रजनी कोठारी

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रजनी कोठारी (जन्म १९२८ - देहांत १९ जनवरी २०१५) भारत के सुप्रसिद्ध राजनीतिविज्ञानी, राजनीतिक सिद्धान्तकार, शिक्षाविद तथा लेखक हैं। उन्होने 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ' (CSDS) की सन् 1963 में स्थापना की। यह दिल्ली में स्थित समाज विज्ञान तथा मानविकी से सम्बन्धित अनुसंधान का संस्थान है। १९८० में उन्होने 'लोकायन' नामक संस्थान की भी स्थापना की।

परिचय[संपादित करें]

भारत के प्रमुख राजनीतिशास्त्री और विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के संस्थापक रजनी कोठारी ने पिछली आधी सदी में भारतीय राजनीति के सिद्धांतीकरण में अभूतपूर्व योगदान किया है। दलीय प्रणाली के अध्ययन में कोठारी ने मुख्यतः दो उल्लेखनीय स्थापनाएँ जोड़ी हैं। द्विदलीय और बहुदलीय प्रणालियों की प्रचलित व्याख्याओं से अलग हट कर उन्होंने भारतीय दलीय प्रणाली की एक पार्टी के वर्चस्व वाली प्रणाली के रूप में मौलिक व्याख्या की; और कांग्रेस को प्रचलित परिभाषाओं के तहत एक राजनीतिक दल के रूप में देखने के बजाय कांग्रेस ‘प्रणाली’ के रूप में पेश किया। आगे चल कोठारी ने गैर-दलीय राजनीति के सिद्धांतीकरण में भी योगदान किया। जाति-प्रथा और आधुनिक संसदीय राजनीति के बीच अन्योन्यक्रिया देखने की कोठारी की दृष्टि भी अनूठी साबित हुई। इस सिलसिले में उनका पहला सूत्रीकरण तो यह है कि भारत जैसे परम्पराबद्ध समाज के आधुनिकीकरण का रास्ता दरअसल सामाजिक संरचनाओं के राजनीतीकरण से होकर जाता है। इसी से जुड़ा हुआ दूसरा सूत्रीकरण यह है कि जिस परिघटना को हम राजनीति में जातिवाद करार देते हैं, वह दरअसल जातियों का राजनीतीकरण है जिसके कारण जातिगत संरचनाओं का स्वरूप भीतर से बदल रहा है। कोठारी एक प्रचुर रचनाकार रहे हैं। उनकी पहली पुस्तक 1969 में पॉलिटिक्स इन इण्डिया प्रकाशित हुई थी जो भारतीय राजनीति को समझने का तर्कपूर्ण मॉडल पेश करती है। रजनी कोठारी का जन्म एक समृद्ध गुजराती व्यापारिक घराने में हुआ था। उनके पिता बर्मा में हीरों का व्यापार करते थे। उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा आयंगारों द्वारा चलाए जाने वाले रंगून के एक स्कूल में हुई। परिवार में बौद्धिकता की कोई परम्परा न होने के बावजूद कोठारी के पिता ने उन्हें सुशिक्षित करने में कोई कसर न छोड़ी। उनका बचपन बर्मा के अपेक्षाकृत खुले समाज में बीता। घर की छतों पर होने वाले सामूहिक नृत्यों, मंगोल और बौद्ध संस्कृति के मिले-जुले लुभावने रूप, दक्षिण  भारतीय चेट्टियारों, गुजराती बनियों, वोहराओं, खोजाओं और मुसलमान व्यापारियों के मिश्रित भारतीय समुदाय के बीच गुज़ारे गये शुरुआती वर्षों ने उन्हें एक उदार मानस प्रदान किया। लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद रजनी कोठारी ने कुछ दिन बड़ोदरा में क्लासिकल अर्थशास्त्र पढ़ाया। इस दौरान वे भारतीय मार्क्सवाद के प्रारम्भिक व्याख्याता और बाद में रैडिकल मानवतावाद के प्रमुख प्रवक्ता मानवेंद्र नाथ राय से भी प्रभावित हुए। अपने जीवन के अंतिम दौर में पत्नी हंसा कोठारी और बड़े बेटे स्मितु कोठारी के निधन से आहत प्रोफ़ेसर कोठारी दिल्ली स्थित आवास में अपना समय गुज़ारते हैं।

रजनी कोठारी के बौद्धिक जीवन को तीन भागों में बाँट कर समझा जा सकता है। अपने राजनीतिक चिंतन की शुरुआत में कोठारी ने भारतीय समाज और राजनीति के तथ्यगत विश्लेषण को प्राथमिकता दी। ख़ास बात यह है कि इस प्रक्रिया में वे प्रत्यक्षवादी रवैये से प्रभावित नहीं हुए। यह दौर वह था जब साठ के दशक में नेहरू युग अपने पटाक्षेप की तरफ़ देख रहा था। यह एक संक्रमणकालीन समय था जिसमें लोकतंत्र के क्षय और नाश की भविष्यवाणियाँ हो रही थीं।  इसी माहौल में कोठारी ने भारतीय लोकतंत्र के मॉडल की विशिष्टता की शिनाख्त करने में प्रमुख भूमिका निभायी। उस समय अधिकतर समाज-विज्ञानी भारतीय अनुभव को पश्चिमी लोकतंत्रों के अनुभव की रोशनी में देखने की कोशिश कर रहे थे। इसी समय रजनी कोठारी समाजशास्त्री श्यामा चरण दुबे के प्रोत्साहन पर राष्ट्रीय सामुदायिक विकास संस्थान से जुड़ गये। उन्होंने अपने फ़ील्ड वर्क के दौरान पूरे देश का सघन दौरा किया। वे ऐसे इलाकों में भी गये जहाँ जाना आम तौर से काफ़ी मुश्किल माना जाता था। इस अनुभव ने उन्हें बदलते हुए या बदलने के लिए तैयार भारत के दर्शन कराये। तभी एक सुखद संयोग के तहत उन्हें भावनगर (गुजरात) में कांग्रेस के एक अधिवेशन को देखने का मौका मिला। उन्हीं दिनों तत्कालीन इकॉनॉमिक वीकली (आज का ईपीडब्ल्यू) के छह अंकों में उनकी एक लेखमाला छपी जिसका शीर्षक था ‘भारतीय राजनीति का रूप और सार’। इन लेखों ने उनके कदम राजनीतिशास्त्र की दुनिया में जमा दिये। इनमें क्रमशः केंद्र-राज्य संबंध, पंचायती राज, सरकार के संसदीय रूप, अफ़सरशाही, दलीय प्रणाली और अंत में लोकतंत्र के भविष्य पर गहन चर्चा की गयी थी। इस लेखमाला में जिस सैद्धांतिक ढाँचे का इस्तेमाल किया गया था, उसी ने आगे चल कर कोठारी के विशद वाङ्मय की आधारशिला रखी। इन लेखों की प्रकृति विवादात्मक थी। उन्होंने एक त्रिकोणात्मक कसौटी पेश की जिसका एक कोण था लोकतंत्र  के मान्य सिद्धांतों का, दूसरा कोण था पश्चिमी दुनिया के लोकतांत्रिक अनुभवों का और तीसरा कोण था भारतीय अनुभव की विशिष्टता का। इससे पहले राजनीतिशास्त्र में संस्थागत और संविधानगत अध्ययन ही हुआ करते थे। राजनीति के विकासक्रम को देखने की यह एक अनूठी निगाह थी। इन लेखों में लास्की के सिद्धांतों से लेकर जयप्रकाश नारायण की विकेंद्रीकरण की थीसिस पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ थीं।

इसके बाद कोठारी अपने सैद्धांतिक कौशल से लैस हो कर सर्वेक्षणों के ज़रिये बार-बार आम भारतीय के पास गये और पता लगाया कि हमारा लोकतंत्र ज़मीन पर किस तरह काम कर रहा है। इस तरह लोकतंत्र  की भारतीय किस्म के विकास के अध्ययन के ठोस आधारों का सूत्रीकरण होने की सम्भावनाएँ खुलीं। कोठारी ने सिद्धांतों और उपसिद्धांतों की एक पूरी शृंखला तैयार की जिसे कुंजी की तरह इस्तेमाल करके उन्होंने बार-बार साबित किया कि भारत में जिस तरह के लोकतंत्र की रचना हो रही है वह पश्चिम के लोकतंत्रों से अलग किस्म का निकलेगा। समरूपीकरण करने वाले राष्ट्र- राज्य पर आधारित न हो कर यह लोकतंत्र भारतीय संस्कृति द्वारा प्रदत्त बहुलतावाद को अपनी बुनियाद बनायेगा। दलीय प्रणाली से संबंधित कोठारी के विख्यात सूत्रीकरण इसी दौर की देन हैं। उन्होंने दिखाया कि भारतीय दलीय प्रणाली न तो विकसित पूँजीवादी देशों की तरह दो या तीन दलों की राजनीतिक प्रतियोगिता वाली प्रणाली के मॉडल में फ़िट होती है, न ही इसमें किसी बहुदलीय प्रणाली की अराज़कता है। वे पश्चिमी प्रेक्षकों के इस अवलोकन से भी सहमत नहीं थे कि राजनीतिक जीवन पर कांग्रेस के हावी होने के कारण भारत को एक दलीय प्रणाली समझा जाना चाहिए। बल्कि, उनका कहना था कि यहाँ दल तो कई हैं, पर बोलबाला एक दल का है। और, यह वर्चस्व एक ऐसी प्रणाली के तौर पर काम करता है जिसमें न केवल सत्ता पक्ष की संरचनाएँ संसाधित होती हैं, वरन विपक्षी संरचनाएँ भी अपनी भूमिका निभाती रहती हैं। इसी दौर में कोठारी ने जाति-प्रथा और आधुनिक संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति के बीच लेन-देन का बारीक ख़ाका पेश किया। उनका कहना था कि राजनीति में भागीदारी करके जाति-समुदाय लोकतंत्र को प्रदूषित नहीं करते बल्कि अपने कर्मकाण्डीय रूप की जकड़ से काफ़ी-कुछ मुक्त हो कर अपने पहले से मौजूद सेकुलर रूपों को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

कोठारी की दूसरे दौर की रचनाएँ उस समय की हैं जब इंदिरा गाँधी की करिश्माई राजनीति अपने लोकलुभावन और निरंकुश रुझानों के साथ भारतीय राजनीति का स्वरूप बदलने पर तुली हुई थीं। शुरू में कोठारी को लगा कि इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में रैडिकल परिवर्तनों का आग़ाज़ करने की सम्भावना निहित है। लेकिन जल्दी ही उन्हें दिखाई दे गया कि राज्य की जिस संस्था को मानव-मुक्ति की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी पूरी करनी है, वह न केवल भारत में लोकतंत्र को समृद्ध करने से मुँह चुरा रही है, बल्कि दुनिया भर में उसकी यह भूमिका साँसत का शिकार बनती जा रही है। आपातकाल में इंदिरा गाँधी के साथ किसी भी तरह के सहयोग से परहेज़ करने के बाद उन्होंने 1977 में कांग्रेस विरोधी जनता पार्टी की नीतिगत ढाँचा बनाने में भी योगदान किया।

जनता प्रयोग के विफल हो जाने और सत्ता में इंदिरा गाँधी वापसी के बाद कोठारी ने अपनी रचनाओं में दुनिया के पैमाने पर उत्तर बनाम दक्षिण यानी विकसित बनाम अविकसित का द्वंद्व रेखांकित करते हुए राज्य और चुनावी राजनीति के परे जाने की तजवीज़ें विकसित करने की कोशिश शुरू की। इसी मुकाम पर उन्होंने ग़ैर-पार्टी राजनीति के सिद्धांतीकरण में अपना योगदान किया। कोठारी की सृजनशीलता का यह दूसरा दौर ख़ासा लम्बा साबित हुआ। उन्होंने पश्चिम के सभ्यतामूलक प्रतिमानों को चुनौती देने वाले गाँधी के विचारों का सहारा लिया और एक नया यूटोपिया पेश करने की कोशिश की। अपने इसी दौर में रजनी कोठारी ने महज़ बुद्धिजीवी रहने के बजाय सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका भी ग्रहण की। उन्होंने अपने सहयोगी विद्वान धीरूभाई शेठ द्वारा स्थापित लोकायन नामक अध्ययन कार्यक्रम में भागीदारी की जिसका मकसद ग़ैर-पार्टी राजनीतिक संरचनाओं को समाज-विज्ञान की दुनिया से जोड़ना था। इन्हीं वर्षों में कोठारी पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।

अपने रचनाकाल के तीसरे दौर में कोठारी ने आधुनिकता के वैचारिक ढाँचे को ख़ारिज किये बिना वैकल्पिक राजनीति का संधान करने का प्रयास किया। दरअसल, उनका यह चरण आलोचनात्मक होने के साथ- साथ आत्मालोचनात्मक भी था। उन्होंने अतीत के अपने कई प्रयासों को कड़ी निगाह से देखा और पाया कि ग़ैर-पार्टी राजनीति वास्तव में वैकल्पिक राजनीति के रूप में विकसित नहीं हो पा रही है। उदारतावाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद और नये सामाजिक आंदोलनों की परिघटना भारतीय लोकतंत्र  के बदलते हुए चेहरे की व्याख्या करने में असमर्थ है। इस मुकाम पर कोठारी ने अपनी शास्त्रीय प्रतिभा का इस्तेमाल दलित- पिछड़ी राजनीति को सूत्रबद्ध करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमण्डलीकरण की ताकतों के ख़िलाफ़ बौद्धिक नाकेबंदी करने के लिए किया।  उन्होंने राज्य की संस्था में आयी विकृतियों की शिनाख्त की और उसे जनोन्मुख़ता से वंचित प्रबंधकीय-तकनीकशाही प्रवृत्तियों वाला राज्य करार दिया। उन्होंने दिखाया कि किस तरह यह राज्य प्रचलित सैद्धांतिक समझ के विपरीत विविधताओं के प्रति असहिष्णु, ग़रीबों को हाशिये पर रख कर भूल जाने वाला और साम्प्रदायिक राजनीति के साथ तालमेल करके चलने वाला होता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

1. रजनी कोठारी (2005), भारत में राजनीति : कल और आज, हिंदी प्रस्तुति : अभय कुमार दुबे, सीएसडीएस-वाणी, नयी दिल्ली,

2. अभय कुमार दुबे (सम्पा.) (2003), राजनीति की किताब : रजनी कोठारी का कृतित्व, सीएसडीएस-वाणी, नयी दिल्ली,

3. रजनी कोठारी (2005), रिथिंकिंग डेमॉक्रैसी, ओरिएंट ब्लैकस्वान, नयी दिल्ली.

4. रजनी कोठारी (2008), कास्ट इन इण्डियन पॉलिटिक्स, ओरिएंट ब्लैकस्वान, नयी दिल्ली.