यशोवर्मन् प्रथम

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यशोवर्मन् प्रथम् की मूर्ति

यशोवर्मन् प्रथम (ख्मेर: ព្រះបាទយសោវរ្ម័នទី១) अंगकोर का राजा था। सिंहासन पर बैठने से पूर्व इसका नाम 'यशोवर्धन' था। उसका राज्यकाल ८८९ से ९१० तक था। उसने कंबुज के गौरव को बढ़ाया।

परिचय[संपादित करें]

यशोवर्मन्‌ की अनेक विजयों का अभिलेखों में उल्लेख है। यह भी कहा गया है कि उसने एक समुद्री बेड़ा भेजा। उसने पराजित नृपों को फिर से अधिकार दिया और उनकी पुत्रियों से विवाह किया। किंतु स्पष्ट विवरण के अभाव में इन उल्लेखों का अधिक महत्व नहीं है। उसने साम्राज्य की सीमाओं में कोई विस्तार नहीं किया किंतु उसे वैसा ही बनाए रखा। उसके राज्य की उत्तरी सीमा चीन तक पहुँच गई थी। पूर्व में चंपा से पश्चिम में मेनम और सालवीन नदियों के बीच के पर्वतों तक और दक्षिण में समुद्र तक इसका राज्य फैला था।

उसने यशोधर गिरि (फ्राम बाखोन) पर एक नई राजधानी बसाई जो पहले कंबुपुरी और बाद में यशोधरपुर के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसमें अंकोर थोम का बहुत बड़ा भाग सम्मिलित था। यह स्थान कंबुज की शक्ति और संस्कृति की स्थापना का उचित श्रेय मिलना चाहिए। यशेवर्मन्‌ के बहुसंख्यक लेखों में इस नई संस्कृति की झलक मिलती है। इन लेखों की भाषा उत्कृष्ट काव्यात्मक संस्कृत है। इनसे ज्ञात होता है कि संस्कृत साहित्य के विभिन्न अंगों का समुचित अध्ययन होता था। विद्वानों को प्रश्रय देने के साथ ही यशोवर्मन्‌ स्वयं उच्चकाटि का विद्वान्‌ था। उसने वामशिव नाम के विद्वान से विविध काव्यों और शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की थी। एक अभिलेख में उसकी तुलना पाणिनि से की गई है और महाभाष्य पर रची उसकी एक टीका का उल्लेख है। उसके धार्मिक विचार उदार थे। स्वयं शैव होते हुए भी उसने वैष्णव और बौद्ध धर्मों का समान आदर किया। विभिन्र संप्रदायों के लिए उसने पृथक आश्रम बनवाए और उनके लिये उचित व्यवस्था भी की। कला के क्षेत्र की उन्नति आश्रमों के अतिरिक्त तड़ागों और मंदिरों के निर्माण से सिद्ध होती है। उसने राजधानी के उत्तर में एक तड़ाग के बीच एक विहार निर्भित करा कर उसमें अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ स्थापित कीं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]