जिलिया

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जिलिया गढ़ राजस्थान के नागौर जिले में स्थित एक स्थान है। इसे झिलिया, अभयपुरा, अभैपुरा, मारोठ, मारोट, महारोट, महारोठ आदि नामों से भी जानते हैं। इसका आधिकारिक नाम ठिकाना जिलिया (अंग्रेज़ी:Chiefship of Jiliya, चीफ़शिप ऑफ़ जिलिया) व उससे पूर्व जिलिया राज्य (अंग्रेज़ी:Kingdom of Jiliya, किंगडम ऑफ़ जिलिया) था। जिलिया मारोठ के पांचमहलों की प्रमुख रियासत थी जिसका राजघराना मीरा बाई तथा मेड़ता के राव जयमल के वंशज हैं।

मेड़तिया राठौड़ों का मारोठ पर राज्य स्थापित करने वाले वीर शिरोमणि रघुनाथ सिंह मेड़तिया के पुत्र महाराजा बिजयसिंह ने मारोठ राज्य का अर्ध-विभाजन कर जिलिया राज्य स्थापित किया। इसकी उत्तर दिशा में सीकर, खंडेला, दांता-रामगढ़, पूर्व दिशा में जयपुर, दक्षिण दिशा में किशनगढ़, अजमेर, मेड़ताजोधपुर और पश्चिम दिशा में नागौरबीकानेर हैं। सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने बंगाल के गौड़ देश से आये भ्राताओं राजा अछराज व बछराज गौड़ की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें अपना सम्बन्धी बनाया और सांभर के पास भारत का प्राचीन, समृद्ध और शक्तिशाली मारोठ प्रदेश प्रदान किया जो नमक उत्पाद के लिए प्रसिद्ध महाराष्ट्र-नगर के नाम से विख्यात था। गौड़ शासक इतने प्रभावशाली थे की उनके नाम पर सांभर का यह क्षेत्र आज भी गौड़ावाटी कहलाता है।[1] गौड़ावाटी में सांभर झील व कई नदियाँ हैं, जिनमें खण्डेल, रुपनगढ़, मीण्डा (मेंढा) आदि प्रमुख हैं। मारोठ भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है और जैन धर्म का भी यहाँ काफी विकास हुआ और राजपूताना के सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मारोठ के मान मन्दिर की तुलना उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिर, आमेर के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, मोजमाबाद (जयपुर), जूनागढ़ (बीकानेर) आदि से की जाती है।[2][3] [4]

नामोत्पत्ति[संपादित करें]

जिलिया[संपादित करें]

जिलिया के दो आधिकारिक नाम हैं- जिलिया और अभयपुरा। संभवतः जिलिया नाम की उत्पत्ति यहाँ स्थित कालूसर नामक एक झील के कारण "झिलिया" नाम से हुई है।[5]

अभयपुरा[संपादित करें]

अभयपुरा नाम का एक ग्राम मारोठ के पास जोधपुर जिले में है। यह ग्राम जिलिया परगने की जागीर में था, परन्तु यह कभी राजधानी नहीं रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि अभयपुरा नाम मारोठ के जोधपुर से संधि व विलय के बाद प्रयुक्त हुआ और ताम्रपत्रों व अभिलेखों में वर्णित सांभर नरेश अभयपाल, नाडोल नरेश अभयराज चौहान या उस समय के जोधपुर महाराजा अजीतसिंह के पुत्र व जसवंत सिंह के पोत्र युवराज कुंवर अभयसिंह के कारण पड़ा जिसे मारोठ में नियुक्त किया गया था। [6]

मारोठ[संपादित करें]

१४००-१४१० ईस्वी में नयचन्द्र सूरि ने अपनी पुस्तक 'हम्मीर महाकाव्य' में मारोठ को 'महाराष्ट्र नगर' लिखा है। मारोठ का यह संस्कृत निष्ट नाम अठारहवीं शती तक की पुस्तकों और लेखों में मिलता है। अपभ्रंश में इसे महारोठ (मरुकोट्ट) लिखा गया है। चौदहवीं शताब्दी के किसी कालखंड गौड़ों ने यह क्षेत्र दहियों से छीन लिया। [1] [7] [8] [9] [9] [10]

मारोठ एक बहुत प्राचीन क़स्बा है जो संप्रति मारवाड़ के नागौर जिले में है। मारोठ पर पहले गौडों का राज्य था। [11] तवाराखां के अनुसार मरोठ को संवत १११४ (सन् 1057) में बछराज गौड़ ने माठा गौड़ के नाम से बसाया था। पहले यहाँ माठा गौड़ की ढाणी थी। [12]

इतिहास[संपादित करें]

राजस्थान के नागौर जिले का मारोठ परगना दीर्घ काल तक गौड़ क्षत्रियों के आधिपत्य में रहने के कारण गौड़ावाटी भू-भाग के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। यधपि मुगलकाल में यह परगना अनेक व्यक्तियों को मिलता रहा, पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान से शाहजहाँ के शासनकाल तक गौडों का प्रभाव अजमेर, किशनगढ़, रणथम्भोर और साम्भर के पास मारोठ (गौडावाटी) आदि क्षेत्र पर गौडों का अधिकार बना ही रहा। [4]

गौड़ाटी के महाराजा रघुनाथ सिंहजी पुनलौता के ठाकुर सांवलदास मेड़तिया का छोटा पुत्र व मीरा बाई के भाई व मेड़ता के राजा राव जयमल के पुत्र गोविन्ददास का पोता था। वह जयपुर के खास बारह कोटड़ी राजघराने बगरू के चत्रभुज राजवातों का भांजा था और उसकी दूसरी रानी रेवासा कि लाड्खानोत शेखावत राजकुमारी थी। वो दक्षिण में औरंगजेब के साथ था और उत्तराधिकार के उज्जैन और धोलपुर के युद्धों में भी उनके पक्ष में लड़ा था। उसने राजवात व शेखावत कछवाहों के साथ मिलकर संयुक्त शक्ति से गौडों के ठिकानों पर आक्रमण कर संवत 1717 (1659 ई) में उनकी पैत्रिक जागीरें छीन ली। मारोठ, पांचोता, पांचवा, लूणवा, मिठडी, भारिजौ, गोरयां, डूंगरयां, दलेलपुरो, घाटवौ, खौरंडी, हुडील, चितावा आदि को मेड़तीयों, राजवतों और शेखावतों ने बाँट लिया। तत्पश्चात बादशाह औरंगजेब ने महाराजा की पदवी व गौडावाटी का परगना ठाकुर रघुनाथ सिंह मेड़तिया को 140 गावों के वतन के रूप में दिया। [13]

रघुनाथ सिंहजी संवत 1717 से 1740 तक मारोठ के महाराजा रहे। उनकी पाँच महारानियाँ तथा आठ पुत्र थे जिनके लिये पांच भव्य महलों का निर्माण करवाया गया। उनका जयेष्ट पुत्र रूपसिंह असम के सिबसागर रियासत का राजा था, व अहोम युद्धों में निसंतान वीरगति को प्राप्त हुआ। दूसरी महारानी के दोनों पुत्र महाराजा बने - सबल सिंह मेंढा नरेश तथा बिजय सिंह जिलिया नरेश। तीसरी महारानी का पुत्र शेरसिंह लूणवा का व अमरसिंह देओली का ठाकुर बने। चौथी महारानी का जयेष्ट पुत्र हठीसिंह पांचोता का ठाकुर बना तथा उसने अपने अनुज किशोरसिंह के पुत्र जालिमसिंह को कुचामन का एक ग्राम दिया जिसके वंशज ठाकुर हरिसिंह को संवत 1987 में राजा की पदवी मिली। पांचवी महारानी के पुत्र आनंदसिंह को पाँचवा की जागीर मिली।[13]

मारोठ का मान मंदिर व दुर्ग भारतीय कला के लिये विख्यात है।[2]

मारोठ के पांचमहल[संपादित करें]

मारोठ सात परगनों (महलों) का एक विशाल राज्य था जो जयपुर, खण्डेला, चाकसू, पाटन आदि राज्यों की भांति अजमेर सूबे के अंतर्गत था।[14][15] कई ग्रामों के समूह को मिलाकर बनी सबसे छोटी मुग़ल इकाई को परगना या महल कहते थे, जो आज एक जिले या तहसील के समान है। हर महल के ऊपर एक सरकार होती थी और कई सरकारों को मिलाकर एक सूबा बनता था।

मींडा, जिलिया, लूणवा, पांचोता और पांचवा मारोठ के प्रमुख राजघराने हैं व पांचमहल कहलाते हैं। इनमें मींडा और जिलिया दोनों ही मारोठ राज्य की डेढ़सौ घोड़ों की वतन जागीर के बराबर हिस्से थे। एक घोड़े की जागीर में पांच हज़ार बीघा भूमि होती है।[16]

जब महाराजाधिराज रघुनाथ सिंह की पहली महारानी के गर्भ से उत्पन्न उनका ज्येष्ठ पुत्र रूपसिंह कुंवरपदे में ही निसंतान खेत हुआ तो उसकी दूसरी महारानी के पुत्र सबलसिंह ने छोटी रानियों के पुत्रों को एक-एक करके छोटी-छोटी जागीरें प्रदान कीं जिनमें पांचोता- बत्तीस घोड़ों की जागीर, पांचवा- सत्ताईस घोड़ों की जागीर एवं लूणवा- अड़तीस घोड़ों की जागीर थी। पैतृक राज्य मारोठ की शेष डेढ़सौ घोड़ों की जागीर से जब सबलसिंह ने अन्य भाइयों के सामान अपने सहोदर भ्राता बिजयसिंह को भी छोटी-सी जागीर देनी चाही, तो उसने उसका कठोर विरोध किया व उसे युद्ध के लिए ललकारा।[17] बुद्धिमान सबलसिंह अपने भाई की शक्ति से परिचित था अतः बिना युद्ध किये ही दोनों पचहत्तर घोड़ों की स्वंत्र रियासतों के नरेश बने।[18]

जिलिया की जोधपुर व टोंक से संधि[संपादित करें]

जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह ने जब मारोठ पर आक्रमण किया, तब दीर्घ युद्ध के पश्चात संवत 1764 (अप्रैल सन् 1710) में जिलिया ने जोधपुर से संधि कर संरक्षित राज्य (ठिकाना) का दर्जा प्राप्त किया। अजीतसिंह के पुत्र महाराजा अभयसिंह के नाम पर रियासत का नाम अभयपुरा हुआ,[19] और उनके पोत्र जोधपुर (महाराजा बख्तसिंह के पुत्र) महाराजा बिजयसिंह का नाम जिलिया के महाराजा बिजयसिंह के नाम पर रखा गया तथा उनका राजतिलक भी संवत 1809 (सन् 1753)) में मारोठ में ही जिलिया के महाराजा दुर्जनसालसिंह ने करवाया। [20] दुर्जनसाल गुजरात के युद्ध में मारवाड़ के साथ लड़े और घावों के कारण जालोर में प्राण त्यागे, जब जोधपुर दरबार ने कहा:
"ढूँढाड़ खंड को सेहरो, मरुधर खंड की ढाल।। (जयपुर की चट्टान, मारवाड़ की ढाल।)
डंका है चहुँ देस में, बांको है दुर्जनसाल।।" (जो विश्व विख्यात है, ऐसा श्रृेष्ठ वीर है दुर्जनसाल।)

मरहटों से हारे जोधपुर के महाराजा विजयसिंह ने संधि कर अजमेर और 60 लाख रूपए की जगह मारोठ, नावां, परबतसर और मेड़ता की आमदनी उन्हें सौंप दी। यह अस्थिरता का दौर काफी समय चलता रहा। जून 1804 में जोधपुर नरेश ने मारोठ पर सेना भेजी। [21] उस समय मराठा होल्कर के सेनानायक पठान पिण्डारी अमीर खां (जो सन् 1820 में टोंक का नवाब बना) ने जोधपुर, जयपुर, शेखावाटी एवं फिरंगी हुकूमत में लूटमार और हड़कम्प मचा रखा था। जब अमीरखां ने मारोठ के बूढ़े राजा को पराजित कर दिया, तो उसका कुंवर अमीरखान की पुत्री को उठा लाया व संधि में अमीरखां ने जिलिया की सेना के विरुद्ध कभी न लड़ने का वचन दिया। अमीरखां जब अपनी एक लाख की विशाल सेना के साथ जोधपुर जा पहुंचा, तो इसी संधि के कारण जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह ने जिलिया से सहायत मांगी।[4]

मेवाड़ महाराणा का सिर झुकने से रोकना[संपादित करें]

जब मेवाड़ महाराणा राजसिंह दिल्ली के बादशाह की गुलामी स्वीकारने दिल्ली जा रहे थे, तब जिलिया गढ़ के अंतर्गत रतनूं शाखा के चारणों के ग्राम चारणवास के निवासी कवि कम्मा नाई ने दिल्ली जा रहे राणा को उनके पूर्वजों का गौरव-स्मरण कराते हुए बादशाह के सामने सिर झुकाने से रोका और महाराणा राज सिंह रास्ते से ही वापस आ गए।[22]

1857 ई. की क्रांति[संपादित करें]

जिलिया गढ़ में प्रवेश का मुख्य पोल।

गूलर, मारोठ, सोजत, आसोप, आलणियावास, बुड़सू आदि के सरदार अंग्रेज़ों व मारवाड़ की गुलामी व मनमानी के खिलाफ कई वर्षों से रेख नहीं दे रहे थे अतः उनकी पैतृक जागीरें जोधपुर हड़पे जा रहा था।[23]

1857 ई. की क्रांति में अंग्रेजो का विरोध कर यहाँ के वीरों ने जान की बाज़ी लगा दी,[24] जिसके पश्चात नावां व सांभर का इलाका ज़प्त कर लिया गया व रियासत को ठिकाने का दर्जा मिला जिससे महाराजा को केवल उसके क्षेत्र सम्बंधी अधिकार रहे। जबकि कुचामन आदि ने अंग्रेजों का साथ दिया व तरक्की की। फिर भी कुचामन आदि जागीरों से भिन्न जिलिया को जोधपुर की सेवा में फ़ौज नहीं भेजनी पड़ती। उसकी महाराजा की पदवी व 11 तोपों की सलामी, पचरंगा झंडा (केसरिया, काला, पीला, हरा, गुलाबी), फ़ौज, मर्ज़िदान, चपरास, कर्मचारी, कामदार, व स्वायत्ता कायम रही।[4]

जोधपुर दरबार में उसे उच्चतम दर्जे की दोहरी ताज़ीम, सोनानरेश, आदि सम्मान मिले परन्तु ठिकाना बनने से महाराजा की मुग़ल पदवी केवल नाममात्र रह गयी तथा जिलिया के महाराजा ठिकाने के स्वामी होने के कारण ठाकुर साहेब के नाम से भी सम्बोधित किये जाने लगे।[4]

चित्र:Bijay Singh.png
महाराजा श्री बिजय सिंहजी राठौड़, ताज़ीम नरेश पंचमहल मारोठ अभयपुरा जिलिया, नागोद की राजकुमारी से विवाह के समय।

जिलिया के अंतिम महाराजा श्री बिजय सिंहजी-II थे। आपका जन्म जन्माष्टमी 5 भाद्र 1973 संवत (20-21 अगस्त सन् 1916) को परेवड़ी ग्राम में हुआ। आप सन् 1947 में राजगद्दी बिराजे। समाज कल्याण के लिये आप तीन बार चुनाव लड़े व भारी बहुमत से विजयी हुए किन्तु तत्पश्चात आपने राजनीति से सन्यास ले लिया।

आपका प्रथम विवाह 16 वर्ष की आयु में पड़िहार राजकुमारी अम्बिकाप्रसाद से हुआ जो नागौद रियासत के युवराज महाराजकुमार लाल साहिब भार्गवेन्द्रसिंह व उनकी रानी लाल साहिबा रणछोड कँवर की एकमात्र पुत्री, और रीवा राज्य स्थित कसौटा (शंकरगढ़) व इलाहाबाद स्थित बड़ा-राज के बघेल महाराव राजा रामसिंहजी की दौहित्री थी। उनके दो पुत्रिया हुईं, व एक पुत्र का कम उम्र में देहांत हो गया।

  • बड़ा बाईजीलाल साहिबा राजकुमारी हेम कँवर का जन्म सन् 1938 में हुआ। इनका विवाह जयपुर के ताज़ीमदार ठिकाने सेवा के खंगारोत ठाकुर साहिब के इकलौते पुत्र कुंवर रघुवीर सिंह से हुआ जो नारायणपुरा ठिकाने के दोहिते थे। इनका निधन 27 फरवरी 2014 को 76 वर्ष की आयु में हुआ। इनके चार पुत्र व दो पुत्रियाँ हुईं।
  • छोटा बाईजीलाल साहिबा राजकुमारी शरद कँवर का जन्म सन् 1940 में हुआ। ये बड़े कर्मठ, मन से अच्छे व धार्मिक थे। इनका विवाह झुन्झुनू के पंचपाना ठिकाने गांग्यासर के शेखावत ठाकुर संपत सिंह के इकलौते पुत्र कुँवर यादवेन्द्र विक्रमदेव सिंह से हुआ जो मारोठ के पंचमहल लूणवा की एक शाखा बावड़ी ठिकाने के दोहिते थे। इनके दो पुत्र हुए व इनका निधन पुत्री के जन्म पश्चात हुआ व बाईसा भी कुछ वर्ष ही रहे।

महारानी अम्बिकाप्रसाद की मृत्यु के दस वर्ष बाद महाराजा बिजयसिंहजी ने जयपुर के खास-चौकी भाकरसिंघोत खंगारोत ठिकाने जड़ावता की राजकुमारी (वर्तमान राजमाता) लाड कँवर से पाड़ली हाउस, जयपुर में विवाह किया। आपके पिता ठाकुर पनेसिंह प्रसिद्ध ठाकुर लखधीरसिंह के पौत्र थे जो मालपुरा के युद्ध में जयपुर के पक्ष में (1800 संवत) में शहीद हुए थे। आपकी माता ठकुरानी केसरकँवर दोबड़ी (रियां) के मेड़तिया ठाकुर साहिब और अमरगढ़ की कानावत राजकुमारी की पुत्री थीं; जयपुर अन्तर्गत अचरोळ ठकुरानी आपकी मासी थीं, अतः उनकी पुत्री महाराणा भूपाल सिंह से विवाह कर मेवाड़ महारानी बनीं। राजमाता लाडकंवर का अधिकांश बचपन जड़ावता के अलावा माता व संबंधियों के साथ अचरोल और मेवाड़ के महलों में बीता। आप राजाधिराज हरीसिंहजी की बहिन व ईडर महाराणीसा की मासीसा हैं। आपकी बहिन बाईसा उम्मेद कँवर का विवाह दोहरी ताज़ीम कुम्भाना ठिकाने के कुंवर अमर सिंह राठौड़, एकमात्र पुत्र राव बहादुर ठाकुर दौलतसिंह रतनसिंहोत बीका, बीकानेर महाराजा गंगा सिंहजी के मास्टर ऑफ़ हाउसहोल्ड व ए०डी०सी० से हुआ। दूसरी बहिन बाईसा सौभाग्य कँवर का विवाह नारायणपुरा के इन्दरसिंहोत रघुनाथसिंहोत मेड़तिया ठाकुर भवानी सिंह राठौड़ से हुआ। राजमाता के कोई भाई ना होने के कारण उनका जड़ावता की ज़मीन-जायदाद में भी हक़ है। आपके दो पुत्र व पुत्रियाँ हुए। महाराजा साहिब बिजयसिंघजी का निधन 17 जनवरी 2004 को जिलिया में हुआ। राजमाता ने महाराजा साहिब की इच्छानुसार बरसों पहले बारिश में ध्वस्त राधा-कृष्ण मंदिर के नवनिर्माण के लिए भूमि दान कर सन् 2014 में राजघराने की प्राचीन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की।[4]

चित्र:Krishna Kumari.jpg
राजकुमारी कृष्णा कुमारी बाईसा
  • बड़े कुंवर हनुवंतसिंह का एक वर्ष की आयु में देहांत हो गया।
  • बड़ा बाईजीलाल साहिबा राजकुमारी किरण कुमारी [नन्ही बाईसा] का जन्म 1946 में जड़ावता महल में हुआ। आपका विवाह 1967 में सरवड़ी के ताज़ीमी कर्नल ठाकुर हनुमान सिंह व उनकी ठकुराणी मारोठ के केराप ठिकाने की मेड़तणीजी के ज्येष्ठ पुत्र ब्रिगेडियर उम्मेदसिंह से हुआ जो कि सीकर ठिकाने के उत्तराधिकार में सर्वोपरि थे। आप ओ.टी.ए., मद्रास से फ़ौज में अफसर बने व 27 दिसम्बर 1987 को आपका सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया। आप फलना स्थित सतगुरु गैस एजेंसी के प्रोपराइटर हैं व आपके पुत्र का विवाह पचरंडा में हुआ। (सरवड़ी हाउस, गणेश पार्क, अम्बाबाड़ी, जयपुर - 302012)
  • महाराजा इन्द्रभानसिंहजी का विवाह बाईसा सज्जन कँवर से हुआ जो मकराणा-बड़ा व मोकाला के सांभरिया चौहान जागीरदार महाराज श्री बाघसिंहजी व उनकी पहली राणी, मेड़तणी रामकँवर (पुत्री पचरंडा ठाकुर कर्नल जवाहर सिंह व धमोरा शेखावतजी) की पुत्री थीं। (जिलिया गढ़, कुचामन, नागौर) (जिलिया हाउस, उदयमंदिर, जोधपुर) (श्यामनगर, सोडाला, जयपुर)
  • छोटा बाईजीलाल साहिबा राजकुमारी कृष्णा कुमारी बाईसा [लाला बाईसा] का जन्म 1960 में जड़ावता महल में हुआ। आपका अचरोल महल में राजमाता लाडकंवर के साथ कुछ समय बीता। मैसूर महारानी (अचरोल राणीसा के बहिन) का इनपर विशेष स्नेह था। आप जरासिंघा-बलांगिर के मण्डलेश्वर लाल साहिब की धर्म बहिन भी हैं। आपका विवाह 1979 में मुँडरू के कर्नल ठाकुर आनन्द सिंह शेखावत से हुआ जिनके पिता राजश्री ठाकुर रेवत सिंहजी के विवाह पांचवा, नटूटी (जोधा की) व आसोप में हुए थे। आप एन०डी०ए०, खड़कवासला, से फ़ौज में अफसर बने। इनके एक पुत्री व दो पुत्र हैं। (जैकरिफ़ हाउस, विजय द्वार, क्वींस रोड़, जयपुर - 302021)

धार्मिक सौहार्द[संपादित करें]

मारोठ की सेना में मूलतः मुसलमान सैनिक थे। मारोठ के शासक महाराजा रघुनाथसिंह राठौड़ का प्रधान-सेनापति 'भाकर शाह' मुसलमान था, दोनों में अटूट प्रेम के फलस्वरूप राजा की इच्छानुसार मरणोपरांत दोनों की मजारें साथ-साथ बनीं थी। रघुनाथसिंह राठौड़ के दाह स्थल पर मंदिर और भाकर शाह की मजार पर मस्जिद दोनों के मित्र प्रेम-यादगार स्वरुप आज मंदिर-मस्जिद साथ-साथ (सटे हुए) स्थित हैं।[25]

भाषाएँ[संपादित करें]

मारोठ में बोली जाने वाली मुख्य भाषाओं की सूची इस प्रकार है:

भूगोल और जलवायु[संपादित करें]

जिलिया गढ़ महल की छत से मारोठ की अरावली पर्वतमाला का नज़ारा।

भू-आकृतिक विशेषतायें[संपादित करें]

मारोठ संसार की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली पर्वतमाला के पश्चिमी भाग व सांभर झील के उत्तर में स्थित एक क़स्बा है। यहाँ के रेत के टीले, खुले मैदान, नदियाँ, झीलें और अरावली के पर्वत इस क्षेत्र की विशेषता हैं। यह पर्वतश्रेणी राजस्थान से दिल्ली तक फैली हुई है। यह संसार की सबसे प्राचीन पर्वतमाला है और इसमें अनेक किले व दुर्ग हैं। मारोठ के दक्षिण में सांभर झील है जो मीण्डा, रुपनगढ़, खण्डेल तथा खारी और उनकी सहायक नदियों द्वारा बना है। सांभर झील के दक्षिण में किशनगढ़, अजमेर, मेड़ता और जोधपुर हैं। मारोठ की उत्तर दिशा में सीकर, खंडेला और दांता-रामगढ़ हैं। पूर्व दिशा में जयपुर व टोंक और पश्चिम में नागौर और बीकानेर हैं। मकराना, कुचामन, नावां आदि में जलस्तर नीचे होने के कारण पानी खारा व फ्लोराइड युक्त होने से पीने योग्य नहीं है। अतः गत वर्षों में सरकार द्वारा जिलिया के निकटवर्ती गावँ आनंदपुरा से बोरिंग द्वारा पानी मकराना तक ले जाया जा रहा है जिससे जिलिया का भूमि जल स्तर काफी नीचे चला गया है।[26][27]

जिलिया में राष्ट्रीय पक्षी मोर बहुतायत में हैं। लोगों की श्री कृष्णा में श्रद्धा के कारण यहाँ मोर सुरक्षित रहते हैं।

जलवायु[संपादित करें]

मारोठ में भू-आकृति के प्रभाव में छोटे और स्थानीय स्तर पर भी जलवायु में कुछ विविधता और विशिष्टता मिलती है। मूलतः मारोठ क्षेत्र की जलवायु शुष्क प्रकार की है, परन्तु झीलों के समीपस्थ नम प्रकार की। नावां शहर, जिलिया, अजमेर शहर तथा कुचामन सिटी में उमस के बाद हल्की बारिश व बूंदाबांदी आम बात है।[28] जिलिया क्षेत्र में बारिश से मौसम खुशगवार रहता है।[29]

राजस्थान व मारवाड़ के अन्य मरुस्थलीय भागों से भिन्न जिलिया में तेज बारिश से खेत लबालब हो जाते हैं।[30] कभी कभी एक ही दिन में आग जैसी तेज धुप व बेर के आकार के ओले गिरना भी यहाँ संभव है।[31] यहाँ वैशाख महीने में में भी की बार सावन जैसा रंग दिख जाता है। आकाशीय बिजली के प्रभाव से पिछले कुछ समय से जान-माल को भी नुक्सान हुआ है।[32]

संस्कृति[संपादित करें]

जिलिया, राजस्थान स्थित छतरियाँ।

मारोठ भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है। यहां की सांस्कृतिक धरोहर बहुत संपन्न है। आक्रमणकारियों तथा प्रवासियों से विभिन्न चीजों को समेट कर यह एक मिश्रित संस्कृति बन गई है। मारोठ का समाज, भाषाएं, रीति-रिवाज इत्यादि इसका प्रमाण हैं। गौड़ाटी समाज बहुधर्मिक, बहुभाषी तथा मिश्र-सांस्कृतिक है। पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों को काफी आदर की दृष्टि से देखा जाता है।

मारोठ महाभारत काल से ऐतिहासिक व्यापार पथों का अभिन्न अंग रहा है। जैन धर्म का भी यहाँ काफी विकास हुआ,[33] और राजपूताना के सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मारोठ के मान मन्दिर, उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिर, मोजमाबाद (जयपुर), आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर) स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूनों में गिने जाते हैं।[2]

मारोठ कस्बे में ग्यारहवीं व बारहवीं शताब्दी के जैन चित्र व अभिलेख पाये गए हैं। कस्बे में चार प्राचीन जैन मंदिर हैं। धरम चंद सेठी, जिसे श्रीभूषण ने भट्टार्क बनाया, मारोठ का निवासी था। उसने सन् 1659 में मारोठ में गौतमचरित्र लिखी, जिस समय यहाँ महाराजाधिराज रघुनाथसिंह शासक था। उसके चेले दामोदर ने सन् 1670 में आदिनाथ के जैन मंदिर में चन्द्रप्रभुचरित्र लिखी।[34]

विभिन्न धर्मों के इस भूभाग पर कई मनभावन पर्व त्यौहार मनाए जाते हैं - दिवाली, होली, दशहरा, ईद उल-फ़ित्र, ईद-उल-जुहा, मुहर्रम आदि भी काफ़ी लोकप्रिय हैं। यहां खानपान बहुत ही समृद्ध है। शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों ही तरह का खाना पसन्द किया जाता है। यहां में संगीत तथा नृत्य की अपनी शैलियां भी विकसित हुईं, जो बहुत ही लोकप्रिय हैं। कुचामनी ख्याल की मनोरंजक व हास्य लोक नाट्य शैली कला जगत में प्रसिद्ध है।[35][36]

खेलों में फुटबॉल तथा क्रिकेट सबसे अधिक लोकप्रिय है।[37]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Rāghavendrasiṃha Manohara. "Rājasthāna ke rājagharānoṃ kā saṃskr̥tika adhyayana". Pañcaśīla Prakāśana, 1991. अभिगमन तिथि 30 जुलाई 2014.
  2. "राजस्थानी कला : इतिहास का पूरक साधन". इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर दि आर्ट्स. 2003. मूल से 11 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 जुलाई 2014. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "राहुल तनेगारिया" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  3. "मारोठ का मेड़तिया राजवंश". यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया. 2007. मूल से 24 दिसंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 जुलाई 2014.
  4. "जिलिया (मारोठ)". प्रिंसली स्टेट्स ऑफ़ इंडिया. 2012. मूल से 29 सितंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 जुलाई 2014. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "प्रिंसली स्टेट्स ऑफ़ इंडिया" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
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