आलोचना (पत्रिका)

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आलोचना हिन्दी साहित्य जगत् में मूलतः आलोचना केंद्रित पत्रिकाओं में सर्वप्रथम, सर्वाधिक लंबे समय तक प्रकाशित एवं शीर्ष स्थानीय पत्रिका है। इसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड के द्वारा होता है। बीच में दो बार प्रकाशन-क्रम भंग होने के बाद फिलहाल इस पत्रिका के प्रकाशन का तीसरा दौर जारी है। विभिन्न विचारधाराओं के श्रेष्ठ विद्वानों ने समय-समय पर इसका संपादन किया है। डॉ० नामवर सिंह सबसे अधिक समय तक इस के संपादन से जुड़े रहे हैं। अधिकांशतः सारगर्भित एवं विचारोत्तेजक आलेखों के प्रकाशन, विभिन्न समसामयिक मुद्दों में प्रभावकारी हस्तक्षेप तथा अनेक महत्वपूर्ण विशेषांकों के प्रकाशन के द्वारा इस पत्रिका ने संपूर्ण हिंदी साहित्य जगत् में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है।

प्रकाशन-इतिहास[संपादित करें]

पहला दौर[संपादित करें]

'आलोचना' का प्रकाशन मूलतः आलोचना केंद्रित एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका के रूप में अक्टूबर 1951 में आरंभ हुआ था। इसके संस्थापक संपादक थे शिवदान सिंह चौहान[1] अपने आरंभिक समय में ही आलोचना एक श्रेष्ठ पत्रिका के रूप में स्थापित हो गयी। इसके प्रकाशन के एक वर्ष पूरा होने पर ही जुलाई 1952 के अंक में इस के संपादक चौहान जी ने अपने संपादकीय में लिखा था "आलोचना का एक वर्ष समाप्त हुआ। इस प्रकाशन का हिन्दी साहित्य में 'एक ऐतिहासिक घटना' के रूप में सर्वत्र स्वागत किया गया।"[2] चौहान जी ने आलोचना के केवल 5 अंकों का संपादन किया। उनके संपादन में प्रकाशित इतिहास विशेषांक काफी चर्चित हुआ था। "आलोचना के पाँचवे अंक 'इतिहास विशेषांक' के बाद 1953 में चौहानजी की छुट्टी हो गई।"[3]

इसके बाद आलोचना के संपादन के लिए एक संपादक मंडल की नियुक्ति हुई जिसमें धर्मवीर भारती, रघुवंश, विजयदेव नारायण साही तथा ब्रजेश्वर वर्मा शामिल थे।[4] इसके बाद नन्ददुलारे वाजपेयी आलोचना के संपादक बने। "वाजपेयी जी ने अप्रैल १९५६ के १८वें अंक से 'आलोचना' का सम्पादन-भार संभाला और अप्रैल १९५९ के २६वें अंक तक इस का निर्वाह किया।"[5]

इसके बाद पुनः शिवदान सिंह चौहान आलोचना के संपादक नियुक्त हुए और 'वे 1966 ई० तक उसके संपादक बने रहे।'[6] मई 1967 में "शीला सन्धू ने शिवदान सिंह चौहान को हटाकर नामवर सिंह को उसका संपादक बना दिया। इस बात से शिवदान सिंह चौहान बहुत आहत हुए और नामवर के खिलाफ लंबे समय तक गुस्से से भरे रहे। उन्हें हिंदी साहित्य का डॉन और माफिया तक कहते रहे।"[7]

दूसरा दौर[संपादित करें]

अप्रैल-जून 1967 के अंक के साथ नवीन रूप में आलोचना का प्रकाशन आरंभ हुआ तथा इसके संपादन की बागडोर डॉ० नामवर सिंह ने सँभाली। "उनके संपादन में निकली आलोचना को हिन्दी में नए युग का आरंभ माना गया और इसे नवांक-1 की संज्ञा दी गई।"[4] कई उपसंपादकों के सहयोग से डॉ० नामवर सिंह के संपादन में "हिन्दी-जगत् को वैचारिक-त्वरा प्रदान करने वाली पत्रिका 'आलोचना' का प्रकाशन 1990 में इसके 48वें अंक के प्रकाशन के बाद ही स्थगित हो गया।" आलोचना का अंतिम अंक 1990 की अप्रैल-जून का था।[8]

अपने संपादन के आरंभिक समय (सन् 1967) में ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की षष्टिपूर्ति के उपलक्ष्य में डॉ० नामवर सिंह ने उन पर केंद्रित 'आलोचना' का एक विशेषांक निकाला। फिर मुक्तिबोध पर केंद्रित अंक भी निकाला। अक्टूबर 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में नियुक्ति हो जाने के कारण नामवर सिंह जोधपुर चले गये[9] और उन्हीं के सुझाव पर उनके प्रिय आलोचक विष्णु खरे को आलोचना का कार्यकारी संपादक बनाया गया। नामवर जी ने एहतियात के तौर पर आरंभिक कुछ अंको में उनका काम देखने के बाद ही संपादक के रूप में उनका नाम छापे जाने की बात कही थी, परंतु विष्णु खरे ने अपने संपादन के दूसरे अंक के मुद्रण-समय में ही संपादक रूप में अपना नाम दिये जाने तथा अपने नाम से संपादकीय छापे जाने पर जोर दिया। नामवर जी ने उसके छपने की स्वीकृति नहीं दी और इस कारण विष्णु खरे के संपादन का वह प्रसंग वहीं पर रुक गया।[10] सन् 1980 में अंक 54-55 से नन्दकिशोर नवल आलोचना के सह-संपादक बनाये गये और अंक 76 तक उन्होंने बखूबी यह दायित्व निभाया। नवल जी नामवर जी के आत्मीय थे, परंतु सन् 1985 में अपूर्वानंद ने नागार्जुन के विचारों की तीखी प्रतिक्रिया में 'नागार्जुन की राजनीति' नामक पुस्तिका लिखी और उसकी भूमिका नंदकिशोर नवल ने लिखी।[11] यह नागार्जुन के प्रति नवल जी की कटु टिप्पणी थी, "जिससे नामवर जी सख्त नाराज हो गये और उन्होंने तुरंत नवल जी को सह सम्पादकत्व से अलग करने का निर्णय ले लिया।[10] परिणामस्वरूप आलोचना के प्रबंध संपादक शीला संधू के द्वारा नवल जी को सह संपादक पद से हटा दिया गया। अंक 77 से इसके सह-संपादक प्रसिद्ध आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव बनाये गये। जनवरी-जून 1981 का अंक नागार्जुन पर केंद्रित अंक के रूप में निकाला गया।[12]

नामवर जी के प्रधान संपादकत्व में आलोचना के अनेक विशिष्ट अंक निकले, परंतु अपने लेखन के उरूज पर होने तथा अनेक अन्य व्यस्तताओं के कारण वे आलोचना के लिए पर्याप्त समय तो नहीं ही दे पाते थे, संपादकीय भी बराबर समय पर नहीं पहुँच पाता था। प्रबंध संपादक शीला संधू के शब्दों में "अंकों की सामग्री तथा सम्पादकीय समय से न मिलने के कारण विलम्बित प्रकाशन, समय या सामग्री की दुश्वारियों के कारण बिलावजह संयुक्तांकों का प्रकाशन, धीरे-धीरे पत्रिका का निजी स्वरूप न बन पाने की पाठकीय शिकायतें आदि आदि तमाम ऐसी व्यावहारिक बातें थीं जिनके कारण कभी-कभी उनसे संवादहीनता की स्थिति पैदा हो जाती थी।"[13] और अंततः अप्रैल-जून 1990 के अंक के साथ आलोचना का प्रकाशन बंद हो गया।

तीसरा दौर[संपादित करें]

पूरा एक दशक बीत जाने के बाद सन् 2000 ईस्वी के अप्रैल-जून अंक से ही आलोचना का पुनर्नवा रूप में पुनः प्रकाशन आरंभ हुआ और इसे 'सहस्राब्दी अंक एक' का नाम दिया गया। नामवर सिंह का नाम इसके प्रधान संपादक के रूप में दिया गया और परमानन्द श्रीवास्तव को संपादक बनाया गया। अरविन्द त्रिपाठी सह संपादक के रूप में जुड़े। करीब तीन दशक पहले नामवर सिंह के संपादन में आरंभ होने वाली 'आलोचना' के नवांक-1 (अप्रैल-जून 1967) में पहली बार भारत में फासीवादी खतरे की चेतावनी दी गयी थी[8] और इतने लंबे अंतराल के बाद पुनः आलोचना का 'सहस्राब्दी अंक एक' भी 'फासीवाद और संस्कृति का संकट' विषय पर ही केंद्रित किया गया। व्यापक हिन्दी जगत् के अनेकानेक श्रेष्ठ लेखकों के आलेखों से संबलित पुनर्नवा आलोचना का यह समृद्ध अंक काफी लोकप्रिय हुआ और मई 2001 में ही प्रकाशक को इसको पुनर्मुद्रित कर प्रकाशित करना पड़ा।[14] परमानंद श्रीवास्तव के संपादन में इस पत्रिका ने पुनः अपना प्राचीन गौरव हासिल कर लिया और हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठतम पत्रिकाओं में यह परिगण्य रही। हालाँकि इसका पाँचवा अंक काफी कुख्यात रहा। रामविलास शर्मा की बरसी पर आयोजित इस विशेषांक को नामवर सिंह द्वारा रामविलास शर्मा के प्रति खुले विरोध के रूप में देखा गया और इसमें छपे नामवर सिंह के संपादकीय के हवाले से यहाँ तक कहा गया कि "नामवर सिंह की उपर्युक्त पंक्तियों में जो बात छिप नहीं पाती, वह है रामविलास जी को 'ऋषि' कहे जाने और उनकी 'साधना' को लोक स्वीकृति मिलने का विरोध। यही वह मूल बदनीयत है, जिसकी प्रेरणा से रामविलास शर्मा की बरसी पर यह अंक प्रायोजित किया गया है।"[15] हालाँकि इस अंक के सिवा इसके अन्य अंक बेहद उत्तम रहे। सामान्य अंक भी विशिष्ट अंक की तरह महत्वपूर्ण। परमानन्द श्रीवास्तव के इन चार वर्षों के संपादन में चार संयुक्तांकों के बावजूद अनेक विशिष्ट अंक 'आलोचना' के गौरव को ऊँचा उठाये रखा। इसका काफी उम्दा संयुक्तांक 17-18 भीष्म साहनी के व्यक्तित्व एवं समग्र कृतित्व पर केंद्रित था।

अंक 21 (अप्रैल जून 2005) से प्रसिद्ध कवि अरुण कमल इसके अवैतनिक संपादक नियुक्त हुए और अंक 52 (जनवरी-मार्च 2014) तक इस दायित्व को निभाते रहे। अरुण कमल जी के संपादन में आलोचना के साथ सबसे मुख्य बात यह हुई कि यह व्यापक हिंदी लेखक समुदाय से काफी हद तक कट गयी। कुछ महत्वपूर्ण आलेख कई अंकों में जरूर संकलित होते रहे, परंतु हिंदी साहित्य जगत् के वैचारिक सरोकारों से सीधा संपर्क प्रायः अलक्षित हो गया। 2 वर्षों में ही काफी विलंबित अंक प्रकाशन के बाद 25वें अंक से आर चेतनक्रांति को पुनः सह संपादक नियुक्त करने से कुछ सुधार अवश्य हुआ, परंतु पत्रिका का निजी स्वरूप जो नष्ट हुआ सो नहीं ही बन पाया। पुस्तक-समीक्षा का परिदृश्य भी काफी सीमित हो गया। आकार और प्रकार दोनों रूपों में 'आलोचना' न्यून हो गयी। हालाँकि इसके 28वें अंक के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित अंक एवं अंक 40 से 45 तक शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल एवं नागार्जुन पर केंद्रित विशेषांक इसके पूर्व गौरव को याद दिलाने में सर्वथा सक्षम रहे। इस बीच इसके प्रकाशन की निरंतरता कई बार बाधित हुई। प्रकाशन क्रम में अत्यधिक विलंब के कारण अंक 23 और अंक 24 के बीच में पूरे एक वर्ष को शून्य घोषित कर दिया गया।[16] पुनः अत्यधिक विलंब को यथासंभव समायोजित करने के प्रयत्न में अंक 52 (जनवरी-मार्च 2014) के बाद अप्रैल 2014 से दिसंबर 2014 तक को शून्य घोषित करते हुए[17] अंक 53 को 'जनवरी मार्च 2015' के रूप में प्रकाशित किया गया। अंक-53 से इसका संपादक अपूर्वानंद को बनाया गया। उनके संपादन में तीन अंक निकले और उसके बाद 'आलोचना' पुनः बंद होने के कगार पर पहुँची-सी लगने लगी। इसके दो अंको 56 एवं 57 को इसके आद्यन्त इतिहास के सर्वथा विपरीत केवल कविताओं की पत्रिका के रूप में किसी प्रकार निकाल कर खानापूर्ति की गयी और लंबे अंतराल के बाद इसका अंक-58 (अप्रैल-जून 2016) दो वर्षों के विलंब से सन् 2018 में सामने आ पाया है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-3, (अक्टूबर-दिसंबर 2000), संपादक- परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ-14.
  2. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-34, (जुलाई-सितंबर 2009), संपादक- अरुण कमल, पृष्ठ-120 पर उद्धृत।
  3. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-3, (अक्टूबर-दिसंबर 2000), संपादक- परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ-11.
  4. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-34, (जुलाई-सितंबर 2009), संपादक- अरुण कमल, पृष्ठ-119 (अतीत का आईना)।
  5. नन्ददुलारे वाजपेयी (विनिबंध), प्रेमशंकर, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1983, पृष्ठ-59.
  6. नामवर होने का अर्थ, भारत यायावर, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2012, पृष्ठ-259.
  7. नामवर होने का अर्थ, भारत यायावर, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2012, पृष्ठ-261.
  8. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-1, (अक्टूबर-दिसंबर 2000), संपादक- परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ-5.
  9. नामवर होने का अर्थ, भारत यायावर, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2012, पृष्ठ-262.
  10. तद्भव, अंक-4, (अक्टूबर 2000), संपादक- अखिलेश, पृष्ठ-274 (शीला संधू का पत्र)।
  11. नागार्जुन का कवि-कर्म, खगेंद्र ठाकुर, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2013, पृष्ठ-14.
  12. नामवर होने का अर्थ, भारत यायावर, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2012, पृष्ठ-295.
  13. तद्भव, अंक-4, (अक्टूबर 2000), संपादक- अखिलेश, पृष्ठ-273 (शीला संधू का पत्र)।
  14. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-1, (अक्टूबर-दिसंबर 2000; पुनर्मुद्रित संस्करण-मई 2001), संपादक- परमानन्द श्रीवास्तव, पृष्ठ-2.
  15. आलोचना के हाशिए पर, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, पृष्ठ-42.
  16. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-24, (जनवरी-मार्च 2007), संपादक- अरुण कमल, पृष्ठ-6.
  17. आलोचना, सहस्राब्दी अंक-53, (जनवरी-मार्च 2015), संपादक- अपूर्वानंद, पृष्ठ-10.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]