पाश्चात्य काव्यशास्त्र

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पाश्चात्य काव्यशास्त्र (वेस्टर्न पोएटिक्स) के उद्भव के साक्ष्य ईसा के आठ शताब्दी पूर्व से मिलने लगते हैं। होमर और हेसिओड जैसे महाकवियों के काव्य में पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन के प्रारम्भिक बिंदु मौजूद मिलते हैं। ईसापूर्व यूनान में वक्तृत्वशास्त्रियों का काफ़ी महत्त्व था। समीक्षा की दृष्टि से उस समय की फ़्राग्स तथा क्लाउड्स जैसी कुछ नाट्यकृतियाँ काफ़ी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं। फ़्राग्स में कविता को लेकर यह प्रश्न किया गया है कि वह उत्कृष्ट क्यों मानी जाती है? काव्य समाज को उपयोगी प्रेरणा तथा मनोरंजन के कारण महत्त्वपूर्ण हैं या आनंद प्रदान करने तथा मनोरंजन के कारण? इस तरह से काव्यशास्त्रीय चिंतन-सूत्र यूनानी समाज में बहुत पहले मौजूद रहे और विधिवत काव्य-समीक्षा की शुरुआत प्लेटो से हुई।

प्लेटो[संपादित करें]

प्लेटो ने काव्य की सामाजिक उपादेयता का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उसके अनुसार काव्य को उदात्त मानव-मूल्यों का प्रसार करना चाहिए। देवताओं तथा वीरों की स्तुति एवं प्रशंसा काव्य का मुख्य विषय होना चाहिए। काव्य-चरित्र ऐसे होने चाहिए जिनका अनुकरण करके आदर्श नागरिकता प्राप्त की जा सके। प्लेटो ने जब अपने समय तक प्राप्त काव्य की समीक्षा की तो उन्हें यह देख कर घोर निराशा हुई कि कविता कल्पना पर आधारित है। वह नागरिकों को उत्तमोत्तम प्रेरणा एवं विचार देने के बजाय दुर्बल बनाती है। प्लेटो के विचार से सुव्यवस्थित राज्य में कल्पनाप्रणव कवियों को रखना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इस प्रकार के कलाकार झूठी भावात्मकता उभार कर व्यक्ति की तर्क-शक्ति कुंठित कर देते है जिससे भले-बुरे का विवेक समाप्त हो जाता है। प्लेटो ने कवियों और कलाकारों को अपने आदर्श राज्य के बाहर रखने की सिफारिश की थी। उनका मानना था कि काव्य हमारी वासनाओं को पोषित करने और भड़काने में सहायक है इसलिए निंदनीय और त्याज्य है। धार्मिक और उच्च कोटि का नैतिक साहित्य इसका अपवाद है किंतु अधिकांश साहित्य इस आदर्श श्रेणी में नहीं आता है।

प्लेटो के कला और काव्य-संबंधी विवेचन से सौंदर्यशास्त्रीय एवं काव्यशास्त्रीय चिंतन में अनुकृति-सिद्धांत का समावेश हुआ। उनके अनुसार काव्य, साहित्य और कला जीवन और प्रकृति का किसी न किसी रूप में अनुकरण है। काव्य को कला का ही एक रूप मानने वाले प्लेटो के अनुसार कवि और कलाकार अनुकरण करते हुए मूल वस्तु या चरित्रों के बिम्बों और दृश्यों की प्रतिमूर्ति उपस्थित करते हैं। वे उस वस्तु या चरित्र की वास्तविकता का ज्ञान नहीं रखते। कलाओं और कविताओं को निम्न कोटि का मानने वाले प्लेटो अनुकरण के दो पक्ष मानते हैं— पहला जिसका अनुकरण किया जाता है और दूसरा अनुकरण का स्वरूप। अगर अनुकरण का तत्त्व मंगलकारी है और अनुकरण पूर्ण एवं उत्तम है तो वह स्वागत योग्य है। परंतु प्रायः अनुकृत्य वस्तु अमंगलकारी होती है तथा कभी-कभी मगंलकारी वस्तु का अनुकरण अधूरा और अपूर्ण होता है। ऐसी दशा में कला सत्य से परे और हानिकारक होती है।

अरस्तू[संपादित करें]

आगे चलकर प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने कलाओं को अनुकरणात्मक मानते हुए भी उनके महत्त्व को स्वीकार किया। यह प्लेटो के विचारों से भिन्न दृष्टि थी। प्लेटो के विचार जहाँ नैतिक और सामाजिक हैं, वहीं अरस्तू की दृष्टि सौंदर्यवादी है। उन्होंने विरेचन-सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत के अनुसार गम्भीर कार्यों की सफल और प्रभावशाली अनुकृति वर्णन के रूप में न होकर कार्यों के रूप में होती है जिसमें करुणा और भय उत्पन्न करने वाली घटनाएँ होती हैं जो इन भावों के विरेचन द्वारा एक राहत और आनंद प्रदान करती हैं। अरस्तू के विचार से भय और करुणा के दो भाव हमारे भीतर घनीभूत होते रहते हैं। इस प्रकार की त्रासदी को देखने पर कुशल अभिनय द्वारा ये भाव संतुलित और समंजित हो जाते हैं और इस प्रकार हमारे मन को राहत और आनंद की अनुभूति होती है। कविता या नाटक के पात्रों के बीच इन उत्तेजित वासनाओं और उसके दुष्परिणामों का हमारे शरीर और जीवन से सीधा संबंध न होने के कारण ये वासनाएँ परिष्कृत संवेदनाओं का रूप ग्रहण करती हैं। यही भावों का विरेचन है और कविता का यही वास्तविक प्रभाव और कार्य होता है।

अरस्तू ने कहा कि काव्य कल्पना पर आधारित होती है। वह वास्तविकता का चित्रण नहीं होता बल्कि उसका (काव्य) आधार सम्भावना है। काव्य वास्तव में अनुकरण है किंतु यही उसकी विशिष्टता है। लेकिन कवि वस्तुओं की पुनर्रचना करता है, नकल नहीं। अनुकरण के कारण ही काव्य आनंददायक होता है। उससे शिक्षा प्राप्त हो सकती है किंतु उसका उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना नहीं है। इस प्रकार अरस्तू ने प्लेटो के काव्य संबंधी विचारों एवं आरोपों का निराकण किया।

औदात्य-सिद्धान्त[संपादित करें]

प्लेटो और अरस्तू के बाद यूनानी काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में एक प्रतिनिधि काव्यशास्त्री लोंजाइनस का नाम भी प्रमुखता से आता है। उन्होंने औदात्य-सिद्धांत का प्रतिपादन किया। लोंजाइनस के इस सिद्धांत की अवधारणा ने साहित्येतर इतिहास, दर्शन और धर्म जैसे विषयों को भी अपने अंतर्गत समावेशित किया। उनके अनुसार औदात्य वाणी का उत्कर्ष, कांति और वैशिष्ट्य है जिसके कारण महान कवियों, इतिहासकारों, दर्शनिकों को प्रतिष्ठा सम्मान और ख्याति प्राप्त हुई है। इसी से उनकी कृतियाँ गरिमामय बनी हैं और उनका प्रभाव युग-युगांतर तक प्रतिष्ठित हो सका है। उन्होंने ‘उदात्त’ को काव्य का प्रमुख तत्त्व माना। उनके अनुसार विचारों की उदात्तता, भावों की उदात्तता, अलंकारों की उदात्तता, शब्द-विन्यास की उदात्तता तथा वाक्य-विन्यास की उदात्तता किसी भी काव्य को श्रेष्ठ बनाती है। एक श्रेष्ठ कविता लोगों को आनंद प्रदान करती है तथा दिव्य-लोक में पहुँचाती है। इस सिद्धांत ने पाश्चात्य जगत को काफ़ी प्रभावित किया।

धीरे-धीरे समय के साथ यूनानी समीक्षा कमज़ोर पड़ने लगी और रोमन समीक्षा का प्रभाव बढ़ा। रोम कला, साहित्य और संस्कृति संबंधी विचार-विमर्श का केंद्र बना। वहाँ के सिसरो तथा वर्जिल जैसे समीक्षकों ने पाश्चात्य काव्यशास्त्र में उल्लेखनीय योगदान दिया। होरेस ने कहा कि- काव्य में सामंजस्य और औचित्य का होना आवश्यक है। काव्य में श्रेष्ठ विचारों के सामंजस्य के साथ ही पुरातन एवं नवीन का समन्वय होना चाहिए। काव्य के भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों की उत्कृष्टता के प्रति कवि को सजग तथा प्रयत्नशील होना चाहिए।

मध्ययुगीन समीक्षा[संपादित करें]

पाँचवीं से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी के समय को पाश्चात्य काव्यशास्त्र की दृष्टि से अंधायुग माना जाता है। इस दौरान चर्च और पादरियों के प्रभाव के कारण काव्य तथा समीक्षा बुरी तरह से प्रभावित हुई। काव्य में उपेदशात्मकता को अधिक महत्त्व दिया गया। इस काल के काव्यशास्त्रियों में दांते प्रमुख हैं। उनका समय 1265 से 1391 के बीच का माना गया है। उन्होंने गरिमामण्डित स्तरीय जन- भाषा को काव्य के लिए सबसे उपयुक्त माना। काव्य में जन- भाषा के आग्रही दांते ने कहा कि प्रतिभा के साथ ही कवि के लिए परिश्रम और अभ्यास भी आवश्यक है। उनके मुताबिक उच्च विचार, राष्ट्र-प्रेम, मानवप्रेम और सौंदर्यप्रेम काव्य को महत्त्व प्रदान करते हैं।

पुनर्जागरण काल[संपादित करें]

मध्ययुगीन समीक्षा चर्च और पादरियों के प्रभाव में उपदेशात्मक हो गयी थी। रिनेसाँ या पुनर्जागरण काल में सिडनी और बेन जॉनसन ने उसे मुक्त कराया। सिडनी ने कहा कि आदिकाल से अब तक कविता ही ज्ञान-विज्ञान के प्रसार का माध्यम रही है तथा इसकी उपयोगिता प्रत्येक परिस्थिति में बनी रहेगी। काव्य का उद्देश्य सदाचरण की शिक्षा देने के साथ ही आनंद प्रदान करता है। प्रकृति के अनुकरण का अर्थ नकल नहीं बल्कि उसे भव्यतम रूप में प्रस्तुत कर प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न करना है। उसका वास्तविक अर्थ सृजनशीलता है। इसी काल के दूसरे प्रसिद्ध समीक्षक बेन जॉनसन ने भौतिकता के निर्वाह पर बल दिया तथा क्लासिक साहित्य के अनुकरण तथा अनुशीलन को रेखांकित किया।

नव्यशास्त्रवाद[संपादित करें]

सत्रहवीं और अट्ठारहवीं शताब्दी के बीच के समय को नव्यशास्त्रवादी समीक्षा के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापनाओं के अनुसार साहित्य में उन्नत विचारों का गाम्भीर्य होना चाहिए। साहित्य में उपदेशात्मकता, अपेक्षित साहित्य रचना के लिए अभ्यास तथा अध्ययन का महत्त्व होता है। हृदय पक्ष की तुलना में बुद्धि और तर्क का महत्त्व अधिक है। इस समीक्षा के अंतर्गत उत्कृष्ट प्राचीन साहित्य के अध्ययन की अभिरुचि, पुरातन साहित्यिक मानदण्डों के पालन, साहित्य के वाह्य पक्ष की उत्कृष्टता तथा कलात्मक सौष्ठव पर बल दिया गया।

स्वच्छंदतावाद[संपादित करें]

अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में स्वच्छंदतावाद ने ज़ोर पकड़ा और वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली तथा कीट्स जैसे कवियों ने स्वच्छंदतावादी काव्य के ज़रिये स्वछंदतावाद नियामक समीक्षा सिद्धांत की प्रस्थापना दी। इसके तहत काव्य में कवि-कल्पना को महत्त्व प्रदान किया गया। आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति पर अधिक बल तथा काव्य के भाव पक्ष को केंद्र में रखा गया। काव्य का उद्देश्य स्वांतःसुखाय तथा आनंद मानते हुए स्वच्छंदतावादी काव्य में प्रेरणा, प्रतिभा तथा कल्पना को प्रमुखता मिली।

यथार्थवाद[संपादित करें]

इस समीक्षा सिद्धांत में वस्तुस्थिति तथा तथ्यपरकता का आग्रह था। साहित्य की नवीनता, प्राचीन साहित्यिक मानदण्डों, परम्पराओं तथा रूढ़ियों को नकारने की प्रवृत्ति तथा शिल्पगत नवीनता आदि के आग्रह के कारण यर्थाथवाद का काफ़ी विकास हुआ और आगे चलकर इसी के गर्भ से प्रगतिवाद, समाजवादी यर्थाथवाद तथा मनोवैज्ञानिक यर्थाथवाद का विकास हुआ।

कलावाद[संपादित करें]

इस के अनुसार कला कला के लिए हैं। रचना किसी सिद्धि के लिए नहीं होती। नैतिकता, उपदेश या मनोरंजन काव्य का उद्देश्य नहीं है अपितु वह स्वांतःसुखाय है। इसके अंतर्गत अनुभूति की मौलिकता एवं नवीनता पर विशेष ज़ोर रहा।

अभिव्यंजनावाद[संपादित करें]

इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए बेनेदितो क्रोचे ने कहा कि काव्य-वस्तु नहीं बल्कि काव्यशैली महत्त्वपूर्ण है। अर्थ की अपेक्षा शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। और काव्य का सौंदर्य विषय पर नहीं बल्कि शैली पर निर्भर है। अभिव्यंजना ही काव्य का काव्यतत्त्व है।

प्रतीकवाद[संपादित करें]

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में बादलेयर, मेलार्मे, बर्लेन, तथा वैलरी आदि ने प्रतीकवाद को बल प्रदान किया। 1886 में कवि ज्याँ मोरेआस ने फ़िगारो नामक पत्र में प्रतीकवाद का घोषणापत्र प्रकाशित किया। इस समीक्षा-सम्प्रदाय ने काव्य में शब्द का महत्त्व सर्वोपरि बताया और कहा कि कविता शब्दों से लिखी जाती है, विचारों से नहीं। काव्य सर्वसाधारण के लिए नहीं बल्कि उसे समझ सकने वाले लोगों के लिए होता है। कवि किसी अन्य के प्रति नहीं अपनी आत्मा के प्रति प्रतिबद्ध होता है। शब्द अनुभूतियों और विचारों के प्रतीक होते हैं।

बीसवीं शताब्दी आते-आते समीक्षा की कई प्राणालियाँ विकसित हुईं। आधुनिक युग के इस दौर पर प्रमुख रूप से टी.एस. इलियट तथा आई.ए. रिचर्ड्स ने काफ़ी प्रभाव डाला। टी.एस. एलियट ने परम्परा तथा वैयक्तिक प्रतिभा के समन्वय, निर्वैयक्तिकता के सिद्धांत, वस्तुनिष्ठ समीकरण के सिद्धांत तथा अतीत की वर्तमानता के सिद्धांत का प्रतिपादन करके तुलनात्मकता के माध्यम से वस्तुनिष्ठ समीक्षा का तानाबाना खड़ा किया। आई.ए. रिचर्ड्स ने आधुनिक ज्ञान के आलोक में मूल्य-सिद्धांत की नयी व्याख्या करते हुए व्यावहारिक समीक्षा का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसी शताब्दी में न्यू क्रिटिसिज़्म तथा शिकागो समीक्षा का भी प्रभाव देखा गया। काव्य के प्रमुख तत्त्व के रूप में स्ट्रक्चर व टेक्स्चर के माध्यम से वस्तुनिष्ठ समीक्षा असरदार बनी। शैली वैज्ञानिक समीक्षा-प्रणाली भी इसी दौर की देन है।

देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

1. भागीरथ मिश्र (1996), काव्यशास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी.

2. सभापति मिश्र (2008-2009), साहित्यशास्त्र और हिंदी आलोचना, ग्रीनवर्ल्ड पब्लिकेशंस, इलाहाबाद.

3. सत्येंद्र सिंह, प्रकाश उदय और दुर्गा प्रसाद ओझा, साहित्यशास्त्र और हिंदी आलोचना, प्रकाशन केंद्र, लखनऊ.