द्वारा पश्चात्वर्ती निर्णयों में लागू किया जाना चाहिये। यही न्यायिक विनिश्चय जो पश्चात्वर्ती वादों में निर्णय का आधार होता है, भविष्य के लिए विधि की शक्ति रखता है।

यह सत्य है कि कॉमन-लॉ का अनुसरण करने वाले देशों में नई विधियों का निर्माण तथा विधियों में सुधार संसदीय अधिनियमों द्वारा ही किये गये हैं, परन्तु फिर भी विधि के स्रोत के रूप में न्यायाधीशों द्वारा दिये गये पूर्व-निर्णय का भरपूर योगदान रहा है। किसी न्यायाधीश द्वारा फैसले में किया गया अभिकथन अन्य न्यायाधीशों के लिये अनुकरणीय हो सकता है तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिये उसका बन्धनकारी प्रभाव होगा और इस प्रकार यह परोक्षतः ‘विधि’ का रूप धारण कर लेगा। तथापि यह दो शर्तों पर निर्भर करेगा। प्रथम यह कि वह निर्णय पर्याप्त रूप से वरिष्ठ न्यायाधीश द्वारा दिया गया हो, तथा दूसरा यह कि उस फैसले का केवल निर्णय-सार ही बन्धनकारी प्रभाव रखेगा न कि पूरा निर्णय।

विनिश्चय-आधार के उदाहरण के रूप में ब्रिजे स बनाम हाक्सवर्थ के वाद को उद्धृत किया जा सकता है। इस वाद में यह निर्णीत किया गया कि किसी दुकान की फर्श पर पड़े हुए सिक्के पर यदि वहाँ आने वाले किसी ग्राहक की दृष्टि पड़ती है और वह उसे सर्वप्रथम पा लेता है तो उस सिक्के पर दुकानदार की बजाय ग्राहक का ही कब्जा-अधिकार होगा। यह निर्णय इंग्लिश विधि के सुस्थापित सिद्धान्त ‘फाइन्डर्स-कीपर्स’ पर आधारित था और यही इस वाद का निर्णयधार माना जाएगा।

जर्मी बेन्थम ने पूर्व-निर्णय को ‘न्यायाधीशों द्वारा निर्मित नियम’ कहा है जबकि ऑस्टिन इस प्रकार के नियमों को ‘न्यायपालिका की विधि’ मानते हैं। पूर्व-निर्णय के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए ब्लैकस्टोन ने कहा है कि पूर्ववर्ती निर्णयों के प्रयोग द्वारा न्याय की तराजू सन्तुलित तथा स्थिर बनी रहती हैं। नये न्यायाधीशों की नियुक्ति के साथ विधि में एकाएक नवीन परिवर्तन नहीं लाये जा सकते हैं। जो बाते पहले अनिश्चित रहीं हैं, वे न्यायिक पूर्व-निर्णय के द्वारा विनिश्चित हो जाती है। ब्लैकस्टोन के इस तर्क का समर्थन अमेरिकी विधिशास्त्री डॉ॰ कार्टर ने भी किया है।

कीटन के अनुसार न्यायिक पूर्व-निर्णय न्यायालय द्वारा दिये गये ऐ से न्यायिक विनिश्चय हैं जिन्हें किसी प्रकरण में निर्णय देने के लिए आधार बनाया जाता है। इसलिए इन्हें ‘निर्णयाधार’ कहा गया है।

विख्यात अमरीकी न्यायविद् बेन्जमिन कारडोजो ने भी पूर्व-निर्णय को विधि के स्रोत के रूप में स्वीकार किया है किन्तु वे इसका कट्टरता से पालन किये जाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि न्यायपीठों में निरन्तर परिवर्तन होते रहने के कारण उनके द्वारा दिये गये निर्णय को बंधनकारी प्रभाव देना अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न कर सकता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पूर्व-निर्णय एक ऐसा निर्देश है जो भावी निर्णय का आधार हो सकता है। यह एक उपाय है जिसका निरन्तर उपयोग किया जाता है और जो विधि में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है। उल्लेखनीय है कि पूर्व-निर्णय का प्रवर्तन न्यायिक विनिश्चियों की शुद्धता की विधिक धारणा पर आधारित है। एक बार विनिश्चित मामला सदैव के लिए विनिश्चित माना जाता है। किसी निर्णय में जो बात कही जाती है वह स्थापित सच्चाई होती है। जब तक किसी उच्चतर न्यायालय द्वारा किसी विनिश्चिय को पलट नहीं दिया जाता, तब तक पूर्व-निर्णय को चुनौती नहीं दी जा सकती है। यदि इसके विषय में कोई आपत्ति हो, तो उच्चतर न्यायालय में अपील दायर करके उसे विनिश्चित कराया जा सकता है।

निर्णीतानुसरण का सिद्धान्त[संपादित करें]

निर्णीतानुसरण का सिद्धान्त (निर्णीतानुसरण = निर्णीत + अनुसरण ; Doctrine of stare decisis) इंग्लिश विधि का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार पूर्व-निर्णय प्राधिकारपूर्ण तथा बन्धनकारी होते हैं तथा इनका अनुसरण किया जाना अनिवार्य है। जब अनेक निर्णयों द्वारा किसी वैधानिक प्रश्न को स्पष्टतया सुनिश्चित कर दिया जाता है, तो उसका अनुसरण करने तथा उसे न बदलने के सिद्धान्त को निर्णयानुसरण का सिद्धान्त कहते हैं। इंग्लैण्ड के न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णय समान तथ्यों वाले मामलों में ब्रिटेन के न्यायालयों पर बन्धनकारी होते हैं। इसीलिए वहाँ न्यायिक पूर्व-निर्णयों को विधि के तात्विक स्रोत के रूप में मान्यता प्राप्त है। निर्णयानुसरण के लिए दो बातें आवश्यक हैं-

  • (1) निर्णीत वादों की रिपोर्टिंग की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये; तथा
  • (2) श्रेणीबद्ध न्यायालयों की निश्चित शृंखला होनी चाहिये।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]