केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य

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केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य
अदालतभारत का उच्चतम न्यायालय
फैसला किया24 April 1973
उद्धरण(एस)(1973) 4 SCC 225; AIR 1973 SC 1461
Holding
There are certain principles within the framework of Indian Constitution which are inviolable and hence cannot be amended by the Parliament. These principles were commonly termed as Basic Structure.
मामले की राय
MajoritySikri, C. J.; Hegde and Mukherjea, JJ.; Shelat and Grover, JJ.; Jaganmohan Reddy, J.; Khanna, J.
DissentRay, J.; Palekar, J.; Mathew, J.; Beg, J.; Dwivedi, J.; Chandrachud, J.
Laws applied
Constitution of India, Criminal Procedure Code (CrPC), Indian Evidence Act, Indian Contract Act 1872

1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद यह सिद्धांत अभी भी कायम है और जल्दबाजी में किए जाने वाले संशोधनों पर अंकुश के रूप में कार्य कर रहा है।[1] केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में 68 दिन तक सुनवाई हुई, यह तर्क वितर्क 31 अक्टूबर 1972 को शुरू होकर 23 मार्च 1973 को खत्म हुआ। 24 अप्रैल 1973 को, चीफ जस्टिस सीकरी और उच्चतम न्यायालय के 12 अन्य न्यायाधीशों ने न्यायिक इतिहास का यह सबसे महत्वपूर्ण निर्णय दिया।[2]

संविधान सरंचना के कुछ प्रमुख मूलभूत तत्व जिनमे अनुछेद 368 के तहत संसोधन नही किया जा सकता है निम्नलिखित है 1. संविधान की सर्वोच्चता 2. विधायिका,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा 3. गणराज्यात्मक एवं लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार 4. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र 5. राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता 6. संसदीय प्रणाली 7. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा 8. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन 9. न्याय तक प्रभावकारी पहुँच 10. एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का जनादेश

मूल प्रश्न[संपादित करें]

सभी प्रयास सिर्फ इस एक मुख्य सवाल के जवाब के लिए थे कि क्या संसद की शक्ति संविधान का असीमित संशोधन करने के लिए थी? दूसरे शब्दों में, क्या संसद संविधान के किसी भी हिस्से को रद्द, संशोधित और बदल सकती है चाहे वो सभी मौलिक अधिकार छीन लेने का ही क्यों ना हो? अनुच्छेद 368 में, उसको साधारण रूप से पढ़ने पर, संविधान के किसी भी भाग में संशोधन के लिए संसद की शक्ति पर कोई सीमा नहीं थी इस अनुच्छेद में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे संसद को एक नागरिक के भाषण की स्वतंत्रता या उसकी धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार छीन लेने से रोका जा सके। 703 पृष्ठ का यह फैसला अत्यंत विभाजित मतो वाला था और अंत में 7:6 के मामूली बहुमत से यह माना गया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन उस हद तक ही कर सकती है जहाँ तक कि वो संसोधन संविधान के बुनियादी ढांचे और आवश्यक विशेषताओं में परिवर्तन या संशोधन नहीं करे।[3]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 16 अक्तूबर 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2013.
  2. "संग्रहीत प्रति". मूल से 25 अप्रैल 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2013.
  3. "संग्रहीत प्रति". मूल से 25 अप्रैल 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2013.